बुधवार, 27 अप्रैल 2022

देहला पकड़


 

आदमी अपनी वाली पे आ जाये कि लिखना है तो कुछ भी लिख सकता है . फुरसत का तो पूछो मत ; अब दिनों, हप्तों, महीनों, वर्षों की होने लगी है . आप ही सोचिये कितनी ही बेरोजगारी क्यों न हो आखिर कोई कब तक दहला पकड़ खेल कर टाइम पास पर सकता है ! लेकिन सिर्फ यही एक वजह नहीं है कि हर कोई लेखक हुआ पड़ा है . हर घर में बेरोजगार है जो ग्रेजुएट या इससे भी ऊपर तक पढ़ा है . कुछ ने बहकावे में आ कर चाय की दुकान तक लगा डाली लेकिन दुर्भाग्य, नाले से पर्याप्त गैस नहीं मिली . पांच छह सालों में बेरोजगारों की भीड़ इतनी बढ़ गयी है कि कोई भक्त सरकार यदि इन्हें गैस चेंबर में भर कर मोक्ष प्रदान करना चाहे तो गैस ही कम पड़ जाये . दुविधा और भी है आदमी पूरा मरा हो तो तकनीकी रूप से उसका वोट दो-चार चुनाव तक मेनेज हो सकता है . लेकिन अधमरे बेरोजगार से वोट लेना भी महंगा पड़ता है, नाशुक्रे रुपये ज्यादा मांगते हैं या फिर नोटा का भाटा मार देते हैं . इन्हें डंडे भी मारो तो कमबख्त नौकरी मांगते जोंक की तरह चिपक जाते हैं . वो तो अच्छा है बीच बीच में रैली-उद्योग, दंगा-उद्योग, सभा-उद्योग में बेरोजगारों की जरुरत निकल आती है और हजार पांच सौ उनके हाथ में आ जाते हैं वरना बीडी सिगरेट के डोडे पीने वाले हाथ कब पत्थर उठा लें कहा नहीं जा सकता है .

इधर साक्षर कालोनी से चार पांच साप्ताहिक पाक्षिक अख़बार निकल रहे हैं जो राष्ट्रीय स्तर के हैं ऐसा उनका दावा है . अख़बार अपना हो तो बाहर का साक्षर संपादक रखने की जरुरत नहीं पड़ती है . योग्यता का कोई सवाल ऐसी स्थिति में पैदा ही नहीं होता है . कुछ ने तो अपनी संगिनी को संपादक की कुर्सी पर बैठा लिया है . जब पार्षद-पति / सरपंच पति हो सकता है तो संपादक-पति क्यों नहीं ? एक राज्य में तो अपढ़ पत्नी को मुख्यमंत्री तक बना लिया गया था . और लोकतंत्र की जय हो कि वह पांच वर्ष राज भी कर गयी ! साक्षर कालोनी के इन राष्ट्रीय अख़बारों का च्यवनप्राश सरकारी विज्ञापन  हैं . मिल जाएँ तो पूरा अख़बार विज्ञापनों से भर दें . लेकिन थोडा बहुत दूसरा भी छापना पड़ता है . अच्छा ये है कि लिख्खाड अपनी रचनाएँ ले कर लम्बी लम्बी लाइन लगाये खड़े होते हैं . जीतनी जगह बचती है उस हिसाब से हांका लगा दिया जाता है . ‘चलो पांच सौ शब्द वाले आ जाओ’ . और एक झुण्ड आ जाता है . तीन सौ, दो सौ वाले भी बुला लिए जाते हैं . कभी कभी तो सौ वाले छः सात ले कर गरीबों के साथ न्याय करने का अवसर मिल जाता है . हजार पंद्रह सौ शब्द वालों को अब कोई नहीं पूछता है और गलती से भी कोई पारिश्रमिक मांग ले तो उसे बलात्कारी की तरह देखा जाता है .

