कवि
कमाल कलम थामे कविता से संघर्ष कर रहे थे । चार पंक्तियों की आमद हो चुकी थी ।
पांचवी को मना रहे थे लेकिन वह मान नहीं रही थी । ऐसा अक्सर होता है उनके साथ ।
बिना मान मनौवल के उनका कोई काम नहीं होता है । वे जिसे भी मानाने का प्रयास करते
हैं वह उतना ढीठ हो जाता है । डाकिये तक को मनाते हैं तब कहीं जा कर हप्ते में
एक-दो चिट्ठियां देता है । लेकिन कविता के मामले में रस्साकशी कुछ ज्यादा ही हो
जाती है । आज भाग्य से कविता का हाथ पकड़ में आ गया है । जोराजोरी में लगे हुए हैं,
सोच रहे हैं खेंच लेंगे पूरी ।
तभी
मिसेस कमाल पास आ कर सोफे पर बैठ गयीं । किताबों से लगाकर गूगल तक, सबको पता है कि
कवि-पतियों से उनकी पत्नियाँ कितनी खुश रहती हैं । जब वो कहती हैं कि ‘ये’ किसी
काम के नहीं हैं तो आवाज कई कोनों से इको होती है । कवि चाहते हैं कि धक्का दे दें
लेकिन जानते हैं कि ये आसान काम नहीं है । इसलिए अपने काम में लगे रहने की कोशिश
करने लगे । अचानक वे चहकीं – “मिल गयी ! ... ये देखो मुझे मिल गयी !”
कवि
पंक्तियों में उलझे थे, बोले – “घंटाभर हो गया मुझे नहीं मिली, तुम्हें कैसे मिल
गयी !”
“पकौड़ा-कढ़ी
की रेसिपी मिल गयी” । उन्होंने फोन दिखाते हुए कहा ।
“तुम्हें
पता है इस समय मैं कविता खेंच रहा हूँ ! और तुम मेरी तपस्या भंग कर रही हो ! पकौड़ा-कढ़ी
की रेसिपी से मुझे क्या ?”
“जिसे
मजा लेना हो वो रेसिपी पढ़ा कर भी मजा ले सकता है । पता है ये खास है, इसे सत्रह सौ
लाईक मिले हैं । गुजरात के जानेमाने शैफ की रेसिपी है ।“
“कढ़ी
तो कढ़ी है, इसमें क्या खास है ?” कवि ने मुंह बनाया ।
“इसमें
पकौड़ा होता है जो कि नहीं होता है ।“
“पकौड़ा-कढ़ी
में पकौड़ा नहीं तो और क्या होगा !? तुम
बनती रही हो उसमें भी तो पकौड़ा होता है ?”
“मेरी
कढ़ी का मत पूछो । इस रेसिपी वाली में पकौड़े नहीं पत्थर होते हैं, जो कढ़ी बनाने के बाद
निकाल लिए जाते हैं ।“
“पकौड़े
की जगह पत्थर !!”
“गुजरात
की कढ़ी है । कुछ राज्य हैं जो समस्या देते हैं तो समाधान भी देते हैं । महंगाई का
पता है कहाँ पहुँच गयी है !! तुम्हारी
कविता से एक समय की दाल भी नहीं बनती है । इधर सोशल मिडिया पर देखो कवि पकौड़ों की तरह घान के
घान उतर रहे हैं । देख कर लगता है पकौड़े कविता कर रहे हैं !“
“कवि पकौड़े ! पकौड़े-कवि ! कहना क्या चाहती हो !
हम पकौड़ा है ! देश में पकौड़े इसलिए ज्यादा दिख रहे हैं क्योंकि बेरोजगार पकौड़े
तलने लगे हैं । ”
“जब
सारे पकौड़ा बनायेंगे तो खरीदेगा कौन ? बेरोजगार बन्दे कविता करने में लगे हैं ... आदमी
खाली बैठे बैठे खुद पकौड़ा नहीं हो जायेगा ।“ देवी कुपित हुईं ।
“चलो
ठीक है ज्यादा बेइज्जती मत करो । अभी हम कविता में उलझे हुए हैं ।“
“इसमें
बेइज्जती की क्या बात है ! पकौड़ा कवि से आल टाइम बेहतर है । सस्ता है, स्वादिष्ट
होता है, भूख मिटाता है, सत्कार के काम आता है, सामने रख दो तो मेहमान खुश हो जाता
है । और कवि ...! अब मुंह मत खुलवाओ मेरा ।“
“मुंह
है कहाँ ... इण्डिया गेट है । कभी बंद हो सकता है क्या ! यही हाल रहे तो पीएम बन जाओगी
किसी दिन । ... देखो मुझे पांचवी पंक्ति
नहीं मिल रही है ऐसे में तुम दिमाग का पकौड़ा-कढ़ी मत करो । बनाओ जा कर । ”
“ओ
मिस्टर, पकौड़ा-कढ़ी के लिए सामान लगता है । मैं सिर्फ रेसिपी दिखा रही थी । रेसिपी
देखो और मजे लो । “
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