मंगलवार, 20 दिसंबर 2022

जन्मकुंडली में पुरस्कार-योग


 

घर अस्त व्यस्त है, अलमारियां उथल पुथल । ना.दा.पंचमुखे यानी नारायण दामोदर पंचमुखे को अपनी जन्मपत्री नहीं मिल रही है । सुबह से परेशान हैं , आखिर कहाँ रख दी ! शादी पर इसकी जरुरत पड़ी थी अब नहीं मिल रही है, हालाँकि बाद में भी बार बार देखना पड़ता ही रहा है कि ग्रह अनुकूल हैं या नहीं ! सुबह तक अनुकूल थे तो शाम को कौन कुत्ता भौंक गया ! भौंक का जमाना है भाई । कुत्ते गली के हों या राजधानी के, खानदानी हों या लावारिस, भौंक कर अपना काम बना ले जाते हैं । पैमाने बदल गए, जिनकी भौंक दमदार होती है वही सफल माने जाते हैं । अब विदेशों में, और अपने देश में भी, कुत्ते को फैमिली मेंबर का दर्जा मिलने लगा है । अभी वे मनुष्यों की फेमिली में शामिल हैं, जैसे जैसे विकास होगा मनुष्य उनकी फेमिली में शामिल हो जायेंगे । कुत्तों के पंजों में कोई रेखा नहीं होती है लेकिन भाग्य में होती है । पिछले दिनों एक विदेशी महिला ने अपने कुत्ते से ईर्ष्या रखने वाले पति से तलाक ले लिया ।क्यों न ले, आखिर कुत्ते के पास वफ़ा और दुम होती है । कुत्ते और पति में इन दिनों खासी प्रतिस्पर्धा चल रही है । दो घर छोड़ कर अग्रवाल साहब रहते हैं । उन्होंने अपने लेब्राडोर की जन्मपत्री बनवा रखी है । पिछली बार बता रहे थे कि पंडितजी का कहना है कि इस कुत्ते के भाग्य में राजयोग है, यह एक दिन दुनिया पर राज करेगा । उन्हें भरोसा है कि ऐसा समय आयेगा जब चौपाये भी चुनाव लड़ सकेंगे और देश की जनता उन्हें भी बिना ज्यादा सोच-विचार, मीनमेख निकाले चुन लेगी ।

खैर, ना.दा.पंचमुखे जी जन्मपत्री की महाखोज में लगे हैं और पूरे घर को अपने चिकने सर पर उठा रखा है । आखिर गृहमंत्री को हस्तक्षेप करना पड़ा । बोलीं – “क्या इतने बूढ़े हो गए हो कि जन्म तारीख भी याद नहीं आ रही है !? इसके लिए भी जन्मपत्री चाहिए !’’

ना.दा.पंचमुखे हताश बैठ गए । जब भी गृहमंत्री एक्शन में आती हैं उन्हें हताश बैठने की आदत है । “मुझसे पूछ लेते, मैं बता देती । तुम्हारे राहू-केतु, शनि-शुक्र सब जानती हूँ अच्छे से ।‘’ कहते हुए उन्होंने इस बार कमर पर हाथ भी रख लिया और अपने कान्फिडेंस को व्यक्त किया ।

“अरे मैडम, जन्मपत्री इसलिए चाहिए कि सनातन साहित्य समिति ने पुरस्कार और सम्मान के लिए आवेदन मंगवाए हैं । आखरी तारीख के पहले पहुँचाना जरुरी है ।“

“साहित्यिक पुरस्कार है तो किताब भेजिए ना ! कुंडली क्यों खोज रहे हैं !?” वे बोलीं । 

“पुरस्कार समिति ने इस बार किताब नहीं कुंडली मंगवाई है । जिनके ग्रह अनुकूल होंगे उन्हें दे देंगे, नहीं तो छुट्टी । “

“ कुंडली कम्पेटीशन होगी क्या ! ग्रह अनुकूल होंगे का क्या मतलब !!?

“मतलब गुरु बलवान हो, बुध के साथ युति हो, साढ़ेसाती नहीं चल रही हो, धन-मान प्राप्ति के योग हों, वगैरह वगैरह, तो देंगे ।“ ना.दा.पंचमुखे ने केलेंडर में चौघडिया देखते हुए बताया ।

“कवियों की कुंडली में योग नहीं वियोग होता है । ध्यान नहीं दिया तुमने, ‘वियोगी होगा पहला कवि, आह से निकला होगा गान’ ।

“सारे कवि वियोगी नहीं होते हैं कुछ योगी भी होते हैं । अच्छा समय आ गया है, अब कुंडली दिखा कर सम्मान प्राप्त किया जा सकता है । साहित्य सेवा के लिए और क्या चाहिए, हमें तो खुश होना चाहिए । लेकिन जन्मपत्री नहीं मिल रही है ! पता नहीं कहाँ रखा गयी !”

“नयी बनवा लो । तारीख तो याद है ही ।“

“अरे !! ये आइडिया मुझे क्यों नहीं आया !” ना.दा.पंचमुखे दौड़े अपनी नयी कुंडली बनवाने ।  पीछे से आवाज आई “थोड़ा आगे पीछे करवा के गुरु-बुध की स्थिति बदल देना और कुंडली पुरस्कार वाली बनवा लेना ।”

ना.दा.पंचमुखे सोच रहे हैं कि ये आइडिया भी मुझे क्यों नहीं आया !

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शुक्रवार, 25 नवंबर 2022

लोकतंत्र में चीयर-गर्ल्स



देखो भिया आप लोग हो सीधे साधे, निष्पाप, निष्कलंक, शुद्ध साफ गऊ पब्लिक । जिसने जरा पुचकारा, पीठ पर हाथ फेरा कि उसी को दूध, गोबर, मूत्र ही नहीं खाल, मांस, अस्थि-मज्जा तक दे देते हो । यही कारण है कि गाय को माता और आप लोगों को जनार्दन का दर्जा मिला हुआ है । समय समय पर दोनों पूज्य हैं । नयी पीढ़ी रटती है कि ‘मवरा टाइम आएगा’ । लेकिन टाइम यानी समय का कुछ भी फिक्स नहीं है, नहीं आए तो नहीं आए, आना हो तो बिना कहे कभी भी आ सकता है । अच्छी बात है कि अपने यहाँ लोकतंत्र है, समय पांच साल में एक बार जरूर आता है । कहते हैं भक्तों में अगर शक्ति हो तो भगवान उनके सेवक तक हो जाते हैं । आप जनार्दन हो, समझो मौके पड़ जाये तो भगवान ही हो । फूल नहीं फूल की पंखुरी भी मिल जाये प्रेम से तो आप प्रसन्न हो जाते हो और तथास्तु कह देते हो । आपकी इसी खासियत के कारण तमाम दुनिया वाले दुआ करते हैं कि काश हमारे यहाँ भी ऐसी जनता जनार्दन हो जाये ।

यह भी सब जानते हैं कि कोई सच्चे मन से माफ़ी मांग ले तो प्रभु माफ़ भी कर देते हैं । आपमें भी यही माफ़ी वाली आदत है, जो हमारे वाले लोकतंत्र के लिए अच्छी है । आपके भरोसे अनपढ़, गुंडे-बदमाश, रेपची, घोटलची सब चौड़ी छाती किये जनसेवक हो जाते हैं । लोकतंत्र की यह खूबसूरती है कि आप मालिकों को सेवक समझते रहते रह सकते हैं । एक सफल मालिक वही होता है जो इस गलतफहमी को लम्बे समय तक बनाये रखता है । कुछ लोग इसे कला कहते हैं और कुछ राजनीति । कला हमारे यहाँ कई तरह की होती है । लोग जेब काटने को भी कला मानते हैं और झूठ बोलने को भी । जानकर मालिकों को सबसे बड़ा कलाकार कहते हैं । सदी के महानायक की कुर्सी अब खतरे में पड़ती जा रही है ।