खैर, साक्षर कालोनी की बात चल रही थी सो वहीं पर आते हैं . तमाम खाली हाथ इतने खाली हैं कि फ्री के स्लो-वाईफाई के बावजूद खाली ही रहते हैं . पहले दो जीबी डाटा फ्री देने वालों ने जबसे खुद हाथ पसारना शुरू कर दिया है यार लोग साहित्य का दहला-पकड़ खेलते हैं . अच्छी बात यह है कि एक दो रचना से मजे में आठ दस लोग खेल लेते हैं . किसी ने कविता, कहानी सुनाई तो कुछ आह और कुछ वाह भी ठोंकते हैं . हिसाब हर बात का होता है, नंबर सबका आता है . साहित्य का स्टार्ट-अप है जिसमें हर हाथ और मुँह के लिए काम है . नियमानुसार तारीफें ‘फटाफट-लोन’  हैं, मौके पर उसकी किस्तें जमा करना होती हैं .  कुछ की रचनाएँ कालोनी के राष्ट्रीय अख़बारों में छपते ही उस दिन का वह राष्ट्रीय कवि हो लेता है . सुख एक अनुभूति है जो निजी होती है . इसे आप नहीं समझोगे .

 पिछले दिनों तय हुआ कि शीघ्र ही ‘दहला-पकड़ साहित्य सम्मान’ शुरू किया जायेगा . पकड़ी जाने वाली विभूति को फूल माला, प्रशस्ति-पत्र, और ‘दहला-अलंकरण’ मोमेंटो वगैरह दिया जायेगा .  कुछ पैसा प्रायोजकों से और कुछ सम्मान प्रेमियों से एडवांस लिया जायेगा .  हाल या परिसर मालिकों को अध्यक्ष या मुख्य अतिथि बना कर उन्हें कार्यक्रम के दौरान पांच बार ‘महान हिंदी सेवी’ या ‘महान साहित्य सेवी’ संबोधित किया जायेगा . स्व-लेखन/प्रकाशन की अनिवार्यता से ‘पकड़-सम्मान’ मुक्त रखा जायेगा ताकि साहित्य की ओर अधिकारी, नेता, व्यापारी, उद्योगपति आदि आकर्षित हों . बेरोजगारी की आपदा में अवसरों का सृजन कोई बुरी बात नहीं है . पहले रूपरेखा तय हो जाये फिर दहला पकड़ते हैं . आयोजन समिति के ‘विवेक’ पर सारी बातें छोड़ी जाएँगी . जहाँ विवेक नहीं होगा वहाँ बहुमत से निर्णय लिए जायेंगे . पकड़ प्रतिभाओं की बुकिंग चालू रहेगी . शीघ्रता करें, निराशा से बचें .

 

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बुधवार, 20 अप्रैल 2022

वापसी में हृदय-सम्राट


 

क्या टाइम हुआ ?’ हृदय-सम्राट ने आधा घंटे में पांचवी बार पूछा तो साथ बैठे जीभइयाजी  ने कोई जवाब नहीं दिया । अंदर ही अंदर वो भुनभुनाया, ‘‘टिकिट नहीं मिला है तो घर पहुँचने तक अब ये टाइम ही पूछते रहेंगे हर पांच-दस मिनिट में ! .... और मैं भी पागल हूँ क्या पाँच पाँच मिनिट में बताता रहूँ  !’’

हृदय-सम्राट पिछले एक हप्ते से दिल थामे दिल्ली में डेरा जमाए बैठे थे कि हाईकमान से मुलाकात हो जाएगी और टिकिट भी कबाड़ लेंगे। साथ में दस जीभइयाजीभी थे जो हृदय-सम्राट के खर्चे पर ऐश करते हुए आए थे, लेकिन टिकिट नहीं मिला और एक एक कर सारे पंछी यहाँ वहाँ उड़ गए । जीभइयाजीटाईप लोगों का सीजन चल रहा है, उजड़े चमन में ज्यादा देर रुकने की गलती कोई नहीं करता है ।

‘‘कौन सा स्टेशन है ?’’ इस बार हृदय-सम्राट ने खिड़की से बाहर देखते हुए नया सवाल पूछा ।

‘‘अभी तो चले ही है दिल्ली से !! अभी कौन सा स्टेशन आएगा ! दिल्ली के बाहर मतलब आउटर पर ही होंगे कहीं । ’’ ‘जीभइयाजीने अपनी चिढ़ पर काबू रखते हुए जवाब दिया ।

