सोमवार, 25 जुलाई 2022

हिंदी के टट्टू अंग्रेजी पर लट्टू


 

               चाय की दुकान पर हिंदी वाले सर डी.डी. अनोखे टकरा गए . ज्यादा समय वे यहाँ मौजूद मिलते हैं, जिस किसी का मन होता है टकराने का तो आ कर इनसे टकरा सकता है . उनसे टकराने का अपना मजा है . कुछ लोग हैं जिन्हें आदत पड़ गयी है टकराने की . बड़ा घंटा जैसे एक बार ठोक देने से बहुत देर तक गूंजता रहता है वैसे ही सही टक्कर लग जाये तो ये भी देर तक गूंजते रहते हैं . अनोखे आज भी गूंज रहे हैं – “देखिये भई हिंदी अपनी जगह है और बच्चों का भविष्य अपनी जगह . हिंदी की व्यवस्था हमारे आपके लिए है . आम आदमी हमेशा आम आदमी होता है यानि पोल्ट्री प्रोडक्ट,  ब्रायलर पब्लिक . देश में हर दिन पचास हजार से ज्यादा बच्चे पैदा हो रहे हैं . हिंदी के भविष्य से उनका भविष्य जुड़ा  हुआ है . लेकिन ऊँचे लोग, ऊँची पसंद, ऊँचे सपने, ऊँचे काम, ऊँचे मुकाम . जो ऊपर से संस्कृत के हिमायती हैं वो भी अन्दर से अंग्रेजी पर लट्टू हैं . देश में शायद ही कोई नेता मिले जिसके बच्चे हिंदी मीडियम में पढ़ रहे हों . वो देश, वो दुनिया अलग है जहाँ बच्चे सिजेरियन से, अपनी पसंद के मुहूर्त में पैदा होते हैं और माँ के पेट में पहला ‘कट’ अंग्रेजी का लगवा कर बाहर आते हैं . और मजे की बात, इस तरह के बच्चे भी आजकल गोरे पैदा होते हैं. गोरे बच्चे जब अंग्रेजी बोलते हैं तो लगता है दो सौ साल की हुकूमत आंगन में उछलकूद कर रही है . बच्चे हों तो एक्सपोर्ट क्वालिटी के हों वरना क्या फायदा ! फर-फर झर-झर अंग्रेजी उसके बाद सीधे अमेरिका.”

                         ये बात हिंदी के व्याख्याता अनोखे कर रहे हैं जो हिंदी नहीं पढ़ने का छठा वेतनमान ले रहे हैं . उनका संकल्प है कि जिस दिन सातवाँ उनके खाते में आएगा तब पढ़ा देंगे . नाम  उजागर नहीं करने की शर्त पर वे कह देते हैं कि – हिंदी भी कोई पढ़ने की चीज है !! जो भाषा गरीब-गुरबों नंग-धडंग बच्चों तक को आती है उसे क्या पढ़ना और क्यों पढ़ना . पढ़ने पढ़ाने की चीज तो अंग्रेजी है जो अंग्रेजी टीचर को भी ठीक से नहीं आती है .” खुद अनोखे जी ने भी बरसों तक ट्राई किया पर नहीं आई . आखिर विश्वविद्यालय ने हिंदी की डिग्री दे कर इनसे पिंड छुड़ाया . अनोखे भी भागती भाषा की लंगोटी भली यह सोच कर हिंदी से लिपट गए लेकिन अंग्रेजी से प्रेम छुपाए नहीं छुपता है . जैसे गाँव कस्बे वाला अपनी रामप्यारी से फेरे ले तो लेता है लेकिन शहर वाली एनी और लिली को नहीं भूलता है .

                  “आप पढ़ाओगे ही नहीं तो फिर हिंदी मजबूत कैसे होगी सर !” एक ने टोक दिया .

                   अनोखे बोले - “हमारे पढ़ाने से क्या होगा यार ! देश दो भागों में बंटता जा रहा है, अमीर-गरीब, हिन्दू –मुसलमान, राष्ट्रवादी-प्रगतिशील, हिंदी वाले -अंग्रेजी वाले ! जब तक ऊँचे तबके में हिंदी नहीं अपनाई जाएगी तब तक मुश्किल बनी रहेगी . लेकिन हो ये रहा है कि जिन बापों ने अंग्रेजी बोलने पर बच्चों की पीठ ठोकी थी वही बड़े हो कर बाप के हिंदी बोलने पर घूरते हैं ! बहू अपने बच्चों को दादा-दादी के पास इसलिए नहीं छोड़ना चाहती है वे उनकी भाषा बिगाड़ देंगे ! तो हिंदी बेल चलेगी कैसे !?”

