शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2020

शहर में अस्पताल


शहर में बड़ा अस्पताल बना और लोग फटाफट बीमार रहने लगे । इससे ज्यादा अच्छे नागरिक किसी दूसरी जगह देखने को भी नहीं मिलेंगे । ये लोग जानते हैं की बिना नागरिक सहयोग के सरकार भी कुछ नहीं कर सकती है । लोकतन्त्र की खूबसूरती यही है कि  सरकार जनता के वोटों से बनती है । शुरू शुरू में वोट गावदी किस्म का सस्ता वोट था, लेकिन राजनीतिक दलों ने वोट कि कीमत लगा लगा कर उसे बाज़ार का महंगा आइटम बना दिया है । कभी अद्धे पौवे में बिकने वाले वोट अब जिंदगी भर का समान मुफ्त मांगने लगे हैं और मजे की बात यह कि शरम भी नहीं आती है ।
ये अस्पताल भी कभी दूसरी जगह के लिए बनना तय था जहाँ गरीबी बहुत है । सरकार को यह समझाने में बड़ा वक्त लगा कि गरीबों का अस्पताल से क्या लेना देना है । उनका इलाज तो खुद भगवान करते हैं । अस्पताल तो उन लोगों के काम का है जिनके पास खूब पैसे हैं । आप टीवी देखिए, बीमा वाले चीख चीख कर बता रहे हैं कि अस्पतालों के खर्चे लाखों में होने लगे हैं । यह एक तरह का अमानवीय कार्य हैं लेकिन लीगल है । अगर किसी को सर्दी खांसी भी हो जाए तो लाख- पचास हजार से कम में ठीक नहीं होता है । शायद इसी को विकास समझा / समझाया जा रहा है । इसलिए आप बीमा करवाइए, सरकार के हाथ में कुछ नहीं है । महंगे इलाज के लिए महंगा बीमा आदमी को सामाजिक प्रतिष्ठा भी दिलाता है । बीमें की प्रीमियम इतनी अधिक होती है कि एक बार दे कर साल भर आपको अमीर होने का अहसास होता है । इधर शहर भर के लोगों ने बीमा करवा कर सरकार की लाचारगी को श्रद्धा सुमन अर्पित किए । बिजनेस सेक्टर में इसे बीमा कंपनी और बीमा एजेन्टों की भारी सफलता बताया जा रहा है ।
लोग साल भर प्रीमियम भरें और बदले में अस्पताल जाने को न मिले तो फायदा क्या !! आदमी अमीर होता है बेवकूफ नहीं । स्कूटर का भी बीमा करवाता है तो खुद ठोक के मुआवजा वसूलता है । बीमा करने के बाद अस्पताल चिकित्सा केंद्र से आगे की चीज हो जाता है । सीजन भर की भागदौड़ और हायबाप के बाद आखिर हर घोड़े को अस्तबल होना चार छः दिन के लिए । ऐसे में अस्पताल दूसरे शहर में हो तो बड़ी दिक्कत होती है । बीमार अकेला महसूस करता है । लोग आ नहीं पाते हैं मुँह दिखाने और मिलने के लिए । सोचिए कोई पैसे वाला बीमार पड़ा हो, अस्पताल में भर्ती हो और उसकी तबीयत पूछने वाले आ नहीं पाएँ तो क्या फायदा ऐसी व्यवस्था से !! अस्पताल शहर में ही हो तो नाते रिश्तेदार अपना फर्ज पूरा कर लें । पास पड़ौसी, पार्षद-विधायक तबीयत पूछ लें तो बीमा और बीमारी सार्थक है वरना क्या धरा है संसार में ! लोकल अस्पताल में लोकल मरीज हो तो लोकल लीडर मिल लें और अखबार के लोकल पेज में खबर छप जाए तो लगे कि दुनियादारी सफल है । कभी कभी फूल लेते-देते फोटू भी आ जाती है तो समझो कि लोकतन्त्र की सांस चलती है इस तरह के माहौल से । अस्पताल असल में एक पूरे सिस्टम को भी जिंदा रखने के काम आता है । रहा सवाल गरीब गुरबों का तो भईया उनके लिए ओपीडी चालू रखो और गोली पुड़िया देते रहो । आखिर वोटों का भी जिंदा रहना जरूरी है । सिस्टम में गरीब की भूमिका वही होती है जो खेत में खाद की होती है ।
पिछले साल अस्पताल का उदघाटन ज़ोरशोर से हुआ था । मंत्री जी ने साफ साफ कहा था कि अब शहर के नागरिकों की ज़िम्मेदारी है कि वे अस्पताल का भरपूर लाभ लें । सरकार केवल अस्पताल का खर्चा उठा सकती है लेकिन बाकी लाभ उठाना जनता और बीमा कंपनियों के हाथ में है । लोगों को पीठ में खुजली भी हो और अगर उसने बीमा करा रखा हो तो उसे भी फ़ार्मेलिटी पूरी करके बकायदा अस्पताल में आ जाना चाहिए । अगर अस्पताल खाली रहा तो वह बीमार हो जाएगा । मंत्री ने इशारों में बात समझा कर सहयोग किया । तभी से शहर के नागरिकों ने तय कर लिया कि वो ऐसा नहीं होने देंगे ।
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भाबी की हॉबी