संत कहते हैं जीवन दो तरह का होता है । एक वह जो आप शरीर से जिया जाता है और दूसरा वह जो व्यवस्था आपको जीने पर मजबूर करती है । पहले जीवन के लिए हम कमाते हैं, दूसरे जीवन के लिए गवांते  हैं । कमाने और गवांने के बीच जो बच जाता है उसे भाग्य कहते हैं । सब मानते हैं कि भाग्य भगवान भरोसे होता है । इसलिए अच्छी व्यवस्था वही होती है जो भगवान को सेट रखे और पूजास्थलों के निर्माण को प्राथमिकता दे । लोग आत्मनिर्भर बनें, पूजापाठ करते रहें और डायरेक्ट ऊपर वाले भगवान से मांगते रहें । उन्हें मिल जाये तो उनका भाग्य नहीं मिले तो कोई क्या कर सकता है ! यह विश्वास बना रहे बस,  नीचे वाले भगवान को और क्या चाहिए । जीवन-मरण, लाभ-हानि, जस-अपजस सब ईश्वर के हाथ होता है । इतना अगर समझा दिया जाये तो अस्पताल, उद्योग, स्कूल वगैरह बेकार चीजें हो जाती हैं । सारा खेल समझ का है ।  जो लोग समझते थे कि महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी वगैरह रहीं तो जीना मुश्किल हो जायेगा वही लोग अगर इनके साथ ख़ुशी खशी जीने को तैयार हैं तो समझिये खेल बढ़िया और खिलाड़ी भी जोरदार । लेकिन हम पब्लिक हैं, चीयर-गर्ल नहीं हैं ।  

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मंगलवार, 8 नवंबर 2022

ईमानदारी से खतरा


 



           जैसे जैसे मानव सभ्यता का विकास हुआ उसने नयी नयी बीमारियाँ खोज लीं । कोशिश करके बहुत सी बिमारियों का इलाज भी ढूंढ लिया । लेकिन केंसर और ईमानदारी ऐसे रोग हैं जिनका ठीक ठीक इलाज आज तक नहीं मिल पाया है । जानकर बताते हैं कि इन दोनों बिमारियों के चलते अनेक परिवार बर्बाद हुए हैं । जो लोग विकास की मुख्यधारा से चिपके हुए हैं वे ही जानते हैं कि ईमानदारी से सिस्टम को कितना जानलेवा खतरा है । अच्छी बात यह है कि दोनों बीमारियाँ छूत की नहीं हैं । थैंक गॉड ! वरना अब तक पूरा देश ईमानदारी की चपेट में आ गया होता ।

            केंसर के बारे में हर कोई जनता है और दूसरों को सुझाने के लिए सबके पास रामबाण नुस्खे भी हैं, लोग कहते हैं कि नुस्खेबाजी भी एक बीमारी है । लेकिन ईमानदारी के बारे में ज्ञान बहुत अल्प है । वाट्सएप विश्वविध्यालय में भी ईमानदारी को लेकर चर्चा नहीं होती है ।  लोकतंत्र में जनमत महत्वपूर्ण हैं । जनता कभी ईमानदार आदमी को वोट नहीं देती । अकसर उसकी जमानत जब्त होती है । व्यावहारिक जीवन में ईमानदारी के रोगी से लोग अक्सर दूरी बना कर रखते हैं । वह एक गैर-जिम्मेदार, गैर-दुनियादर, भीरू और कायर आदमी मान लिया जाता है । वह हर समय ईश्वर से डरता है । यह भी मानता है कि ईश्वर सब देख रहा है, लेकिन यह भी विश्वास करता है कि जो भी होता है सब ईश्वर की मर्जी से होता है । जब वह मर कर ऊपर ईश्वर के सामने जायेगा तो सबसे पहले यही देखा जायेगा कि आदमी ईमानदार था या नहीं । बस इसी डर के कारण वह ईमानदारी के साथ ‘बिन फेरे हम तेरे’ हो लेता है । शिष्टाचार की बात करें तो ईमानदारी का रोगी किसी की चाय भी पीना पसंद नहीं करता चाहे दिसंबर जनवरी की कड़कड़ाती ठण्ड ही क्यों नहीं पड़ रही हो । भूल से कभी उसके सामने गाँधी छपे नोट आ जाये तो वह उन्हें भी रद्दी कागज के टुकडे मानता है । सर्दियों के दिनों में जब ज्यादातर दफ्तरी मुट्ठी या जेबें गरम कर रहे होते हैं वह ईमानदारी और धूप के भरोसे दिन काटता है । ऐसे आदमी का प्रमोशन नहीं होता है । सिस्टम मानता है कि यह ऊपर आया तो सबको जबरन संक्रमित करेगा । सिस्टम को ऐसे आदमी पसंद हैं जिनके दर्जन भर मुंह हों, एक से वह कहे कि न खाऊंगा न खाने दूंगा और बाकि से खाता रहे । जैसे ही मौका मिलता है कार्यालय इस संक्रमित को लूप लाईन में डालने के लिए जी जान लगा देता है । अब यहाँ उसे लम्बे समय तक कोरनटाइन रहना है । बीच बीच में साथी आते रहते हैं और तसल्ली देते हुए उसकी हिम्मत बढाते रहते हैं । कई बार सही डोज मिलने पर मरीज रोग मुक्त भी हो जाया करते हैं ।

           एक श्यामराव लोखंडे थे, वे लम्बे समय तक बीमार रहे । दरअसल ईमानदारी की बीमारी उनके लिए पैत्रक थी । लोग बताते है उनके पिता क्रोनिक ईमानदार थे । लेकिन भाग्य से उन्हें अच्छे और कर्मठ दफ्तरी मिले । धीरे धीरे उनमें इतना सुधार हुआ कि वे दफ्तर में चांदीकर के नाम से जाने गए और जब सेवानिवृत हुए तो श्यामराव सोनार थे । दफ्तर में आज भी उनकी मिसाल दी जाती है । आदमी दृढ़ निश्चय और हौसले से संघर्ष करे तो बीमारी कितनी भी जटिल क्यों न हो उससे मुक्त हो सकता है ।

 

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सोमवार, 31 अक्तूबर 2022

जो सहमत हैं ... सुखी हैं !


 




कहते है कि लोकतंत्र में बोलने की आजादी होती है । यों तो सब बोलते ही हैं लेकिन आजादी के साथ बोलना आँख में किरकिरी की तरह चुभता है । जिसको बोलना है बोले, खूब बोले, कोई दिक्कत नहीं है । लेकिन आजादी के साथ बोलने वाला कमबख्त सोचता भी है । सोचने से विचार बनता है और विचार से असहमति पैदा होती है । असहमत आदमी खुद तो तनाव में रहता ही है दूसरों को भी तनाव देता हैं । विचार एक संक्रामक रोग है यानी छूत की बीमारी । कविता, कहानी और यहाँ तक कि कार्टून से भी विचार पैदा हो जाते और समाज में फैलते भी हैं । लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि कलम और किताबें उनके तनाव का मुख्य कारण है । अगर हम एक मजबूत और स्वस्थ समाज चाहते हैं तो लोगों को किताब कलम से दूर रहने और हर बात के लिए सहमत रहने के संस्कार देने होंगे । प्रश्न पूछने वालों को, शंका रखने वालों को, सवाल करने वालों को इतना जलील किया जाना चाहिए कि वे दोबारा हिम्मत नहीं करे कुछ भी पूछने की । नशे से घर परिवार बर्बाद होता है लेकिन विचार क्या क्या बर्बाद कर सकता है इसकी कोई सीमा नहीं है  । समाज को नशामुक्ति केन्द्रों से ज्यादा विचारमुक्ति केन्द्रों की जरुरत है । हमारे संत महात्मा और बाबा लोग बहुत अच्छा काम कर रहे हैं । उनके भजन, प्रवचन, सीख-शिक्षा लोगों को विचार प्रवृत्ति से दूर रखने में सार्थक योगदान करते हैं । सत्संग में व्यक्ति सहमत होना और सहमत बने रहना सीखता है । वह समझ लेता है कि ‘जब आवै संतोष धन, सब धन धूर सामान’ । यहाँ संतोषी सदा सुखी का मतलब सहमत सदा सुखी ही है । सहमति की आवाज बड़ी शीतल होती है । कबीर ने भी कहा है ‘ऐसी बानी बोलिए, मन का आप खोए ; औरन को सीतल करे आपहु सीतल होए’ । यहाँ इन पंक्तियों का आशय यह है कि आप मन की गहराइयों से सहमति के बोल बोलिए, उससे दूसरे सुखी होंगे और आप भी सुखी रहेंगे ।

