इस वक्त
रात के दो बज रहे हैं और उन्हें नींद नहीं आ रही है. वैसे तो नींद हर किसी को आती
है, लेकिन वे ‘हर किसी’ में शामिल कब थे जो अब होते. और होते तो सो ही रहे होते. उनके कक्ष में
कुछ भी बदला नहीं है. उनका डबल बेड वही है जिसकी दराजों में नोटों की वही
थाप्पियाँ अभी भी पड़ी हुई हैं. गद्दों और तकियों में भी उतने ही नोट हैं . सोते थे
तो लगता था कि साक्षात् माँ लक्ष्मी की गोद में सो रहे हैं कमाऊ पूत. ऐसी कोई रात
नहीं थी जब उन्हेंने सोने-चांदी से कम का सपना नहीं देखा हो. भरे मन से माता
लक्ष्मी के चित्र को देखा जिसकी पूजा कुछ दिन पहले उन्होंने लोट-लोट के की थी. वे
मुस्करा रहीं थीं. कोई और वक्त होता तो हाथ जोड़ते पर आज कूढ कर रह गए. खिन्नता से
उन्होंने पलंग की दराज को खेंचा, लगा कि नोटों के बंडल नहीं हजारी शव पड़े हैं.
क्या करते, लिपट के रो लिए. सगों से ज्यादा अपने थे, रोना तो आएगा ही. वैसे भी रो
देने का बड़ा महत्त्व है आजकल, साख बन जाया करती है. पुरखे बोल गए थे कि मनुष्य
जीवन धन कमाने के लिए होता है. जिसके पास धन नहीं वो मनुष्य ही नहीं है.
उनकी
धारणाएं तेजी से बदल रहीं हैं, अभी तक मानते थे कि देने वाला छप्पर फाड़ के देता
है, अब देख रहे है कि लेने वाला भी कम नहीं है. सोचते थे कि बुरे वक्त के लिए धन
जरुरी है सो जोड़ते गए. ये नहीं सोचा कि धन
के कारण ही बुरा वक्त यों टूट पड़ेगा. जिस बिल्ली को टंगड़ी डालते आ रहे थे वही एक
दिन अंटियों सी लाल आँखे दिखा कार म्याऊं करेगी ! पहले वाले असल संस्कारी थे, चंदा
लेते थे तो काम भी करते थे. उन पर कभी धर्म संकट आया भी तो चवन्नी की बलि चढ़ा कर
बरी हो गए. बेचारों ने भगवान से बुराई ले ली लेकिन यजमानों का हमेशा ध्यान रखा.
लगता है राजनीति में यारी और वफ़ादारी के दिन लद गए. जिसे दक्षिणपंथी समझा था वो
कामरेडों का काका निकला. मन में गुस्सा इतना कि चाय पीने भर से उल्टी होने लगती है.
अचानक
उन्हें अपने डाक्टर का ध्यान हो आया, परेशनी में थे सो उन्हें फोन किया. कहा – “ डाक्साब नींद नहीं
आ रही है “.
“ मैं
क्या करूँ सेठ जी , मुझे भी नहीं आ रही है”. वे बोले.
“ आप तो
डाक्टर हो ! कुछ करो ना .”
“ मैं नोटों
के ढेर पर बैठा शव-साधना कर रहा हूँ . आप भी करो “.
“ क्या
इससे नोटों में जान आ जायेगी !?”
“ नोटों
में जान तो नहीं आएगी पर व्यस्त रहेंगे तो हमारी जान जरुर बच जायेगी “.
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