" हुजूर,
सारी दिक्क़त सफ़ेद कबूतरों से है। इन्हें लत पड़ी हुई है प्रेम सन्देश
इधर से उधर करने की। लोग भी नासमझ हैं, जब भी ये पंख खोलते
हैं ऐसा माना जाता है कि शांति का पैगाम फैला रहे हैं ! हमारे खिलाफ़ माहौल भी बनाते
हैं। इन पर लगाम नहीं कसी गई या इनके पर नहीं काटे गए तो देख लेना एक दिन धर्म
खतरे में पड़ जाएगा। " कौवे ने बाज-महाराज से कहा।
बाज को
सुबह से कोई अच्छी खबर नहीं मिली थी, वह तैश में आ गया -
" ऐसे कैसे धर्म खतरे में पड़ जाएगा! धर्म है तो जंगल है, जंगल है तो जंगली हैं और जंगली है तो हमारी सत्ता है। धर्म को बचाना ही
सत्ता को बचाना है।... तुम कौवे होकर इतना नहीं समझते हो!
"
" समझता हूँ
हुजूर, इसीलिए तो सफेद कबूतरों की हिमाकत बता रहा हूँ । कौवे
आपके वफादार हैं । आप हैं तो हमारा अस्तित्व है। आप से बचा खाकर ही हमारी कौम
जिंदा रहती है।"
" काले
कबूतर क्या करते हैं !! उनकी संख्या तो काफी ज्यादा है। जंगल में बिखरा दाना ज्यादातर वही खा जाते हैं। उन्हें विकल्प देना
चाहिए।" बाज ने कहा।
" मुझे अफसोस से
बाज महाराज। काले कबूतर तो जंगली ही कहलाते हैं। प्रेम और शांति के प्रति उनमें
संवेदन नहीं होती है। वे कितना ही पर फैला लें लेकिन लोगों में उनके प्रति भरोसा
पैदा नहीं होता है। "
" तुम भी तो
कौवे हो, और किसी लायक नहीं हो। फिर भी जंगल में जमे हुए हो
या नहीं? श्राद्ध पक्ष में बस्तियों में जाते हो और पूजे भी
जाते हो या नहीं ? काले कबूतरों को अपने साथ रखा करो। कुछ
संस्कार दो उन्हें, सत्ता-भक्ति सिखाओ । उन्हें समझाओ कि
भक्ति में शक्ति होती है।" बाज ने आदेशनुमा सुझाव दिया।
कौवे ने सिर
झुकाते हुए कहा - " क्षमा करें महाराज, कौवा बिरादरी
उच्च है। आप सरकार के साथ उठना बैठना और खाना पीना है हमारी बिरादरी का। हम उन कबूतरों के
साथ बराबरी का व्यवहार नहीं कर सकते।"
" तो फिर
सफेद कबूतरों की समस्या का क्या होगा ! कैसे रोकेंगे इन्हें?"
" इसके दो
तरीके हैं महाराज। पहला इन्हें जंगल-द्रोही घोषित करके मार खाया जाए। दूसरा उन्हें
पुरस्कार और सम्मान देकर महान बना दिया जाए। एक बार किसी को सत्ता से महानता का
प्रमाण पत्र मिल जाए तो उसका रंग बदल जाता है। "
" क्या
पुरस्कृत कबूतर सफेद से काले हो जाते हैं !!? "
" रहते तो
सफेद ही हैं महाराज, लेकिन उन्हें काला दिखाना बंद हो जाता
है ।"
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