हम विश्वगुरु ऐसे नहीं हैं । कहते हैं अमेरिका का आदमी पच्चीस वर्ष में जीतनी फिलासफी सीखता है उतना फिलासफ़र तो हमारे देश का सात साल का बच्चा होता है । स्कूली गुरुजनों को देखिये, वे बच्चों को सवाल पूछना नहीं सहमत होना सिखाते हैं । किसी ज़माने में जो राजाराम हुआ करते थे बाद में राजीराम होकर मजे करते हैं । सरकार चाहे घर की हो या बाहर की, सुखी वही है जो राजी रहता है । वक्त बदल रहा है, जो बात बात पर असहमत हो जाया करते हैं उन्हें अब मार्गदर्शन के लिए भी कोई नहीं पूछ रहा है । जो अपनी तमाम असहमतियों को भोंगली बना कर टांड रखता है वह हर बात में आसानी से राजी हो लेता है । दरअसल राजी रहना एक साधना का विषय है । योग है जो अभ्यास से सिखा जा सकता है । डाक्टरों का कहना है कि आज के समय में तनाव सबसे बड़ी समस्या है । इससे दिक्कत यह है कि लोग अवसाद और हार्ट अटैक जैसी दूसरी बिमारियों की चपेट में आ जाते हैं । तनाव दूसरी बिमारियों के लिए रेड कारपेट है । जो राजी होता है वो गाजी (ताकतवर) होता है । उसे कोई दिक्कत नहीं होती है । तो सहमत बनें, कलम, किताब और विचार से दूर रहें, समाज का विकास करें ।

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शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2022

जूते के बहाने जूता


 


दिवाली की सफाई में जूते निकल आए । जब पसंद किए थे तो देखा कंपनी अच्छी है, डब्बे पर छ्पा घोषणा पत्र भी जोरदार था । लिखा था सोल मजबूत है । इतना कि सारे अवांछितों को कुचल देगा जो आपके पैरों को कुचल देने का इरादा रखते हैं । मेरे जैसा आम आदमी जूते में क्या देखता है ? यही कि सोल बढ़िया होना चाहिए । सोल पर ही जूता टिका  होता है और जूतों पर पैर । सोल जितना पहनने वाले के लिए महत्व का है उतना ही जूते के लिए भी । सुरक्षा की दरकार न हो तो जूतों की जरूरत क्या है ।

कालीन पर तो वैसे भी चरण कमल होते हैं । तकनीकी रूप से देख जाए तो जूता हो या न भी हो तो कोई फर्क नहीं पड़ता । जूता उनके लिए केवल शोभा की वस्तु है । सोल भले ही कमजोर हों पर मुलायम होना चाहिए । ताकि उसमें जब चरण डालें तो लगे कि जूते चरणों को चूम रहे हैं । चरणों और कालीन के बीच जूतों की वही भूमिका होती है जो कमीज और कोट के बीच टाई की होती है । उपयोगी नहीं है पर फिर भी जरूरी है । शोध करने वाले इस बात पर ध्यान दे सकते हैं कि जो जूता आम आदमी को काटता है वो अमीरों के सामने चरणदास कैसे हो जाता है ! चरणों की महिमा और जूतों की बेशरमी पर अब देश गौर करना चाहता है ।

खैर, मुझे इससे क्या, और सच पूछो तो आपको भी इससे क्या ? आप हम ठहरे आमजन यानी लोकतंत्र की जान ।  ज्यादा सोचने की न हमारी आदत है और न हमें कोई  जहमत उठाने देता है । बस हवा का एक झोंका आ जाए, कोई लहर सी उठे या मतदान के पहले वाली रात जरा मुंह दिखाई हो जाए तो हम भी तेरे, दिल भी तेरा । जूतों की तरफ देखने की न जरूरत है और न ही फुर्सत । दिल बड़ा हो तो तंग जूतों में भी पाँव डालने में कोई गुरेज नहीं है । बाद में अगर जूतों ने दो चार जगह काट भी लिया तो भी कोई उसे फैंकता थोड़ी है । फिर इस बात की क्या गैरंटी कि दूसरा नया नवैला, जो उपर से नरम नरम सा दिख रहा है चार दिन चल पाएगा । जिसके सोल ही मजबूत दिखाई नहीं दे रहे हैं उसकी मुलायमियत और खूबसूरती किस काम की ! अगर जंगल में रह रहे हो, रास्ते ऊबड़ खाबड़ हों तो सोल मजबूत होना जरूरी हैं ।

“दो साल से टांड़ पर पड़े हैं, अब क्या करोगे इनका !?” श्रीमती जी ने जूतों को  फटकारते शब्दों के साथ मेरे सामने पटका ।

“पहनना तो है नहीं ... तुम कहो तो अटाले वाले को दे दूँ ?  दिवाली कुछ बेकार चीजों से मुक्ति का भी त्योहार है । लेकिन जैसा कि आप जानते ही हैं कि डरा हुआ कर्मचारी अपने अधिकारी से पूछ कर, स्वीकृति मिलने के बाद ही किसी चीज को अटाले में दे पाता है ।  सो पूछ लिया ।

“क्यों !?, मुफ्त में मिले थे क्या ? ... अपनी पसंद से देखभाल के लिया था ना ! ... यही पहनों ।“

“नए थे तब ठीक लग रहे थे, अब ये जूते काटते हैं डीयर । तंग इतने हो गए हैं कि पाँव डालने की हिम्मत नहीं हो रही है ।“

“जूता शुरू शुरू में तो काटता ही है । लगातार पहनोगे तो जहां काट रहा है वहाँ की चमड़ी मोटी  हो जाएगी ।  राष्ट्रवादी बनो, ज्यादा ध्यान मत दो, एक बार फंसा लो, पैर जल्दी सेट हो जाएंगे ।“

“समझो ना,  हिम्मत नहीं हो रही और मन भी नहीं हो रहा है ।“

“हिम्मत करना पड़ती है, मन को मारना पड़ता है । विश्वास और भरोसा बड़ी चीज है । हम औरतों से सीखो । जिस सैंडल में पैर डाल दिया उसी की हो कर रह जाती हैं । काटती हों, चुभती हों, फिर भी फैंकती नहीं हैं । करवा चौथ ऊपर से ! “

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गुरुवार, 20 अक्तूबर 2022

सामने वाले की (हवा) बिगाड़ो


 