‘‘ दिल्ली साली अपने को सूट नहीं करती है । पिछली बार भी टिकिट नहीं मिला था । ’’

‘‘ जीभइयाजी, सही कह रहे हो आप । पर करो क्या, टिकिट तो यहीं मिलते हैं ।’’ सावधानी और समर्थन के साथ उसने उत्तर दिया ।

‘‘ क्या टाइम हो रहा है ? ’’ उन्होंने फिर पूछा ।

‘‘ पौने नौ । ’’

‘‘ पौने नौ !! ... ट्रेन चले आधा घंटा ही हुआ है क्या !! ’’

‘‘ जीभइयाजी ।’’

‘‘ ट्रेन धीरे चल रही है या घड़ी ?’’

‘‘ दोनों ही धीरे चल रही है भइयाजी ।’’

‘‘ चलो निकालो यार, बनाओ एक एक ।’’ जीभइयाजी ने तुरंत आदेश का पालन किया और कोल्ड ड्रिंक की बाटल में तैयार कर लाए गए केसरिया पदार्थ से जाम बनाए । लगातार दो जाम तो हृदय-सम्राट राजधानी एक्सप्रेस की तरह बिना रुके खेंच गए। तीसरे से इएमआई-नुमा व्यवस्था में आए, बोले- ‘‘ अपने को नहीं दिया उसका गम नहीं है पर उस चोर को दे दिया !! ’’

‘‘ जीभइयाजी, जब अपने को नहीं दिया तो उस चोर को भी नहीं देना था । हाइकमान तो अंधे होते हैं । इनको क्या पता जमीनी हकीकत ! जमीन के धंधे से तो आप जुड़े हो, लगता है किसी ने आपके खिलाफ कान भरे हैं । ’’

‘‘ पार्टी वालों ने ही भरे होंगे और कौन भरेगा । .... साले सब तो चोर हैं .... एक भी सही आदमी नहीं है । ’’

‘‘ सही कह रहे हो भइयाजी, सब चोर हैं ।’’ कहते हुए चमचे ने पांचवा जाम थमाया ।

‘‘ सोचता हूँ कि ऐसी चोट्टी पार्टी में रहने का क्या अर्थ है .....’’

‘‘ सही बात है, कोई अर्थ नहीं है भइयाजी । ’’

‘‘ सब अपने अपनो को टिकिट बाँट रहे हैं, वंशवाद चला रखा है सालों ने ।’’

‘‘ और नहीं तो क्या ! बनिए की गादी हो गई राजनीति । ’’

‘‘ देख लेना ये पार्टी देश को बहुत जल्दी बरबाद कर देगी, .....’’

‘‘ भइयाजी मेरे को तो लगता है इस चुनाव में ये सरकार गई समझो, अच्छा हुआ कि अपने को टिकिट नहीं मिला वरना हरल्लों में नाम लिखते मिडिया वाले  । ’’

‘‘ क्यों !! ऐसे कैसे लिख देते ! .... अपन तो जीत रहे थे, पर इन बेवकूफों ने टिकिट ही नहीं दिया ! .... अब देखते हैं वो चोर कैसे जीतता है ।’’

‘‘ हाँ भइयाजी, अब कुछ भी हो जाए इस चोर को जीतने नहीं देना है । पूरी ताकत लगा देंगे इस चुनाव में ।’’

ट्रेन धीमी हुई और आहिस्ता से रुक गई । हृदय-सम्राट ने पूछा - कौन सा स्टेशन है ?

‘‘ पता नहीं भइयाजी, ...... लगता है रास्ते में ही रुक गई है ...... शायद सिगनल नहीं मिला है । ’’

हृदय-सम्राट ने बाहर झांक कर देखा ... दूर तक अंधेरा ही अंधेरा था।

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मंगलवार, 5 अप्रैल 2022

रामाबाबू रेडियो सिंगर


 

                         घंटी बजी, देखा दरवाजे पर रामाबाबू रेडियो सिंगर खड़े हैं . कहनेभर के पडौसी नहीं हैं, रियल पडौसी हैं . जैसे कि पुराने ज़माने में हुआ करते थे . उनका मानना है कि वो पडौसी दरअसल पडौसी नहीं है जो दुःख तखलीफ में काम न आये . उनका यह भी सोचना है कि इस रंग बदलती दुनिया में पडौसी कब अ-पडौसी हो जाए कहा नहीं जा सकता है . इसलिए किसी भ्रम में पड़े रहने की अपेक्षा समय समय पर इसकी जाँच करते रहना चाहिए . वरना आप मुगालते में रहें कि अपना पडौसी है और पडौसी भोर में आपकी बगिया से फूल नोच ले जाए और आपकी तरफ देखे भी नहीं कि कौन खेत की मूली हो .