हॉबी बहुत अलग टाइप की चीज होती है । जिसको होती है उसी को होती है, सबको नहीं होती है । जलेभुने लोग इसे खुजली भी कहते  हैं । हालाँकि खुजली का मामला भिन्न है, उसका इलाज भी हो जाता है । भाबी जी ने चाय पकौड़ा मुलाक़ात में बताया कि उनकी बहुत सारी हॉबी हैं । पहली तो यही कि उनको पीएचडी करने का बड़ा शौक है । हँसते मुस्कराते दो बार कर चुकीं हैं । तीसरी बार भी करना चाहती हैं । लेकिन इस बार मन नहीं हो रहा है ।
आप सोच रहे होंगे कि पीएचडी बड़ा मेहनत का काम है । लोग एक करने में टूट  जाते हैं, भाबी जी ने दो दो निबटा दी हैं, उच्चशिक्षा कोई मज़ाक नहीं है । अब शायद हिम्मत जवाब दे रही होगी । सुना है ज्ञान व्यान का मामला है । कुछ लोग कहते हैं कि ज्ञान हो तो पीएचडी होती है और कुछ का मानना है कि पीएचडी हो तो ज्ञान होता है । पक्का क्या है यह अभी तक पता नहीं चल पाया है । एक पीएचडी इसी बात पर होना चाहिए । कोई कह रहा था किसी किसी को पीएचडी के बाद ज्ञान का सींग उग आता है । लोग सींग देख कर डरते हैं चाहे वो किसी का भी क्यों न हो । शायद पीएचडी का फायदा भी यही है । इधर दो दो सींग हैं । जिसका मतलब है कि बस हो गया । शिवजी का नंदी हो या कामधेनु गाय, सबके दो ही होते हैं । भगवान का ऐसा है कि जो करते हैं अच्छा ही करते हैं वरना नहीं करते हैं । अगर किसी के सिर पर तीन चार या ज्यादा सींग सुहाते तो जरा देर नहीं करते । हाथी, गधे और शेर को एक श्रेणी में रखा है तो कुछ सोचा ही होगा । दो पीएचडी की बधाई देते हुए भाबी जी से पूछा कि तीसरी क्यों नहीं आखिर !?’
“हॉबी तो है लेकिन ... अब मन नहीं हो रहा है ...”
“हॉबी का क्या होगा !!  .... कर लीजिए ना दिक्कत क्या है ?
“करने में कोई दिक्कत नहीं है ... लेकिन अब लगता है फायदा नहीं है कुछ । “
“सब ऐसा सोचेंगे तो कैसे काम चलेगा ! ... मुर्गी को अंडा देने से क्या फायदा है, यह सोच कर वो अगर अंडा देना बंद कर दे तो !”
“देखिए जब पहली करी तो नाम के आगे डॉ. लगा । जब दूसरी करी तो डॉ.डॉ. लगाना चाहिए । पर लोग लगाने नहीं दे रहे हैं । जब दो पीएचडी में एक डॉ. तो तीन में भी एक ही डॉ. लगाने को मिलेगा । फिर फायदा क्या !?
“कायदे  से तो डॉ.डॉ.डॉ. लगाना ही चाहिए ।  बल्कि डॉ.डॉ.डॉ. इतना बड़ा और प्रतिष्ठापूर्ण होगा कि इसके बाद नाम लिखने की जरूरत ही खत्म हो जाएगी ।  आखिर कौन है इस जहाँ में जिसने तीन तीन पीएचडियाँ  कर रखी है !... डॉ.डॉ.डॉ. बोलते ही गूगल बता देगा कि आप हैं ।”
“अरे नहीं, नाम तो लिखना ही पड़ेगा । आखिर मेरी सारी हॉबीस नाम के लिए ही तो हैं ।“
“और क्या हॉबी हैं आपकी ।“
“साहित्यकार हूँ, चित्रकार हूँ, गाती हूँ, होम्योपैथिक डाक्टर हूँ ... और हाँ ... आपकी हॉबी क्या है ?
“मेरी हॉबी !! .... वॉक करना .... पाँच किलोमीटर पैदल चलता हूँ । अच्छा याद दिला दिया .... अभी मैं निकलता हूँ डॉ.डॉ.डॉ. भाबी जी । फिर कभी आऊँगा फुर्सत में ।
 “लेकिन अभी ये तीसरा डॉ. क्यों !? पीएचडी तो करने दो पहले ।
“तीसरा डॉ. होम्योपैथी का है ..... नमस्ते । “
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गुरुवार, 20 फ़रवरी 2020