राजनीति एक सामूहिक हवाबाजी है । जमाना इन्टरनेट का है, जब किसी की हवा चल नहीं रही हो तब सब लोग मिल कर गाने लगें कि चली चली हवा चली .... पार्टी की हवा चलीतो हवा जो है चलने लगती है । हवा को पता है कि चलने से ही वह हवा है । जिस तरह चलती का नाम गाड़ी होता है उसी तरह चलती का नाम हवा भी होता है । चाल और चलन की जितनी अनिवार्यता मनुष्य के जीवन में है उससे ज्यादा हवा के अस्तित्व में हैं । राजनीति में हवा का बड़ा महत्व है, अपनी चल जाए और सामने वाले की बंद हो जाए तो समझो गढ़ जीत लिया । हर चुनाव के समय हवा बनानेकी कोशिश की जाती है । जी, आपने ठीक समझा, हवा बनाई भी जाती है, कक्षा पांच के बच्चे से पूछोगे तो वह बता देगा कि एनटूओटू  से बनती है । राजनीति की हवा जरा अलग होती है । इसको बनाने का कोई आसान फार्मूला नहीं है कि आपको बता दें चट्ट से । आपने देखा ही होगा कि चुनाव के समय लोगों को खूब उल्लू बनाया जाता है । उल्लू बनने के बाद भी लोग देखने में तो आदमीही लगते हैं, उल्लू जैसा तो कोई दिखता नहीं । उसी तरह हवा बनाई जाती है, टाइट की जाती है, बंद होती है, निकल भी जाती है, निकाली जाती है पर किसी को दिखती नहीं है ।

श्वानों और नये नये गुण्डे भाइयों की हवा अपनी गली में ही चलती है, इसके प्रभाव में श्वान अपने को शेर और आदरणीय गुण्डे स्वयं को युवा हृदय-सम्राटतक समझने लगते हैं...... जो कि सही है । जी हां, नोट कर लीजिए कि, सही है, आखिर हमें भी अपने मोहल्ले में रहना है । हालांकि वे कहीं से भी शेर तो क्या शेर के साढूभाई भी नहीं लगते हैं, लेकिन कोई अपने को समझे तो क्या किया जा सकता है ।

लेकिन हवा भले ही गली में चले या वार्ड में, एक बार चल जाए तो समझ लो हवा-हवाई है । कुछ दिनों हवा बनी रहे तो कहा जाता है कि आदमी उड़ने लगा हैं । यों तो वह जमीन पर ही रहता है पर जानकारों की नजर में वो उड़ता है । आपने गर्म हवा के गुब्बारे देखे होंगे, जैसे जैसे गर्म हवा उसमें भरती है वो ऊँचा उड़ता जाता है । संतों का कहना है कि अभिमान की हवा गर्म होती है । वे ये भी कहते हैं कि वक्त की हवा नहीं आंधी चलती है । लोकतंत्र हवा से जिंदा रहता है और आंधियों से उजड़ता है ।

पार्टी ने ठूंस ठूंस के खाया है अपने राज में, लिहाजा हवा इधर भी बन रही है । लगातार खट्टी डकारें भी आ रही हैं । मुंह दबाओ तो पेट फूलता है, और पेट को राहत दो तो लोगों का सांस लेना दूभर होने लगता है । वोट की बात करो तो लोग नाक दबाते हैं । इस बार संस्कृति की हींग भी असर करेगी इसमें संदेह है । याद नहीं रहा था कि चुनाव के समय जनता के बीच जाना होगा । पुराने लोग पुराने चावल थे, दारू-कंबल से हवा बना लेते थे । गरीबी कम नहीं होने दी ताकि हवा सस्ते में बने, पर लोग अब ज्यादा स्याने हो गए हैं । लेपटाप, टीवी या फ्रीज तक मांगने लगे हैं । पार्टी के थिंकटैंक कहे जाने वाले फुसफुसा रहे हैं कि अपनी हवा नहीं बन पा रही है तो सामने वाले की बिगाड़ो यार । एक ही बात है ।

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आत्मनिर्भर मनोहर खोटे !

 



जब से देश में आत्मनिर्भरता की मुहीम चली है अपने मनोहर खोटे प्रेम के मामले में चुपके से आत्मनिर्भर हो लिए हैं । पत्नी शांता खोटे को अभी इस बात की भनक नहीं लगी है । बहुत से मामलों में वह भी आत्मनिर्भर हैं लेकिन साठवें जन्मदिन के बाद अब वे मंगलवार, गुरुवार और शनिवार को किसी पर हाथ नहीं उठाती हैं । इन तीन दिनों में ‘कंडीशन अप्लाय’ की घोषणा के साथ मनोहर खोटे मन की बात कर डालते हैं । बाकि दिनों में अपनी आत्मा को जबतब ‘सीपीआर’ देते रहते हैं । सरकार के साथ घर वालों ने भी मान लिया है कि मनोहर खोटे अब किसी काम के नहीं हैं । दफ्तर ने घर बैठा दिया है और घर वालों ने कोने में मोल्डेड तख़्त-ए-ताउस पर । जब जब उन्होंने प्रेम के दो बोल बोलना चाहे शांता खोटे ने कपड़ों का ढेर दिखा कर प्रेस करने बैठा दिया । मुक्ति उन्हें तब ही मिली जब दो तीन कपड़े उन्होंने बाकायदा जला दिए । हालाँकि शांता खोटे ने पहले खरीखोटी सुनाई और बाद में गरम प्रेस ले कर लपकी भी लेकिन जाको राखे साईयाँ मार सके न कोय । ऐन वक्त पर उनकी भाभी का विडिओ काल आ गया । सो ज्यादा कुछ नहीं हुआ, सिवा शाम की चाय बंद होने के । और शुक्र रहा कि बोलीं भी नहीं महिना भर तक ।

इधर उपेक्षित मनोहर खोटे को खाली बैठे कुछ पुरानी यादें आती रहीं और जाती भी रहीं । यादों का ऐसा ही है, जब आती हैं तो रोक नहीं सकते और जाती हैं तो पकड़ नहीं सकते । बरसों से डायरी में एक फूल रखा था गुलाब का । फूल क्या था जी ... यादों का सेटटॉप बॉक्स था । तमाम चैनल पकड़ता था रंगबिरंगे और बिना सेंसर ‘रंगीन’ । दुर्भाग्य से फूल एक दिन शांता खोटे के हाथ लग गया । वे समझ गयीं और उन्होंने फूल को चाय के साथ उबाल कर खड़े खड़े पी डाला । मनोहर खोटे उस दिन के बाद ऐसे इडीयट बॉक्स हो गए जिसमें ब्लेक एंड व्हाइट भी बंद हो गया । बहुत समय अकेले काट लेने के बाद अब मनोहर खोटे के पास कोई रास्ता नहीं बचा सिवाय आत्मनिर्भर हो लेने के । किसी ज़माने में गुरूजी ने कहा था कि आदमी को बड़े सपने देखना चाहिए । छोटे सपने देखना अपराध है । इसलिए मनोहर खोटे ने सोच लिया कि जब सपना ही देखना है तो सीधे महानायक को ही कॉम्पिटीशन में रखा जाए । अप्सरा किसी एक की नहीं होती है । वो बस होती है । बिना आधार कार्ड दिखाए कोई भी उससे प्रेम कर सकता है । कानून वानून का भी कोई झंझट नहीं । इसमें अच्छी बात यह है कि आपका प्रेम आपको ही पता होता है । बस बैठे रहिये और प्रेम का मजा लेते रहिये । सबसे अच्छी बात तो यह है कि इसमें जवानी का होना भी जरुरी नहीं है । और तो और अप्सरा का भी सामने होना जरुरी नहीं है । पत्र पत्रिकाओं में छपे उसके फोटो ही काफी होते हैं । प्रेम दिल से किया जाता है । कोई कह गया है ना “दिल के आईने में तस्वीर यार की ; जरा गरदन झुकाई और दीदार कर लिया” । यह एक साधना है, करता रहे आदमी तो सिद्धि प्राप्त हो जाती है । शांता खोटे को पता नहीं है कि मनोहर खोटे एक सिद्ध पुरुष है ।

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मंगलवार, 11 अक्तूबर 2022

जब पत्थर मुस्कराए


 