                      रामाबाबू रेडियो सिंगर के हाथ में एक कटोरी है और चेहरे पर मुस्कानों की प्रश्नावली . बता दें कि रामाबाबू बीस साल पहले एक बार रेडियो में भजन गा आये थे . उन दिनों भजन का कितना महत्त्व था ये तो पता नहीं, रेडियो का बहुत था . रेडियो पर अपना नाम सुनने के लिए जवान बूढ़े सब फ़िल्मी गीतों की फरमाइश किया करते थे . ऐसे में रामाबाबू का डायरेक्ट भजन गा आना किसी चमत्कार की तरह देखा जा रहा था . अपने यहाँ लोग भूलते बड़ी जल्दी हैं . नोटों पर गाँधीजी की तस्वीर न हो तो केवल प्रतिमाओं के बल पर उनकी याद बनाये रखना इतना आसान न होता . रामाबाबू को लगा कि तीन चार दिन में ही उनकी रेडियो सिंगरी का उठावना हो जायेगा . छोटे से मोहल्ले में नेमप्लेट का चलन नहीं था . एरिया की पहली नेमप्लेट रामाबाबू ने ही लगवाई वह भी नार्मल साइज से डबल . ‘रामाबाबू रेडियो सिंगर’, साथ में मरफी के रेडियो का चित्र भी ताकि अनपढ़ों को असुविधा न हो . अन्दर आगे के कमरे में लटक रहा फ्रेम में जड़ा रेडियो का कांट्रेक्ट-लेटर भी, जिसकी वजह से वे प्रायः आगंतुकों को अन्दर तक खेंच लेते रहे हैं . इस वक्त अपनी कीर्ति की कृपाण बगल में लटकाए वे साक्षात् खड़े मुस्का रहे थे. उन्हें देखते ही एक चहक सी निकली – “अरे ! रामाबाबू आप !!”

“जी , रामाबाबू रेडियो सिंगर.” उन्होंने सुधार किया .

“हाँ हाँ, रेडियो सिंगर , मैं कहने ही वाला था .... आइये ना, कैसे आना हुआ ?”

“एक कटोरी शकर चाहिए .” उन्होंने अपनी मुस्कान का खुलासा किया .

“शकर !! ... वो क्या है मिसेस घर पर नहीं है .”

“ये तो अच्छी बात है, आप दे दीजिये, उन्हें पता नहीं चलेगा .”

“बात ये है कि मुझे पता नहीं है कि शकर कहाँ रखी है .”

              “अरे विदेश मंत्री या रक्षा मंत्री हो क्या देश के जो कुछ पता नहीं है ! शकर किचन में ही होती है ! देखिये जा कर किसी डब्बे पर शकर की चिट लगी होगी .”

            “बात ये है रेडियो सिंगर जी कि हमारे यहाँ कोई चीज ‘लेबल’ पर नहीं होती है . मतलब जिसे कांग्रेसी समझते हैं वो बीजेपी के डब्बे में मिलता है, सपाई को खोजो तो बसपाई में दीखता है . और तो और जो आलू प्याज मैदानी रहे वो भी किसी कोने में बैठे अपनी प्रिय फिल्म कालीचरण देखते मिलते हैं . कुछ समझ में नहीं आता है . हमारा किचन पूरा लोकतंत्र हो गया है . “

              कटोरी वाले हाथ को अब उन्होंने नीचे गिरा लिया, बोले – “आपको ध्यान रखना चाहिए . आखिर मालिक हैं आप घर के .”

