आदरणीय नए नए आदरणीय हुए हैं,
ओवन-फ्रेश । नयी नयी शादी के बाद ये फिलिंग आती ही है । अचानक मिले आदरणीयपन को
लेकर वे बहुत गंभीर हैं । ससुराल के कुत्ते तक को ‘माय लव’ कहने में देर नहीं करते
हैं । इन हालात में साली जी की ओर से होली खेलने का निमंत्रण मिलना निजी स्तर पर
पद्मश्री मिलना है । पंख होते तो उड़ जाते फ़ौरन से पेश्तर । लेकिन दिक्कत ये कि
होली खेली नहीं आज तक । डर लगता है, काला, नीला, सिल्वर, न जाने क्या क्या पोत
देते हैं लोग । सर में ऐसा सूखा रंग डाल देते हैं जो हप्तों तक बालों में घुलता
रहता है । इसलिए होली पर जल से, रंग से, यहाँ तक कि टीवी पर ‘भीगे चुनरवाली ...’
देखते हुए अन्दर तक डर वाली झुरझुरी दौड़ जाती है । अभी तक होली वाले दिन कमरे में
बंद हो कर अपने को बचाए रखा है । अगर पता होता कि शादी के बाद साला-साली होली
खेलेंगे तो शायद पुनर्विचार करते । ऐसा घर देखते जहाँ इकलौती लड़की होती । लेकिन अब
क्या किया जा सकता है ! चिड़िया चुग गयी खेत ।
दोस्तों से बात की तो एक ने मामले की
नजाकत को समझा और सुझाया होम्योपैथी वाले डाक्टर से मिल लो । होम्योपेथी में दवा
है जो होली का डर दूर कर देती है । हमारे लम्पट फूफाजी वही दवा खा कर आते हैं और
सूर्योदय से सूर्यास्त तक घामड़ होली खेलते हैं । खेलने वालियों के साथ वो इस कदर कलर-मैच हो जाते हैं कि पता
ही नहीं चलता कि आदमी कौन है और कौन औरत । इसके बाद छः महीने होली के किस्सों में
गुजरते हैं और अगले छः महीने होली के इंतजार में । तुम देर न करो, फ़ौरन जाओ वहां
फूफओं की लाइन लगती है ।
आदरणीय का डर दवा के बस का नहीं था ।
जाने का मन बनाते लेकिन हिम्मत कांग्रेस की सरकार की तरह गिर गिर जाती । एक और
लंगोटिया हैं, बोले – “यार तू टेंशन मत ले और इस गुप्त ज्ञान पर ध्यान दे । होली
पर ‘रंगे यार’ पहचाने तो
जाते नहीं । तेरी मेरी कद काठी एक है । तुझे ऐतराज न हो तो तू बन कर मैं खेल आऊँ ?
बोल ?” बोलते क्या आदरणीय । उपाय तो अच्छा था पर हजम नहीं हो रहा था । आखिर मना कर
दिया ।
अभी वे निराश होने के लिए तत्पर थे
कि श्रीमान’जी’ मिल गए । बोले – “ कोई
कठिनाई नहीं है, मातृशक्ति से होली खेलना है तो केवल टीका लगा कर चरणस्पर्श कर लो,
बस हो गया ।“
अब संकट यह है कि साली जी के मामले
में मातृशक्ति का दायरा कुछ जम नहीं रहा है । साली जी का निमंत्रण निमंत्रण कम
चुनौती अधिक है । मन हो रहा है कि बहिष्कार ही कर दें लेकिन इज्जत का सवाल खड़ा हो
जाता है । तभी फोन बजा –“ जीजाजी आ रहे हैं ना ? सफ़ेद कपड़े पहन कर आइयेगा, कलर वलर
वाला पहना तो फिर देख लेना हाँ ।“
“देखिये आप मातृशक्ति हैं और हमारा
कर्तव्य है कि आपसे मात्र टीका-होली खेलें । इसमें कपड़ों का कोई रोल नहीं है ।“
आदरणीय बोले ।
“अरे नहीं जीजाजी, कपड़े तो पहन कर
आइये वरना लोग क्या कहेंगे ।“ बिना उई माँ के वे बोलीं ।
“आप गलत समझ गयीं साली जी । हमारा
कहने का मतलब था कि कपड़े चाहे कैसे भी पहनें टीका-होली में केवल टीका लगाया जाता
है माथे पर ।“
“टीका तो आप लगायेंगे ना, हम तो
खेलेंगे अपने हिसाब से । पहले रंग डालेंगे फिर रंग में डालेंगे । ... डर तो नहीं
रहे हैं ?!” खिलखिलाते हुए उन्होंने वैधानिक चेतावनी दी ।
“नहीं, डरने की क्या बात है !”
“पहले भांग पिलायेंगे आपको । अंगूर
वाली ।“
“अरे भांग नहीं पीते हम ।“
“तो पकौड़े खाइएगा भांग के ।“
“आप तो ऐसा कीजिये देवीजी वाट्स एप
पर होली का मेसेज भेज दीजिये । काफी होगा, हमें आराम से चल जायेगा ।“
“लेकिन हमें नहीं चलेगा । आपको आना
पड़ेगा या फिर सबके सामने ‘चीं’ बोलते हुए वीडिओ भेजो । हम मान लेंगे कि हमारी बहन
चूहे से ब्याही है ।“ फोन कट गया ।
आदरणीय बैठे सोच रहे हैं कि साली के
सामने चीं बोल लें या खेल लें ।
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