सुबह सुबह डीएसपी साहब गार्डन में टहल रहे थे कि गिर गए । वैसे देखा जाये तो पहली बार नहीं गिरे थे, जब भी मौका मिला वे गिर लेते थे । सरकारी नौकरी का ऐसा है कि यहाँ बाकायदा गिरने का रिवाज है । कोई न भी गिरना चाहे तो गिराने वाले नहीं मानते हैं । जो जितना गिरता है उतना उठता है । पहले छः महीने में आदमी गिरे नहीं तो महकमे में खुसुर पुसुर शुरू हो जाती है । लोग शक की निगाह से देखने लगते हैं । उन्हें लगता है हमारे बीच कोई हरिराम नाई तो नहीं आ गया है ! वैसे महकमा बड़ा कोआपरेटिव है । डीएसपी साहब जब  नए नए आये थे और गिरने के मामले में बड़े संकोची थे तब उनकी नथ उतारने की रस्म की गयी थी । बाकायदा यानी पूरे विधिविधान, सफाई और सावधानी के साथ उन्हें पहली बार गिराया गया । इसके बाद वो कहते हैं ना ‘उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा’ । बाद में तो ‘प्रेक्टिस’ इतनी चली कि वे दफ्तर बाद में पहुँचते, गिर पहले लेते । इतना सब आपको इसलिए बताना पड़ रहा है कि आप जान लें कि गिरना कितना रेस्पेक्टफुल है महकमें में ।

अब वे सेवानिवृत्त हो चुके हैं । बिना गिरे एक एक दिन काटना उनके लिए बड़ा मुश्किल होता है । वो तो शुक्र है आज टहलते हुए ठोकर खा गए और औंधे मुंह गिर लिए । पीछे मोहन पिपलपुरे चले आ रहे थे । उन्होंने दौड़ कर मदद के लिए हाथ बढ़ा दिया । गिरने के बाद पहली बार खाली हाथ देख कर डीएसपी साहब को झटका लगा । जो आदमी गिरने के बाद हमेशा खुश होता था आज इतना दुखी हुआ कि जमीन फट जाती तो उसमें समा जाना पसंद करता ।

खैर, गिरने पड़ने के बीच यह यह बताना रह गया कि अपने डीएसपी साब वो डीएसपी नहीं हैं जो पुलिस में होते हैं । दरअसल ये देवी सिंग पटोले हैं । लेकिन शुरू से ही देवी सिंग पोटले के नाम से फेमस हुए । धीरे धीरे लोग इस नाम को भी चुनावी जुमलों की तरह भूल गए और नया नाम आया डीएसपी जो पोटले साब को भी पसंद था । अच्छी गुजरी, लेकिन जिंदगी में ऊंच नीच सब देखना पड़ती है । कुछ समय से नयी नयी गिरावटें सामने आ रही हैं । कमबख्त बाल गिरना शुरू हुए तो डॉलर के मुकाबले रुपये का साथ निभाते चले गए । रोज सुबह बाज़ार खुलते ही यानि पहली कंघी में ही खासी गिरावट दर्ज हो जाती है । पिछले महीने दो दांत क्या गिरे बाकी ने भी चलूँ चलूँ की जिद पकड़ ली । मन में घोर क्लासिक बंगाली उदासी छ गयी, जो मन कभी ममता की तरह बमकता था अब छुइमुई हो गया । लोग झूठ कहते हैं कि बुढ़ापे में रूपया काम आता है । क्या खाक काम आता है ! इधर चमड़ी कांग्रेस की तरह ढीली होती जा रही है, आईने के सामने जाओ तो पंचर-टॉय दीखता है । जाने ‘चौकीदार’ लोग क्या खाते हैं, कैसे खाते हैं, जब देखो तक हवा फुल-टाईट भरी दिखती है !

पिपलपुरे जी ने डीएसपी को पास लगी बैंच पर बैठाया । पूछा ठीक लग रहा है आपको ? कोई दिक्कत तो नहीं है ? डीएसपी रुआंसे हो कर बोले – “गिर गए !”

“शुक्र है हड्डी नहीं टूटी ।“ पिपलपुरे जी ने पीठ पर हाथ फेरते हुए तसल्ली दी ।

“दो दांत गिर गए ... वो पड़े हैं पत्थर के पास ।“ डीएसपी बोले ।

पिपलपुरे ने देखा, लगा पत्थर मुस्करा रहा है ।

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सोमवार, 19 सितंबर 2022

गुड़ गोबर


 




“अजी सुनते हो ! ये क्या उठा लाये ! गुड़ लाने को कहा था ना ? कोई काम ध्यान से नहीं करते हैं !” सामान का झोला उलटते हुए शांतिदेवी ने पति पर पहली घुड़की मारी ।

“गुड़ ही तो है भागवान, ये देखो बिल, पचास रुपये किलो के दाम भी दिये हैं ।“ ददातादीन ने कागज आगे करते हुए सफाई दी ।

“बिल का कोई मतलब नहीं है, इतना समाचार सुनते हो लेकिन किसान आन्दोलन को भूल गए । कल को सुनार के यहाँ का बिल होगा तो क्या राई-जीरा सोने का हो जायेगा ? जब से रिटायर हुए हो एक काम ठीक से नहीं करते हो ।“ देवी ने कमर पर हाथ भी रख लिया ।

“काम ठीक से कर सकता तो सरकार रिटायर क्यों करती ? जैसा हूँ काम चलाओ, कुकर भी तो तुम ढीले हेंडल वाला वापर रही हो ।“ दातादीन बोले ।

“कुकर की बात अलग है, वो ठीक टाइम पर सिटी मारता है । तुम्हारी तरह नहीं कि गुड़ लाने को कहो तो गोबर उठा लाये और पचास रुपये फैंक आये सो अलग ।“

“गोबर !! गोबर है क्या ?! ठीक से देखा तुमने ?”

“हाँ गोबर है, ये देखो ।“

“गोबर तो पचहत्तर रुपये किलो है ! पच्चीस का फायदा हो गया ।“

“पच्चीस का फायदा हो गया है तो दिमाग में भर लो इसे । कम से कम खाली तो नहीं रहेगा । यों भी खाली दिमाग शैतान का घर होता है । दिनभर उल्टेसीधे काम करते रहते हो ।“

“भागवान, समय को पहचानो । गुड़ का नहीं ये गोबर का समय चल रहा है । गाय का गोबर अब मिलता कहाँ है । अरे जब गाय ही नहीं मिलती तो गोबर कहाँ से मिलेगा । नेट पर गाय सर्च करो तो बीफ दिखाता है । कमबख्त सेलिब्रिटी बीफ खाते हैं और विक्ट्री साईन के साथ मिडिया को भी बताते हैं । एक दिन सारी गाय खा जायेंगे ये लोग तब देखना म्यूजियम में रखा मिलेगा गोबर । मैं तो कहता हूँ अच्छी तरह सुखा कर पैक करके रख लो, हमारी अगली पीढ़ी जानेगी तो सही कि ये गाय का गोबर होता था ।“

“हे भगवान ... सरकार ने तो चलता करके छुट्टी पाई, लेकिन मैं क्या करूँ !”