              “मलिक नहीं ... चौकीदार भी नहीं ... कहना ही है तो राष्ट्रपति कह लीजिये घर का . वक्त जरुरत ही काम आता हूँ वह भी दस कायदों और निर्देशों के अनुसार . आप तो जानते ही हैं कि घर का भी डेकोरम और प्रोटोकोल होता है . ... आप बैठिये ... वो आती ही होंगी . पार्लर गयी हैं .”

“ब्यूटी पार्लर ...?”  उन्होंने पूछा.

“नहीं ... गॉसिप पार्लर . अपडेट होने गयी हैं .

“सुना है तीसरी गली वाले गोपाल जोगी की लड़की भाग गई है, उसी का बड़ा ‘वो’ चल रहा है इनदिनों . जानते सब हैं, पूछो तो कोई बताता नहीं हैं . लगों में सामाजिकता तो रह ही नहीं गयी है .आपको तो पता ही होगा क्या चल रहा है ?”

            “शकर का क्या करेंगे ?” उनके प्रश्न को किनारे करते हुए पूछा .

             “स्टाक तो करूँगा नहीं एक कटोरी शकर . चाय बनाना है खुद के लिए . शकर तो हमारे यहाँ भी थी लेकिन बिल्ली ने गन्दगी कर दी उसमें, आदत खराब है उसकी . सोचा आपके यहाँ से ले लूँ, ...लौटा दूंगा . ”

“कौन सी शकर लौटायेंगे ! वो बिल्ली वाली ?”

“वो तो मैंने शुक्ल जी को देदी . जो शुक्ल जी के यहाँ से लाया हूँ वो आपको लौटाऊँगा .”

“तो शुक्ल जी वाली शकर से ही चाय बना लेते ना !”

         “बना तो लेता लेकिन वही बिल्ली शुक्ल जी के यहाँ भी जाती है . आप तो जानते हैं मन में शंका हो तो कोई कैसे ... आपने कुत्ता पाल रखा है इसलिए बिल्ली इधर नहीं आती है ना. ”

“बेहतर होता कि आप दुकान से ही शकर ले आते .”

“ले तो आता, लेकिन इनदिनों दुकानों पर जो शकर मिल रही है वो पाकिस्तान से आई हुई है .”

“ये आपको कैसे पता !?”

“वाट्स एप पर तो कबसे आ रहा है ! और भी क्या क्या आ रहा है आप जरा देखिये तो !”

“अगर मेरे पास की शकर भी पाकिस्तान की हुई तो ?”

“हो सकता है नहीं भी ... कानून में शंका का लाभ मिलता है .... मेरे लिए तो आपकी शकर आपकी है . ... लीजिये भाभी जी आ गयीं .”

            उन्होंने हमारी तरफ प्रश्नवाचक देखा तो बताया कि रामाबाबू रेडियो सिंगर शकर लेने आये हैं एक कटोरी . उन्होंने तुरंत ला दी . लेकिन रामाबाबू रुके रहे . हमने मंतव्य समझ कर श्रीमती जी से पूछा – “और क्या अपडेट है ?”

“वही जो पिछले हप्ते था . रूस और यूक्रेन का झमेला . अमेरिका और चीन ताक में हैं, नाटो की ना ना है और भारत को कुछ समझ में नहीं आ रहा कि क्या करें .” वे बोलीं .

“भाभी जी वो तीसरी गली वाले गोपाल का क्या ?”

“हाँ ... वो तो गयी ... सुना है अब शादी करके ही लौटेगी . उनके तो मजे हो गए, खर्चा बच गया इस महंगाई में . लेकिन रामाजी भाई साब .... “

“रामाबाबू रेडियो सिंगर कहिये भाभी जी .”

“जी वही, ... आप भी अपने रेडियो का जरा ध्यान रखना ... सुना है आजकल कोई खास स्टेशन केच करने लगा है .”

             रामाबाबू रेडियो सिंगर की पहले आँखें फटीं, फिर लगा जैसे जमीन खिसकी . जमाना प्रेम में पागल है सबको पता है . उनका रेडियो दिनभर प्यार मोहब्बत के सुर में रहता है और उन्होंने ध्यान नहीं दिया ! वे तेजी से उठे .”

“अरे शकर तो ले जाइये .”

“रहने दीजिये ... अभी जल्दी में हूँ .”