मंदी का संगीत



दिन मंदी के हैं और हरगोविंद को दुकान पर बैठे अपने तमाम दोस्तों की याद आ रही है । मंदी का यह बड़ा फायदा है, वरना दिन अच्छे हों तो लोग भगवान को भी याद नहीं करते हैं । कवि भी कह गए हैं –“दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय” । यही वजह है कि जब कोई दरवाजे पर आता है या फोन पर, तो मन में पहला सवाल यही उठता है कि कुछ काम होगा वरना बिना मतलब के कौन किसे याद करता है ! बाज़ार में भी जब कामकाज ज्यादा होता है उस समय को सीजन कहते हैं । सीजन में कारोबारी इतने व्यस्त होते हैं कि लघुशंका रोके गल्ले पर बैठे रहते हैं । ऐसे में उन्हें कोई याद आ जाए यह संभव नहीं है । लेकिन इन दिनों मंदी है और कारोबारी खूब पानी पी रहे हैं और बिना इमरजेंसी के लघुशंका भी जा रहे हैं । यू नो, टाइमपास । काटे नहीं कटते ये दिन ये रात .... । बाज़ार में ठंडापन इतना है कि लगता है कि सेमी कर्फ़्यू लगा हुआ है । अव्वल तो लोग आते ही नहीं, जो आते भी हैं तो लगता है परिक्रमा लगाते निकल जाते हैं । पोपली जेबें विधवा सी हो चली हैं । कभी लदी फँदी और भरी मांग वाली थीं अब भजन गा रही हैं – क्या ले कर आया बंदे, क्या ले कर जाएगा ; खाली हाथ आया है, खाली हाथ जाएगा
कल हरगोविंद ने अपना पुराना रेडियो निकल लिया । सोचा खाली बैठ कर सड़क टूँगने से अच्छा है कि विविध भारती पर साठ-सत्तर के दशक वाले गाने ही सुने जाएँ । पुरानी यादें उछलने कूदने लगेंगी तो दर्द पता नहीं चलेगा । मंदी का भी एक दर्द ही है । हालाँकि फेसबुक और वाट्स एप के जमाने में रेडियो से चिपकाना आउट डेटेड है । लेकिन ठीक है, पीत्ज़ा बर्गर के जमाने में लोग गुझिया गुलगुले भी तो खाते ही हैं । दुकान में तीन नौकर थे, दो को हटा दिया है । एक बचा है वह भी अब मालिक के साथ फ्री बैठा रेडियो सुनता रहता है । हरगोविंद को यही नहीं सुहाता है । मंदी हुई तो क्या हुआ मालिक मालिक है, नौकर नौकर है । उन्हे बेइज्जती सी महसूस होती है । लगता है जैसे दोनों एक ही कप से चाय पी रहे हों । मालिक नौकर एक ही जाजम पर बैठ कर उमराव जान का मुजरा सुने यह तो करीब करीब लानत जैसी बात है । लेकिन मंदी हैं भाई । मंदी में चौतरफा गिरावट दर्ज की जा रही है तो मालिक कौन चमेली का तेल डाल रहे हैं ! नौकर को तो फिर भी खाली बैठने के पैसे मिल रहे हैं, फालतू तो हरगोविंद है । यहाँ तक तो ठीक था, नौकर गाना सुनते हुए पैर हिलाता है । हरगोविंद को कतई अच्छा नहीं लगता है । एक दो दिन से वह सिर भी हिलाने लगा है । गुस्सा तो इतना आ रहा है कि नौकरी से निकाल दें । लेकिन मजबूरी है, कमबख्त को रुपए उधर दे रखे हैं जो तनखा से कटते हैं हर महीने ।
दूसरे दिन हरगोविंद रेडियो घर ले गए और कान में ईयर फोन लगा कर सेलफोन से गाने सुनने लगे । उन्हें देख कर नौकर ने भी अपना फोन निकाला और कान में बट्टे ठूंस लिए ।
हरगोविंद को यह भी पसंद नहीं आ रहा है ।
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गुरुवार, 6 फ़रवरी 2020