“तुम करवा चौथ का व्रत रखती तो हो, अब और कुछ करने की जरुरत नहीं है । भगवान इतने में ही सुन लेगा ।“

“व्रत तब रखती थी जब नौकरी में थे और गुड़ कहो तो गुड़ ही लाते थे । मुझे क्या पता था कि अपना ही गुड़ एक दिन गोबर हो जायेगा ।“ देवी का गुस्सा कम नहीं हुआ ।

“देखो, गोबर को तुम बहुत हलके में ले रही हो । और ज्यादा चिल्लाचिल्ली मत करो, बाहर गोबर समर्थकों ने सुन लिया तो दिक्कत हो जाएगी ।“

“क्या दिक्कत हो जाएगी !! हद है अब औरते क्या अपने पति को हड़का भी नहीं सकती हैं ! अगर ऐसा है तो पति रखने मतलब क्या रह जायेगा ।“

“समय को पहचानो शांतिदेवी । सिस्टम बदल रहा है और हर तरह का पति परमेश्वर होने जा रहा है । अपने को श्रद्धा भक्ति के साथ तैयार करो और उसके लाये गोबर को गुड़ मानों । समय के साथ चलो, अभी हमें अगले छः जनम और साथ रहना है ।“

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शनिवार, 17 सितंबर 2022

करम ऊपर गये, फोटो नीचे रह गया


 


             इनदिनों अपनी फोटो पर मेरा ध्यान बार बार जाता है । हर किसी के हाथ में कैमरे वाला फोन है और फोटो ऐसे धड़धड़ खेंचे जाते हैं मानों पीछे डंडा ले कर पुलिस खड़ी हो कि खींच अपनी फोटो । इसी तुकतान में सेल्फियाए रहते हैं कि कोई फोटो ऐसी आ जाये जो उनकी हो लेकिन उनके जैसी न हो । रोज अख़बार में फोटो हो चुके लोगों की सूचना मिलती है । कुछ के यहाँ जाना भी पड़ता है । देखते हैं कि फोटो बढ़िया है । आजकल तकनिकी का जमाना है । आदमी से बेहतर उसकी फोटो होती है । पहले स्टूडियो और फोटो आर्टिस्ट होते थे । मेरे माथे पर चेचक और चोट के दो निशान हैं । गलों पर भी मुंहासों के छूटे हुए निशान हैं काफी सारे । जब भी फोटो खिंचवाई आर्टिस्ट ने तमाम निशान गायब कर दिए । इससे पहचान का संकट तो  बना पर अच्छा लगा । एक बार फोटो इतना साफ सुथरा बना कि मुझे जरुरी लगा कि नीचे अपना नाम भी लिख दूँ । लेकिन आज भी मेरी पसंदीदा फोटो वही है ।  

              कालेज के दिनों में फोटो को लेकर दिल कुछ ज्यादा ही हूम हूम करता है । एक ऐसी घटना हुई जो भूलती नहीं है । आइडेंटिटी-कार्ड यानी परिचय-पत्र पर फोटो लगता है । फोटो चिपका कर प्रिंसिपाल के पास हस्ताक्षर के लिए पहुंचे तो उनका सवाल था कि ये कौन है !? बताया कि मेरी ही है सर । वे बोले जैसी शकल है वैसी फोटो लाओ । इसमें तुम्हें कौन पहचानेगा, आई.एस. जौहर लग रहे हो । मजबूरन एक ख़राब फोटो लगाना पड़ी । इसके बाद जब भी परिचय-पत्र दिखाना पड़ा ऐसे दिखा कर तुरंत छुपाया जैसे आठवीं-फेल की मार्कशीट हो ।

             अब जरा उम्र हो गयी है और बीमार भी रहने लगे हैं तो बीमारी से ज्यादा फोटो को लेकर चिंता होती है । शक्ल खुद पहचान से मुकरने लगी है । आइने के सामने जाओ तो लगता है जाने कौन है ! खुद को जानते हैं लेकिन पहचानने का मन नहीं करता है । काश कि जवानी में शकल देख के बैंकें लोन देती, कुछ तो फायदा होता बदशक्ली का । आधार-कार्ड और वोटर-कार्ड पर भी ऐसी फोटो होती है जिसे कह सकते हैं रियल जानलेवा । कर सकता हो तो आदमी खुद अपने को रिजेक्ट कर दे । गलती से पहले आधार दिखा दो तो लड़का लड़की बेचारों की शादी ही न हो । आप समझ सकते हैं इस चिंता को । छुप छुप कर सेल्फी लेते हैं तमाम पुराने निशानों के साथ झुर्रियां ब्रेक डांस करती दिखाई देती हैं । ऐसी हालत में मर जाने का मन भी नहीं करता है । अगर अंतिम दर्शन ऐसे हैं तो लोग क्या सोचेंगे । कुछ दिनों बाद आखिर भगवान ने सुन ली । किसी दावा का रिएक्शन हुआ और चेहरे पर सूजन आ गयी । डाक्टर को थेंक्यू कहा तो मायूस हो गए, उन्हें लगा कि व्यंग्य कर रहा हूँ । बोले सूजन दो तीन दिन में अपने आप उतर जाएगी, या कहो तो इंजेक्शन दे दूँ । अन्दर की ख़ुशी का क्या कहें, सूजन नहीं थी सौगात थी । बूढ़े शरीर पर जवान चेहरा किसे अच्छा नहीं लगेगा । दनादन सेल्फी भरी फोन में । अच्छा किया, सूजन कमबख्त दो दिन में ही फ़ना हो गयी, लेकिन तमाम फोटो पीछे छोड़ा गयी । कुछ को फ्रेम करवा कर सामने दीवार पर टांग  दिया है । अब आगंतुकों की प्रतिक्रिया नयी जरुरत बन गयी है । आप कभी आयें ... कभी क्यों एक बार जरुर आयें, स्वागत है आपका ।

             एक ढंग की मन पसंद फोटो हो जो अख़बार में छपे तो लगे कि आदमी कितना अच्छा था । देखते ही लोगों के मन में अच्छी भावनाए आयें । कबीर के ज़माने में फोटो नहीं होते थे सो वे लिख गए कि ‘ऐसी करनी कर चलो कि हम हँसे जग रोये’ । अब करनी का क्या कहें ! सबकी एक जैसी है । लगता है ईश्वर ने सबको पाप करने के लिए ही भेजा है । करम तो अब छुपाने की चीज हो गए हैं । वो तो अच्छा है कि जाने वाले के बारे में बुरा नहीं बोलने की परंपरा है । हो भी क्यों नहीं,  किसी का बुरा देखो तो वह अपना ही लगने लगता है । अच्छी फोटो सामने हो, आदमी फूल चढ़ा दे बस । आदमी करम ऊपर ले जाता है, फोटो नीचे छोड़ जाता है ।

            अचानक उस फोटोग्राफर की याद आई जिसने कभी मुझे आई.एस. जौहर बना दिया था । देखा कि माला और फ्रेम के बीच फंसे मुस्करा रहे हैं । लडके से पूछा – “आखरी तक ऐसे ही दीखते थे क्या ?” लड़का बोला – “दिखने से क्या होता है, पासबुक में निल बटा सन्नाटा थे “। उसे समझाते हुए कहा - बेटा सिकंदर गया तब उसके दोनों हाथ खाली थे । उसने गौर से देखा, जिसे करीब करीब घूरना भी कहा जा सकता है । बोला – हाथ सबके खाली ही रहते हैं, लेकिन पासबुक (खजाना) में तो कुछ होना चाहिए ना । पीछे जो रह जाते हैं उनका काम सिर्फ फोटो से चलता है क्या ?

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शनिवार, 10 सितंबर 2022

पैदल आदमी का चालान


 

        “एई ... रुको ... इधर आओ ...किनारे की तरफ । हाँ ... बेल्ट क्यों नहीं पहना है ? “ ड्यूटी-पुलिस ने पूछा ।

        “पजामा पहना है साहब ... नाडा बंधा हुआ है ।“ पैदल आदमी बोला ।

         “पजामा हो या लुंगी बेल्ट लगाना अनिवार्य है । चालान बनेगा । “  ड्यूटी पुलिस ने डायरी निकलते हुए निर्णय सुनाया ।

        “लेकिन मैं तो पैदल हूँ ! मेरा चालान कैसे !?”

        “पैदल ही सही, सड़क पर तो हो । जो भी सड़क पर आता है यातायात कानून के दायरे में आता है । चलिए दो सौ रुपये निकालिए । “

        “दो सौ रुपये !! किस बात के साहब ? मैं पैदल हूँ, मेरी गलती क्या है ?”

