शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2019

नई सरकार प्याज ज्यादा खाती है



राजनीति जिनकी बोटी-रोटी है उनके लिए एक एक पल काटना कितना मुश्किल होता है ये
चवन्नी कार्यकर्ता भी अच्छी तरह जनता है। हमारा तो फिर भी ठीक है भिया, हाई कमान का सोचो, उनपे क्या बीतती रही होगी। अपनी बेरोजगारी छुपते हुए दूसरों की बेरोजगारी का मुद्दा उठाना कितना मुश्किल काम है। कोई पलट के पूछ लेता कि भिया इधर से ये डालो और उधर वो निकाल लो तो क्या जवाब देते ! कहते हैं बिन गृहणी घर भूत का डेरा। जिसे रोज रात भूतों के बीच बिताना पड़े उस ऊँघते भले आदमी से दिन में कोई क्या उम्मीद कर सकता है। बोलने जाते हैं कुछ और मुंह से निकलता है छुक !! घर में कोई देसी बुजुर्ग होता तो चाल देख कर हाल समझ लेता। लेकिन बालहठ है - मैया मेरी, चन्द्र खिलौना लैहौं !  मईया ने बहुत समझाया कि --चंदा ते अति सुंदर तोहि, नवल दुलहिया ब्यैहौं ॥   इधर कुर्सी कुर्सी ना हुई चन्द्र खिलौना हो गई। यशोदा ने तो थाली में चाँद दिखा कर भोले लल्ला को समझा लिया था । अब टीवी पर कुर्सी देख कर भूला लल्ला और मचलता है।

देखो भिया ऐसा है कि लोग किसी को थाली में रखके सत्ता नहीं देते हैं।  जनता की परख, जनता की समझ और जनता की राय लोकतंत्र में सबसे ऊपर होती है। यही सबसे बड़ा फच्चर है सिस्टम में, वरना इतिहास गवाह है बच्चों तक को तख्त नसीब होते रहे हैं । अपन ठहरे पीवर जनता, वोट डालने का 30 साल का तजुर्बा है अपने पास। नेता की शक्ल देख के ताड़ लें कि लेने आया है या देने। चुनावों में हर पार्टी घूँघट हटा के और घुंघरू बांध के मंच पर आती है। जनता ना कहे तो भी छम छम और दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिए। जिन्हें कभी फूटी आँख नहीं देखा वे तक नूर-ए-चश्म हो जाते हैं। हाथ में वोट दबाए बैठे अद्दा भाई, पिद्दा भाई बिना राज और राजवाड़े के महाराज हैं । एक फीलिंग होती है, ऐसी कि मूंछमुंडे भी अंदर दबी मूछों पर ताव देने लगते हैं। लोकतंत्र में राजे महाराजे भी मात्र एक फीलिंग ही हैं । लाल बत्ती हो जाए तो सिपाही के सामने कार उन्हें भी रोकना पड़ती है । सिपाही नहीं हो तब तो सभी बाश्या हैं ।

खैर छोड़ो उनको अपन बात दूसरी कर रहे थे सरकार की।  तो समझ लीजिए कि सरकारें गन्ने की तरह पेलने लायक होती हैं । इनको एक दो बार से ज्यादा पेल नहीं सकते । मतलब यह कि जितना निचोड़ सकते हैं उतना निचोड़ लिया । उसके बाद बचा क्या फोथरा फोथरा । इसलिए अपुन को नई सरकार होना । नई सरकार हमेशा प्याज ज्यादा खाती है । देख लो आते ही किसानों का लिया फट से दिया कर दिया । पैसा दे कर वोट लेने की होड़ मची है । वो दिन दूर नहीं जब बोलियों से नीलम होंगे वोट । कानून इजाजत नहीं देगा तो कल्याण योजना बनायेंगे, पर बोली लगाएंगे । बस खरीदने वाले की छाती चौड़ी होना चाहिए । दुनिया में हर चीज है बिकती है, सांसद, विधायक, मंत्री-संतरी सब । बोलो जी तुम क्या क्या खरीदोगे ?
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सोते हुए जागता देश !