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मंगलवार, 19 जुलाई 2022

चल कामरेड ... भजन करेंगे


 


                  जिनके बिना कोई बयान पूरा नहीं होता था, जो हर फैसले का जरुरी हिस्सा रहे आज उनका पता नहीं, मिडिया तक नहीं पूछ रहा है कि मर गए या कि जिन्दा हैं . कभी जो जनता ‘लाल-लाल’ करते थकती नहीं थी वो जय गोविंदा जय गोपाल भज रही है !  लाल को कोई माई का लाल देखता तक नहीं, जिसे भी याद दिलाओ, आँखें लाल करता है ! ऐसे घूरता है जैसे औरंगजेब की याद दिला दी हो ! लाल से गोपाल होने का सफ़र किसी चूक का नतीजा है या फिर नतीजे की चूक है कहा नहीं जा सकता है .

                      रूस चीन जबसे व्यापारी हुए ‘लाल से लाला’ हो गए . देश दुनिया में उन्हें कोई पूछता नहीं, घर में लाल वाली इज्जत रही नहीं . सुबह होती है, शाम होती है ; जिंदगी दाढ़ी खुजाते तमाम हो जाती है . अब लाल को लोरी पसंद है, इधर दूध, दही, आटा, ब्रेड तक पर टेक्स लगा है,  लोग शुक्र मना रहे हैं कि सांसें फ्री हैं . खेंच लो जितनी खेंचते बने . खेंचो-फैंको खेंचो-फैंको, भर लो फेफड़े दबा दबा के, जी लो अपनी जिंदगी इससे पहले कि बोतल बंद हवा जरुरी हो जाये .  वजहें  खुल जाती हैं इसलिए हँसने की इजाजत नहीं है, रोने का मन बहुत करता है पर रुलाई फूटती है तो शरम आती है ! लोग ताना मारते हैं कि कामरेड तुम अगर भगवान की शरण में रहे होते तो ये दिन नहीं देखने पड़ते . दल बदल रहे हैं, दिल बदल रहे हैं, सुबह के भूले शाम तक घर लौट रहे हैं, झुण्ड के झुण्ड इधर से उधर हो रहे हैं लेकिन आपको कोई पूछ नहीं रहा है ! जैसे कि हैं ही नहीं ! जैसे कि कभी थे ही नहीं ! टीवी वाले टिड्डीदल बेआवाज लोगों के मुंह में माइक घुसेड घुसेड कर सरकार पर बुलवा लेते हैं लेकिन इनको जैसे राजनीति का रोहिंगिया मान लिया गया है . अव्वल तो कोई नजर नहीं डालता, कभी पड़ जाये तो मुंह फेर लेते हैं !  देश की राजनीति में जो कभी जवाईं साहब का रुतबा रखते थे अब रामू काका की हैसियत भी नहीं रही ! न देखा जा रहा है, न सहा जा रहा है, न कुछ सूझ रहा है और न ही कुछ करने की गुंजाईश दिख रही है . बच्चे हड़ताल शब्द का मतलब पूछ रहे हैं . इधर लगता है जैसे बेरोजगार अपनी बेरोजगारी को इंज्वाय कर रहा है और गरीब को गरीबी में मजा आ रहा है ! घर जल रहे हैं ! ... रौशनी हो रही है ! कभी डायन कही गयी महंगाई अब उद्योग घरानों की बिटिया और मालिकों की लाडली बहु है . वह घर आँगन में ठुमकती फिरेगी, कोई कुछ नहीं कहेगा .

                   कामरेड गुनगुना रहा है – “रहते थे कभी जिनके दिल में हम कभी जान से भी प्यारों की तरह ; बैठे हैं उन्हीं के कूचे में हम आज गुनाहगारों की तरह .”

                    दिशाएं बोल उठती हैं, दास केपिटल को भूल बन्दे, सुलगते बैनरों को भोंगली बना . भूख, गरीबी, शोषण को भ्रम बताने की कोशिश कर, जिन्दादिली ही जिंदगी है घोषित कर . आगे बढ़ना है तो ले यू टर्न, पीछे मुड़, गर्व कर . इतिहास नया लिख, नयी सड़क चल . जो बीत गया कल, वो गया . आने वाले कल में जगह बना . संविधान से दूरी रख, विधि के विधान पर विश्वास जमा . अब जो करेंगे हुजूर करेंगे, सजन करेंगे ; चल कामरेड, अपन भजन करेंगे .