         “बहुत सी गलतियाँ हैं ... पहली तो यही कि रांग साइड हो ।“

          “रंग साईड कैसे ! बाएं हाथ चल रहा हूँ, बाएं चलने का नियम है ।”

           “पैदल आदमी को दाएँ हाथ चलने का नियम है । उसके लिए बाएं चलना रंग सईड है ।“

           “दाहिने हाथ कौन चलता है सर ... सब बाएं से चलते हैं । और पैदल के लिए दायें-बाएं का क्या मतलब है !”

           “यातायात के नियमों की जानकारी नहीं होना दूसरी गलती है ... दो सौ पचास निकालिए ।“

           “आप टारगेट पूरा कर रहे हो और कुछ नहीं है । देखिये साहब यातायात पुलिस पैदल का चालान नहीं बना सकती इतना तो मैं भी जानता हूँ । “

           “एक और गलत जानकारी । सड़क पर जो भी आयेगा, नियमों का पालन नहीं करेगा तो उसका चालान बनेगा । ... अभी तुमने लाल बत्ती होने के बावजूद चौराहा पार किया । बताओ किया या नहीं किया ?  “ ड्यूटी पुलिस ने आवाज सख्त की ।

           “किया है सर ... लेकिन मैं तो पैदल हूँ ।“

           “तो क्या ट्रेफिक के नियमों से ऊपर है ! “

           “वोट देता हूँ, सरकार बनाता हूँ, मालिक हूँ देश का तो क्या लाल बत्ती भी क्रास नहीं कर सकता हूँ !?”

           “मालिक !! ... तीन सौ निकाल ।“

           “अरे बात को समझो सर ... मैं मुख्यमंत्री का जीजा हूँ ...”

           “तुम मुख्यमंत्री के जीजा कैसे हो !?”

           “मेरे बच्चे उनके भांजा-भांजी हैं तो मैं जीजा हुआ या नहीं ? अब जान गए तो रिश्तों की लाज रखो प्लीज । ”

          “अपना आधार कार्ड बताओ ।“

          “आधार कार्ड तो नहीं है इस वक्त, घर पर रखा है ।“

          “सड़क पर निकल आये और पेपर भी नहीं है ! तीन सौ पचास निकालिए ।“

          “पैदल चलने का भी लायसेंस बनता है क्या !? कमाल करते हो आप तो ! “

          “बीमा दिखाओ, बीमा तो होगा ?”

          “इतनी महंगाई में कौन बीमा करवाता है साहब । आप तो अपना प्रीमियम ‘रांग-साइड’ से भर देते होगे, हम कहाँ से लायें !”

          “उधर देखो ... वो साहब खड़े हैं कमर पर हाथ रखे । ... दिखे ?”

          “नहीं दिखे ... दूर की नजर कमजोर है ।“

           “तो चश्मा क्यों नहीं पहना ? जब साहब नहीं दिख रहे हैं तो सामने से आ रही गाड़ी कैसे देखोगे ! चलो टोटल चार सौ रुपये निकालो  ।“

            “अरे आप तो रकम बढ़ाते ही जा रहे हो !! मैं कम्प्लेन करूँगा आपकी ।“

            “कर देना । हार्न है ?”

            “पैदल आदमी में हार्न कहाँ होता है !?”

            “ब्रेक भी नहीं होंगे ?”

             “हाँ नहीं हैं ।“

             “हेड लाईट ?”

             “नहीं है ।“

              “ हूँ ... पांच सौ निकालो ।“

              “नहीं हैं ... और नहीं दूंगा । जब्त कर ले मुझे ।“

               “इतना टाइम ख़राब करा ... चल छोड़ ... पचास दे दे और भाग जा ।“

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शुक्रवार, 9 सितंबर 2022

राजा का जन्मदिन


 



             बात बहुत पुरानी है । सच बात यह है जब आपको बहुत ताजा बात भी कहना हो तो उसे पुरानी बताते हुए कहना अच्छा होता है । जो समझते हैं वो समझ जाते हैं कि नयी है और जो नहीं समझते हैं वो समझते हैं कि पुरानी है । इस तरह नयी में पुरानी और पुरानी में नयी का आभास से संदेह अलंकर पैदा होता है । वो दोहा तो सुना ही होगा आपने – ‘सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है ; नारी ही की सारी है कि सारी ही की नारी है ‘ । मतलब ये कि बात ... बहुत पुरानी है ।

               बात ये है कि राजा का जन्मदिन आ रहा था । यों तो जन्मदिन सबका आया करता है लेकिन उससे क्या ! खेत में फसल उतरती है उसी तरह जनता पैदा होती है । सुना है किसी देश में रोज एक लाख बच्चे पैदा होते हैं । हर सेकेण्ड में एक तो समझ ही लीजिये । ऐसे में आप बताइए इनका पैदा होना भी कुछ होना है ! असल पैदा होना राजा का होता है । बड़ी मुश्किल से, बड़ी मन्नतों और होम-हवन के बाद । यही वजह है कि दो हप्ते पहले से जन्मदिन की अग्रिम खुशियाँ मनाई जा रहीं हैं । आसपास लगे रहने वालों के पेट और जेब दोनों भर गए हैं लेकिन मन नहीं भर रहा है । मन तो राजा का भी नहीं भरा है किसी बात से । दिन में पांच वक्त बदलने के लिए तमाम शेरवानियाँ वस्त्रागार में टंगी हैं । जूतियों की नक्काशीदार जोड़ियों से जूताखाना भरा हुआ है । चिरागों की संख्या दुगनी कर दी गयी है । महल विशेष दमक रहा है । रनिवास से इत्र-फुलेल के भभके उठ रहे हैं । महल जैसे स्वर्ग का आउट हाउस है ।

               रात हुई राजा अपने कुछ मुँहलगे मंत्रियों के साथ खुले आकाश के नीचे एकांत का आनंद ले रहा था  । अचानक राजा ने कहा – मुझे ये चाँद उदास लग रहा है !!

              मंत्रियों ने एक स्वर में कहा – आप ठीक कह रहे हैं राजन, चाँद उदास लग रहा है ।

              “इसे प्रसन्न होना चाहिए । हमारा जन्मदिन आने वाला है ।“ कहते हुए उन्होंने पर्यावरण मंत्री की और देखा ।  

           “जी राजन, कल चाँद को खुश रहने के लिए कह दिया जायेगा ।“

            “महल के बाग में मोर और बत्तखें थीं ! वो कहाँ दुबकी हैं ?”  

              “राजन, मोरों को कल दरबार में नृत्य के आदेश दिए जा चुके हैं, बत्तखों को भी समूह नृत्य के लिए कहा जा चुका है । जो नहीं आयेंगी वो कल शाम को परोसी जाएँगी । “

               “हमें लगता है हमारी सेना भी अन्दर से प्रसन्न नहीं है । क्या सेना को हमारे जन्मदिन की ख़ुशी नहीं है ?” कुछ देर सोचते हुए राजा ने रक्षामंत्री से सवाल किया ।

               “राजन सेना में ऐसा कोई नहीं जिसे आपके जन्मदिन की ख़ुशी नहीं हो । लेकिन महंगाई के कारण उनकी ख़ुशी कमजोर पड़ रही है । किन्तु आप चिंता न करें कल से जन्मदिन तक सारे सैनिक बाकायदा प्रसन्न रहेंगे । यदि कोई उदास रहा तो बर्खास्त किया जायेगा ।“

                “रियाया में भी उत्साह नहीं है ! उसे भी प्रसन्न रहना चाहिए । नाचें-कूदें, गायें-बजाएं, अच्छे परिधान पहनें,तरह तरह के उपहार ले कर आयें और अपनी भावना व्यक्त करें । क्या उन्हें पता नहीं कि राजा का जन्मदिन है ! ... गृहमंत्री, आपका खुपिया विभाग क्या कर रहा है ?”