कविता का कपोल वाइरस


सेवानिवृत्ति के बाद इधर बहुत से स्थगित काम हाथ में लेने का चलन है । मेरे मित्र मिसिर बाबू के सामने ऐसी ही कुछ स्थिति थी । सो उन्होने अपना लेखकीय उपनाम कपोल रखा और रोजाना आठ-दस कवितायें लिखने लगे । जल्द ही उनकी कविताएँ कोरोना वाइरस की तरह फैली और लोग संक्रमित होने लगे । सेवानिवृत्त कहाँ नहीं हैं, आजकल तो कुछ ज्यादा ही हो गए हैं । जो भी चपेट में आता गया वह भी लिखने लगा । पीड़ितों के घर वाले शिकायत करते कि “प्लीज, कपोल जी को किसी और काम में व्यस्त कीजिए, वरना ......” । लेकिन ज्यों ज्यों दवा की मर्ज बढ़ता गया । कपोल जी को विश्वास हो चला कि उनके शब्दों में गजब की ताकत है । वाइरस हों या बेक्टेरिया या फिर कविता ही हो, देश और दुनिया को हिला सकते हैं । वे कहते कि एक दिन कपोल-काव्य संसार में उथल पुथल मचा देगा । माहौल देख कर उन्होने घोषणा की कि वे जल्द ही खंड काव्य लिखने जा रहे हैं । खबर मिलते ही पड़ौसी चौबे जी ने लोगों को सूचित किया कि उनका ट्रांसफर हो गया है और वे तत्काल शहर छोड़ कर जा रहे हैं । वे चले भी गए । पीछे चर्चा है कि उन्होने रिश्वत दे कर अपना ट्रांसफर किसी सेफ जगह करवाया है ।

कपोल जी की चर्चा और आतंक देख कर तमाम सेवानिवृतियों ने कलम उठा ली । कुटीर उद्योग की तरह कविता-उद्योग घर घर में दनादन शुरू हो गया । कपोल दूसरे ... तीसरे ... चौथे .... पांचवे .... सीना तान कर पल्लवित होने लगे । लेकिन जैसा कि नियम है एक कपोल दूसरे की नहीं सुनता है इसलिए कविता के मार्केट में सुनने वालों का अकाल पड़ गया । सबको अपना अपना नया शिकार ढूँढना पड़ा । कविगण अपने दूधवाले, सब्जी वाले, फेरी वालों को पकड़ पकड़ कर सुनाने लगे । कई घरों में महरी यानी काम वाली बाइयों ने माइग्रेन की तकलीफ के कारण काम छोड़ दिया । बहुएँ अपने मायके फोन करने लगीं कि भैया आ कर ले जाओ हमें कुछ दिनों के लिए, वरना हमारा मरा मुंह देखोगे ।
नगरनिगम की एक बैठक हाल ही में हुई है । सातवें वेतन मान के लिए फिर से मांग उठी है लेकिन बजट नहीं है । किसी ने सुझाव दिया है कि सफाई कर का दायरा बढ़ाया जाए और कविता फैलाने वालों को भी दंडित करने की व्यवस्था हो । पता चला है कि कुछ लोग बहला फुसला कर, चाकलेट-कुल्फी का लालच दे कर कपोल-कृत्य करते हैं । शहर बदनाम हो रहा है , व्यवस्था को इसका संज्ञान लेना चाहिए । कोई रंगे हाथो पकड़ा जाए तो उस पर लोक आस्था के अनुरूप कार्रवाई होना चाहिए । यदि प्रशासन सुस्त रहा तो आशंका है कि मौब-लीचिंग की घटनाएँ होने लगेंगी । हमें याद रखना चाहिए कि कानून अपना काम नहीं करेगा तो प्रगतिशील समाज खुद कानून की भूमिका में आ जाता है । सब जानते हैं कि कानून अंधा होता है लेकिन उसके कान  होते हैं । इसका मतलब यह नहीं कि वो हर समय हर कहीं हर किसी की कविता सुनता रहेगा ।
इधर कपोल कर्मियों को जब पता चला तो उन्होने अपना एक संगठन बनाने का ऐलान कर दिया । जल्द ही वे कविता लिखने और सुनाने को मौलिक अधिकारों में स्पष्ट रूप से शामिल करने के लिए धारना देने की योजना बना रहे हैं । जैसे ही शाहीन बाग वाले जगह खाली करेंगे कपोल कर्मी वहाँ जा कर बैठ जाएंगे ।
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