“अच्छा अपनी कटोरी तो ले जाइये .”  लेकिन वे जा चुके थे . यानी रामाबाबू रेडियो सिंगर . आज घर में भजन होंगे ये पक्का है .

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सोमवार, 4 अप्रैल 2022

चिकना सोचो, चिकना बोलो, चिकना लिखो

 



                            कुछ देर खामोश रहे वे, लगा जैसे कुछ सोच रहे हों . सोचता हुआ आदमी अक्सर ख़ामोशी अख्तियार कर लेता है . अपने यहाँ वोटिंग के एक डेढ़ दिन पहले प्रचार बंद कर दिया जाता है ताकि वोटर सोच ले अच्छी तरह से . चुनाव के बाद रोना धोना जनता के लिए अलाउड नहीं है . अपना गेंदालाल याद है ? जिसने पिछले साल आत्महत्या कर ली थी . सात दिन पहले से खामोश चल रहा था . कभी कुँवे की मुंडेर पर बैठे नीचे झाँकता था तो कभी इमली के पेड़ पर ऊपर ताकता था . चुनाव हो या आत्महत्या, ऐसे मामलों में निर्णय लेना कठिन काम होता है . चुनाव आयोग भी चाहता है कि निर्णय बड़ा है तो लोगों को कुछ घंटे सोचने का मौका मिलना चाहिए . लेकिन किसी के चाहने भर से क्या होता है भले ही वह कोई आयोग फायोग ही क्यों न हो ! सभाएं और भोंगे बंद हो जाते हैं लेकिन टीवी चालू रहता है . और आप जानते ही हैं टीवी अपने आगे किसी को सोचने कहाँ देता है . एंकर का जलवा इतना कि वह चुनाव आयोग के सर पर भी चीखती रहती है . नतीजा यह कि न वोटर सोच पाता है न ही आयोग . लोकतंत्र का सबसे बड़ा संकट यह है  कि जनता को कोई भी सोचने नहीं देता है . राजनीति का मन्त्र है कि ‘न सोचो और न सोचने दो’ . इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए मैंने तय किया वे सोच रहे हैं तो सोच लेने दो अच्छी तरह से . अपन डिस्टर्ब मत करो .

                          पर्याप्त आकाश ताक लेने के बाद उन्होंने नजरें इनायत की . लगा जैसे कोई बड़ा फार्मूला बरामद कर लिया हो . बोले – “ देखिये आपके विचारों में काफी खुरदुरापन है, जब भी बोलते हो तो लगता है रेगमाल चला रहे हो, जब लिखते हो तो लगता है कांटे बो रहे हो . इन हरकतों से आदमी केक्टस का खूँट लगने लगता है . क्या तुम्हें नहीं लगता है कि अपनी छबि सुधारो ? कवितायें लिखो, ललित निबंध लिख डालो, कितना बड़ा नीला आकाश है सर पर उसे देखो, पहाड़, पंछी, फूल, नदियाँ  क्या नहीं है तुम्हारे सामने !? इन पर कलम चलाओ और साहित्य की दुनिया में फेयर एंड लावली हो जाओ . ... और याद रखो, ‘अच्छा’ लिखोगे तो पुरस्कार भी मिलेगा .”

                        “पुरस्कार !! ... पुरस्कार मिलेगा !?”

                        “अगर सरकार की, सरकार के महकमों की टांग खींचोगे तो कैसे मिलेगा ? गबन-घोटालों, भ्रष्टाचार को खींच खींच कर सामने रखोगे तो पुरस्कार देने वाले खुश होंगे क्या ? वे लोग तुम्हारी तरह अमानुष नहीं इन्सान हैं और इस ‘व्यापक’ व्यवस्था का हिस्सा हैं . और जानते हो पुरस्कार कहाँ से आता है ?  इसी व्यवस्था से . इसमें एक हाथ दूसरे हाथ की मदद करता है . ध्यान रखो तुम दूसरा  हाथ हो . ... अब बताओ, क्या विचार है ?”  उन्होंने पूछा .

                     “सर आपकी बात सही है लेकिन सारे लोग बसंत और सरसों पर कूदने लगेंगे तो कम्पीटीशन बहुत बढ़ जायेगा . रचनाकारों में भी वर्ण, जाति और गोत्र बन जायेंगे . बन क्या जायेंगे, पहले से ही बने हुए हैं, और विकृत हो जायेंगे .”