                 गृहमंत्री ने हाथ जोड़ कर कहा – “राजन बेहतर होगा कि जन्मोत्सव महल की सीमा में ही संपन्न किया जाये । जनता महंगाई, बेरोजगारी, संस्थाओं पर अपराधियों के कब्जे से बहुत दुखी और क्रोधित भी है । लोग न्याय व्यवस्था को भी संदेह से देखने लगे हैं  । आय कम और कर बहुत ज्यादा हो गए हैं ऐसे में उन्हें तीन दिनों तक खुश रहने का आदेश देना जोखिम भरा है ।“

                 “चुनौतियाँ और विपरीत परिस्थितियां तो हर समय आती रहती हैं । ... क्या अपने अब तक कुछ नहीं किया !? आपको गृहमंत्री इसलिए बनाया था कि अपने हो और पुराना रिकॉर्ड भी जोरदार है !” राजा ने ऑंखें चौड़ी करते हुए कहा ।

                  “सारे नौकरीपेशा खुश रहे आदेश जारी कर दिए हैं । हर कर्मचारी को अपने विभाग प्रमुख से अपनी प्रसन्नता प्रमाणित करवा कर गृह मंत्रालय को भेजने के लिए निर्देशित किया गया है । विभाग प्रमुख अपनी प्रसन्नता स्वयं सत्यापित कर मंत्रालय को भेजेंगे । दिक्कत व्यापारियों, छोटा मोटा धंधा करने वालों, पकौड़ा बनाने वालों, फेरी वालों से है । खादी पहनने वाले मानेंगे नहीं, उस दिन सुबह से उपवास रखने वाले हैं ।“ हाथ जोड़ते हुए गृह मंत्री ने निवेदन किया ।

                सामने खड़े धन मंत्री की और राजा ने देखा ... कहा कुछ नहीं । धन मंत्री ने राजा की आँखों में झाँका और समझ गया ... कहा कुछ नहीं । रात गहरा चुकी थी । आसपास से उल्लुओं की आवाजें आने लगी । सुनते ही राजा प्रसन्न हुआ । बोला – चलो तुम लोगों के आलावा कोई तो है जो खुश हो रहा है ।

               मंत्री एक स्वर में चहके – साक्षात् लक्ष्मी के वाहन हैं राजन ... शुभ है ... मंगल है ... मुबारक हो जन्मदिन ... हुजूर सलामत रहें और जन्म जन्मान्तर तक सिंहासन पर बने रहें ।

               दूसरे दिन पेट्रोल का दाम बीस पैसे कम कर दिया गया । जनता खुश हो गयी । सरकार को पता है कि बीस पैसे की ये ख़ुशी तीन दिन तो आराम से टिक जाएगी ।

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शुक्रवार, 26 अगस्त 2022

पकोड़ा कढ़ी की रेसिपी


 



                    कवि कमाल कलम थामे कविता से संघर्ष कर रहे थे । चार पंक्तियों की आमद हो चुकी थी । पांचवी को मना रहे थे लेकिन वह मान नहीं रही थी । ऐसा अक्सर होता है उनके साथ । बिना मान मनौवल के उनका कोई काम नहीं होता है । वे जिसे भी मानाने का प्रयास करते हैं वह उतना ढीठ हो जाता है । डाकिये तक को मनाते हैं तब कहीं जा कर हप्ते में एक-दो चिट्ठियां देता है । लेकिन कविता के मामले में रस्साकशी कुछ ज्यादा ही हो जाती है । आज भाग्य से कविता का हाथ पकड़ में आ गया है । जोराजोरी में लगे हुए हैं, सोच रहे हैं खेंच लेंगे पूरी ।

तभी मिसेस कमाल पास आ कर सोफे पर बैठ गयीं । किताबों से लगाकर गूगल तक, सबको पता है कि कवि-पतियों से उनकी पत्नियाँ कितनी खुश रहती हैं । जब वो कहती हैं कि ‘ये’ किसी काम के नहीं हैं तो आवाज कई कोनों से इको होती है । कवि चाहते हैं कि धक्का दे दें लेकिन जानते हैं कि ये आसान काम नहीं है । इसलिए अपने काम में लगे रहने की कोशिश करने लगे । अचानक वे चहकीं – “मिल गयी ! ... ये देखो मुझे मिल गयी !”

कवि पंक्तियों में उलझे थे, बोले – “घंटाभर हो गया मुझे नहीं मिली, तुम्हें कैसे मिल गयी !”

“पकौड़ा-कढ़ी की रेसिपी मिल गयी” । उन्होंने फोन दिखाते हुए कहा । 

“तुम्हें पता है इस समय मैं कविता खेंच रहा हूँ ! और तुम मेरी तपस्या भंग कर रही हो ! पकौड़ा-कढ़ी की रेसिपी से मुझे क्या ?”

“जिसे मजा लेना हो वो रेसिपी पढ़ा कर भी मजा ले सकता है । पता है ये खास है, इसे सत्रह सौ लाईक मिले हैं । गुजरात के जानेमाने शैफ की रेसिपी है ।“

“कढ़ी तो कढ़ी है, इसमें क्या खास है ?” कवि ने मुंह बनाया ।

“इसमें पकौड़ा होता है जो कि नहीं होता है ।“

“पकौड़ा-कढ़ी में पकौड़ा नहीं तो और क्या होगा !?  तुम बनती रही हो उसमें भी तो पकौड़ा होता है ?”

“मेरी कढ़ी का मत पूछो । इस रेसिपी वाली में पकौड़े नहीं पत्थर होते हैं, जो कढ़ी बनाने के बाद निकाल लिए जाते हैं ।“

“पकौड़े की जगह पत्थर !!”

“गुजरात की कढ़ी है । कुछ राज्य हैं जो समस्या देते हैं तो समाधान भी देते हैं । महंगाई का पता है कहाँ पहुँच गयी है !!  तुम्हारी कविता से एक समय की दाल भी नहीं बनती है । इधर  सोशल मिडिया पर देखो कवि पकौड़ों की तरह घान के घान उतर रहे हैं । देख कर लगता है पकौड़े कविता कर रहे हैं !“

 “कवि पकौड़े ! पकौड़े-कवि ! कहना क्या चाहती हो ! हम पकौड़ा है ! देश में पकौड़े इसलिए ज्यादा दिख रहे हैं क्योंकि बेरोजगार पकौड़े तलने लगे हैं । ”

“जब सारे पकौड़ा बनायेंगे तो खरीदेगा कौन ? बेरोजगार बन्दे कविता करने में लगे हैं ... आदमी खाली बैठे बैठे खुद पकौड़ा नहीं हो जायेगा ।“ देवी कुपित हुईं ।

“चलो ठीक है ज्यादा बेइज्जती मत करो । अभी हम कविता में उलझे हुए हैं ।“

“इसमें बेइज्जती की क्या बात है ! पकौड़ा कवि से आल टाइम बेहतर है । सस्ता है, स्वादिष्ट होता है, भूख मिटाता है, सत्कार के काम आता है, सामने रख दो तो मेहमान खुश हो जाता है । और कवि ...! अब मुंह मत खुलवाओ मेरा ।“

“मुंह है कहाँ ... इण्डिया गेट है । कभी बंद हो सकता है क्या ! यही हाल रहे तो पीएम बन जाओगी किसी दिन । ...  देखो मुझे पांचवी पंक्ति नहीं मिल रही है ऐसे में तुम दिमाग का पकौड़ा-कढ़ी मत करो । बनाओ जा कर । ”

“ओ मिस्टर, पकौड़ा-कढ़ी के लिए सामान लगता है । मैं सिर्फ रेसिपी दिखा रही थी । रेसिपी देखो और मजे लो । “

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