नए वर्ष में मैंने संकल्प लिया कि सुबह देर तक सोया करूंगा । इसके दो कारण हैं ,पहला तो यह कि मैं गैर राजनीतिक आदमी हूँ सो अपने लिए संकल्प वही करना चाहता हूँ जिसे पूरा कर पाऊँ । सुना है प्रधान मंत्री जी मात्र चार घंटे की नींद लेते हैं और बीस घंटे काम में लगे रहते हैं !! बताइये ! कौन समझदार आदमी इनसे प्रेरणा ले कर मुसीबत मोल लेगा ? सरकारी महकमों तक में अगर छापामारी की जाए तो पता चलेगा कि ज़्यादातर लोग चार घंटे से अधिक काम करना बड़े संघर्ष से प्राप्त हुई भारत की आज़ादी का अपमान समझते हैं । लोकतन्त्र है भई, वोट दिया है खनकता हुआ, क्या कहते हैं मंहगा वाला यानी मूल्यवान । ऐसे में मनमर्जी की नींद लेने का अधिकार तो बनता ही है । सरकारें जब कर्जा माफ कर रही हैं, मुफ्त इलाज करवा रही हैं, खाना-दाना दे रही हैं, बच्चों की पढ़ाई लिखाई और ब्याह शादी तक करवा रही हैं, बैंके जबरिया लोन दे रहीं हैं पकड़ पकड़ के तो रोना किस बात का ! और भला कोई जागे भी तो क्यों !? जनता सोई रहे पालने में तो लोरियों का टोटा है क्या ?  प्रतिस्पर्धा सी लगी हुई है, एक कुंभकरण योजना देता है तो दूसरा महा कुंभकरण योजना का वादा करता है । पाठ्यक्रम में बच्चे पढ़ेंगे आलू से सोना बनाओ । अगर लोग सोएँगे नहीं तो सपने कैसे देखेंगे ? सपनों का ऐसा है कि देखने वालों का भविष्य तय करें न करें पर दिखने वालों का अवश्य तय करते हैं । मैं एक सच्चा नागरिक, हवा का रुख समझता हूँ तो बुरा क्या है अगर देर तक सोते रहने का संकल्प ले लूँ !
दूसरा कारण कबीर हैं, कह गए हैं  सुखिया सब संसार, खाबै और सोवै । दुखिया दास कबीर, जागै और रोवै । आप बताइये, रोने की शर्त पर जागना कौन चाहेगा । जागना जोखिम भरा है, जागने में डर बहुत है, माँ बच्चों को कहती है, सो जा नहीं तो गब्बरसिंग आ जाएगा  और समझदार बच्चा सो जाता है, माँ भी सो जाती है, दोनों को सोता देख मरद बेफिक्री से पड़ौस में कहीं निकाल जाता है । आज़ादी समझो कि मुकम्मल हो जाती है । मरदों की जिम्मेदारिया बड़ी होती हैं इसमें सरकार भी कुछ नहीं कर सकती है । कर्मयोगी केवल कर्म करते हैं और प्रायः फल का संज्ञान नहीं लेते हैं । लेकिन दुनिया का क्या करोगे भाई ! दूसरे के गिरेबान में झाँकने का चलन जो है ।
चचा जल्दी उठ गए, सोचा सुबह की हवाखोरी कर लें । जाते हुये साल ने बताया कि चीन में बीते साल में पचपन लाख बच्चे पैदा हुए । चचा ने सुना तो मुंह में भरा पान मसाला जिसमें महकती बुड्ढा तंबाकू भी थी, फ़चाक  से थूक दी । बोले – इन चीनियों ने तो पूरा मार्केट कवर कर रखा है । पता नहीं बच्चे भी फेक्टरी प्रोडक्ट हैं या इंसानी !! पचपन लाख बच्चे !! शरम नहीं आई कमबख्तों को !! आबादी में नंबर वन हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि दुनिया पर रहम न करने की छूट है इनको । नामाकूल, नामुराद, जाहिल कहीं के । दुनिया कहाँ जा रही है और ये बेशऊर कहाँ जा रहे हैं !!
फटकार सुन जाता हुआ साल सहम गया । धीरे से बोला भारत में भी हुई है बच्चों की आमद । हकबकाए चचा जरा देर के लिए गफला गए, बोले– बको । जाता साल बोला– भारत में बीते साल एक करोड़ पैंतालीस लाख बच्चे पैदा हुए हैं ।
चचा के मुंह में थूकने के लिए कुछ नहीं था । वे समझ नहीं पा रहे थे कि देश सो रहा है या कि जाग रहा है !
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पाण्डुलिपि बढ़िया होना चाहिए !