                     “फिर तो तुम शूद्र कहलाओगे . शूद्र भले ही साहित्य वाला हो उसे आदर का स्थान नहीं मिल सकता है . तुमने सुना ही होगा कि शूद्र कितना ही विद्वान् क्यों न हो वह कदापि पूज्य नहीं है . मुंह से भले ही कोई नहीं बोले पर मानते सब हैं . क्या तुम्हें नहीं लगता कि अपने लिखे से तुम साहित्य में शूद्र हो ? ऐसा लिखों कि ‘पूज्य’ श्रेणी के मने जाओ .” उन्होंने पूरी आँखों से घूरते हुए पूछा .

                      “शूद्र नहीं क्षत्रीय . साहित्य में हम क्षत्रीय हैं . हमारे पुरखों ने बताया है, बकायदे लिखा है कि हम लोग क्षत्रीय हैं .”  हमने कहा .

                      उन्होंने पुनः विचार मुद्रा धारण की . लगा कि कुछ याद करने की कोशिश कर रहे हैं . होठों पर दो तीन बार हाथ मरने के बाद बोले – “आरती और प्रशस्ति गाने वाले, चाटुकार और चम्मच, दुमदार लेखक क्षत्रीय कैसे हो सकते हैं !! लेखक में क्षत्रीय के गुण भी तो होना चाहिए. स्वयं को क्षत्रीय कहने से कोई क्षत्रीय नहीं हो जाता है . जब तक दुनिया उसे क्षत्रीय नहीं मान ले वह क्षत्रीय नहीं है . यों तो गली गली में होर्डिंग्स लगे होते हैं कि फलांचंद जन जन के प्यारे, लाडले हैं और युवा ह्रदय सम्राट भी हैं . तो क्या वे हैं !? दो कौड़ियाँ चीख चीख कर भी कहें कि वे स्वर्ण मुद्राएँ हैं तो क्या लोग मान लेंगे ?”

                   “ आप क्या चाहते हैं ? विसंगतियां दिखें तो क्या डिस्कवरी चेनल खोल कर बैठ जाऊं ? ... और यह जानने में दिलचस्पी लूं कि चिम्पाजी में कितना आदमी है और आदमी में कितना लंगूर बचा है ! और फिर इस पर एक कविता लिखूं !”

                    इस बार वे जरा आहत हुए . बोले – छोडो सब बैटन को . आप रोज रात को सोने से पहले नाभी में गाय का घी लगाया करो.

                       “ किसकी नाभी में ?!” मैंने पूछा .

                       “अपनी नाभी में और किसकी ! वैज्ञानिकों का मानना है कि नाभी में गाय का घी लगाने से विचारों में चिकनापन आ जाता है .”

                     “विचार तो दिमान में आते हैं ! सिर में लगाऊँ क्या ? ... गाय का घी .”

                      “सिर पर गाय का गोबर लगाना फायदेकारक होता है . ये कर सको तो बहुत अच्छा है . तुम्हारे लेखन में पवित्रता भी आ जाएगी .लेकिन चिकने विचार तो फिर भी चाहिए .”

                      “लेकिन नाभी में घी !!”

                     “देखो ऐसा है कि नाभी का सम्बन्ध सम्पूर्ण शरीर से होता है . चिकनाई लेखक के विचारों में होना चाहिए, इससे फिसलन अच्छी रहती है . आज के जमाने में फिसलता हुआ आदमी तेजी से आगे बढ़ता है . खुरदुरे और सूखे विचार जलाऊ लकड़ी की तरह होते हैं . इनसे थोड़ा भी जूझो तो घर्षण होता है . घर्षण गर्मी पैदा करता है . और अंत में आदमी, बिना पाठकों तक पहुंचे अंत को प्राप्त हो जाता है . .... अब बताओ, क्या सोचते हो ?”  

                     “बताना क्या है ... जैसा आप कहें .”

                     “तो ... चिकने बनो, चिकना सोचो, चिकना बोलो, चिकना लिखो ... और चक में रहो .”

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