हिन्दी का प्रकाशन जगत वह जगह है जहां खाद-पानी से पौधे नहीं गमले फलते फूलते हैं । इसलिए पौधों के लिए जरूरी है कि वे अपनी खुराक हवा से प्राप्त करें, यदि वे वाकई पौधे हैं । वरना वे प्लास्टिक हो जाएँ, लगे कि पौधे हैं, लगे कि हरे हैं, लगे कि लदे हैं फूलों से भी, लगे कि सदाबहार हैं । साहित्य अब ड्राइंग रूम में सजाने दिखाने की चीज है । जैसे अक्सर  रायबहादुरों की दीवारों पर टंगी होती हैं बारहसिघों की गरदनें बंदूकों के साथ । लेकिन छोड़िए, अपन चलते हैं प्रकाशक के दफ्तर में ।
“पाण्डुलिपि बहुत अच्छी है आपकी ।“ प्रकाशक ने पन्ने पलटते हुए कहा तो भानु भोले के अंदर लड़खड़ा रहा आत्मविश्वास अचनक सीधा खड़ा हो गया । बोले– जी, मुझे भरोसा था कि आपको पसंद आएगी ।
“टायपिंग अच्छी है, और कागज भी आपने अच्छा इस्तेमाल किया है ।“
“जी, आपका इतना बड़ा प्रकाशन है, इतना नाम है आपका तो कागज बढ़िया लेना ही था । आप देखिये हर पन्ने पर गोल्डन बार्डर भी प्रिंट करवाया है मैंने । ऐसी पाण्डुलिपि पहले कभी नहीं आई होगी आपके पास । “ भोले के आत्मविश्वास ने सिर उठाया ।
“बार्डर तो बढ़िया है लेकिन ..... मैटर हल्का है । “
“मैटर !! आपका मतलब कविताओं से है क्या ?!”
“अभी कवितायें कहाँ ..... सब मैटर है । पाण्डुलिपि भर शब्द । मुश्किल है हमारे लिए । किसी और को दिखा लीजिये । “
“अरे सर ऐसा क्या !! किताबें तो आपके प्रकाशन के नाम से बिकती हैं । लोग मान कर चलते हैं कि आपने छापी हैं तो अच्छी ही होंगी । जहाँ दूसरी बीस किताबें सप्लाय करते हैं उन्हीं के बीच एक यह भी निकाल जाएगी । फिर लागत तो मैं आपको दे ही रहा हूँ, चालीस हजार । अगर मैटर की दिक्कत आ रही हो तो पाँच और बढ़ा लीजिये पर छपना तो आपको ही पड़ेगी । “ भानु भोले व्यावहारिक भाला फ़ैका ।
“ठीक है, पाँच और ले लूँगा । लेकिन मैटर की दिक्कत बड़ी है । लेन-देन हमारा आपस का मामला है लेकिन पाठक के पास तो किताब जाती है । “
“पाठक हैं कहाँ अब, आप ही कहते हैं कि किताबें बिकती ही नहीं हैं । मुफ्त दे दो तो सजावट के काम आती हैं । कवर बढ़िया होना चाहिए बस । “
“ऐसा नहीं होता है भानु भोले जी । थोक खरीदी में जाती हैं किताबें । अधिकारी एक दूसरे की टांग भी खींचते हैं । मैटर ठीक नहीं हो तो कभी कभी पूरा लाट चेक हो जाता है । और बड़ी दिक्कत आपके लिए भी है । अक्सर लेखकों का मूल्यांकन उनके मरने के बाद होता है । शोकसभा में किसी ने कह दिया कि किताबें तो सात हैं लेकिन लेखन कूड़ा है तो सोचिए क्या होगा । फोटो पर चढ़ी मालाएँ फट्ट से सूख नहीं जाएंगी !?
“ !!! ... आप कुछ तो कीजिये ना । “   
“ कवितायें बनवाना पड़ेंगी । कुछ लोग बनाते है, यू नो राजधानी में सब काम होता है । चार्ज लगेगा लेकिन मैटर ठीक हो जाएगा । “
“तो क्या उसका नाम भी जाएगा किताब पर !?”
“उसका नाम क्यों जाएगा !? जिल्द बनाने वाले का जाता हैं क्या ? दूसरे किसी लेबर का जाता है क्या ? आप निश्चिंत रहिए । नाम सिर्फ आपका जाएगा, पैसा तो आप दे रहे हैं । “
“फिर ठीक है । “
“कैश लाये है ना , जमा करवा दीजिये । और लोकार्पण की तैयारी कीजिये, महीने भर में किताब मिल जाएगी । ... पाण्डुलिपि चाहें तो ले जाइए, अच्छी बनी है ।“
भानु भोले ने पाण्डुलिपि रख ली, सोचा अगली किताब बनवाने के काम आएगी ।
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