शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2023

होली मूड - २ एक चिट्ठी रंग-धड़ंग


 





विद्रोही कवि प्रबल को दरवाजे पर एक चिट्ठी पड़ी मिली । चिट्ठी क्या थी पन्ना था कॉपी का । लिखा था “नौ दस ग्यारा बारा ... बारा को कर देंगे मडर तेरा, पुलिस को मत करना खबर वरना बिगाड़ देंगे खेल सारा” । वरना के बाद चाकू का चित्र बना हुआ था । प्रबलने चिट्ठी को तीन चार बार पढ़ा । बुदबुदाये कैसे मूर्ख हैं ! कम से कम ऊपर नाम तो लिखना था । कैसे पता चलेगा किसका मर्डर करने वाले हैं । वे सोचने लगे चिट्ठी यहाँ डाली है तो और कौन हो सकता है ! लेकिन उनका तो किसी से कोई झगड़ा नहीं है । दो तीन महीने से दूध का बिल नहीं दिया है । लेकिन वो मारेगा नहीं । मालिक मकान का भी बाकी है लेकिन वो आँख दिखने से आगे नहीं बढेगा । मन हुआ कि गंभीरता से लेने की जरुरत नहीं है । कल को कोई चिट्ठी छोड़ जाए कि तुम्हें जनकवि का सम्मान दिया जायेगा तो क्या सच मान लें ! जबकि वे इसके हक़दार भी हैं । उनकी कविता समाज में व्याप्त जितनी भी फूहड़तायें हैं उनके खिलाफ आवाज उठाती है । अंधभक्त हों या धर्म के नाम पर दुकान चला रहे बाबा हों या किस्म किस्म नागा हों, उन्होंने खूब लिखा है । अगर वे मनुष्यता के साथ खड़े हैं तो मार डाले जाने योग्य तो नहीं हो जाते । ईमानदारी और जनजागरण का रास्ता बड़ा जोखिम भरा है वे जानते हैं, लेकिन इतना भी नहीं होना चाहिए । चालाकियां कितनी भी सफाई से की जा रही हों कुछ लोगों को समझ में आ ही जाती हैं । जनभावना को कच्चे माल की तरह उपयोग कर लेना  आज की राजनीति है । चाँद दिखा कर बदन के कपड़े खींच रहा कोई, लेकिन किसको इतनी समझ ! एक कवि ही है जो चाँद को समझता है और दिखाने वालों को भी । अचानक प्रबल को याद आया कि आज पांच तारीख है । चिट्ठी में बारह तारीख लिखी है । हप्ता भर का समय दिया है । क्या पता उनके लिए ही हो चिट्ठी । आजकल हत्यारों की मौज है, टल्ला लग जाए तो भी मार देते हैं । पुलिस जनता की सेवक है, लेकिन वो शायद अपराधियों को ही जनता मानती है । न जाने क्यों प्रबलको चिट्ठी पर विश्वास होने लगा । और यह भी कि पुलिस कुछ नहीं करेगी । सारा तंत्र ‘न्यूनतम जिम्मेदारी अधिकतम अधिकार’ की नीति पर चलता है । कवि कोई वी.आइ.पी. तो है नहीं कि उसे सिक्युरिटी मिलेगी । जैसे गली गली में युवा ह्रदय सम्राट वैसे ही कवि भी । प्रबलको खतरा सामने खड़ा दिखाई देने लगा । वे जानते हैं कि पुलिस, अपराधी और नेताओं का चोली-दामन का साथ है । अलग अलग है लेकिन मिल कर काम करते हैं । मिलीजुली इस शक्ति को ही शासन कहते हैं । चिट्ठी में हप्ता भर दिया है तो जरुरी काम निबटा लेने में ही समझदारी  है । प्रबल  की निराशा बढ़ी । चिट्ठी जेब में रख कर सोचने लगे तो तमाम गलतियाँ दिखने लगीं । ख्याल आया कि जब लेखक बनना था तो परिवारिक जिम्मेदारी क्यों ली ! बच्चे छोटे हैं, मकान की किश्ते बाकी हैं । वह नहीं रहा तो परिवार को शोकसंदेशों के आलावा कुछ नहीं मिलेगा । काश बीमा ही करवा लिया होता । मूर्खता थी कि सोचते रहे अपन लिखने पढ़ने वाले, अपने को किसी से क्या डर । अब मिल गया मौत का फरमान तो नरक नजर आ रहा है ।

बावजूद तमाम नाउम्मीदी के प्रबल थाने पहुंचे और चिट्ठी दिखाई । साहब बोले – अभी तो सात दिन हैं आपके पास । लगता है भला आदमी है वरना फैसला करने में आजकल कोई देर थोड़ी करता है । आप जरुरी काम तो निबटा ही लो । बाकी हम देखते हैं ।

“क्या जरुरी काम निबटाऊँ साहब । देनदारियां हैं, कर्जे चुकाने हैं । ...”

“यही समय है ... और कर्जे ले लो जहाँ से भी मिले । संसार छूटा तो सब छूटा ।“

“तो ... क्या रिपोर्ट नहीं लिखेंगे ?”

“क्यों नहीं लिखेंगे ! लेकिन एक बार सोच लो, मरते आदमी को कोई कुछ नहीं देता है । उल्टा मांगने वाले चढ़ने लगेंगे । हमारा क्या है, बैठो अभी लिख लेते हैं । “

‘प्रबल’ बोले -  “ठहरो सोच लेता हूँ । क्या पता चिट्ठी गलती से मेरे घर फैक दी हो किसी ने ।“

“वो गलती क्यों करेंगे ! उनका ये रातदिन का काम है । जैसे आपका काम कविता लिखना है । सारे अपराधी मंजे हुए होते हैं आजकल ।“

 प्रबल  घर लौट आये । सोचने लगे कौन सहायक होगा । नेता और पुलिस से उम्मीद  नहीं । उन्हें याद आया कि ‘गब्बर के ताप से एकही आदमी बचा सकता है खुद गब्बर’ । आएगा सामने, वही बचाएगा । चिंता में दिन कटने लगे । ग्यारह की पूरी रात सो नहीं सके । सुबह सुबह आँख लगी थी कि आवाज से चौंके । लगा किसीने कुछ फैंका बाहर । देखा एक चिट्ठी थी पत्थर से बंधी हुई । प्रबल को लगा आज तो गए । आसपास कोई दिखा नहीं, डरते हुए चिट्ठी खोली । गुलाल से भरी हुई, और लिखा था “बुरा न मानों होली है” ।

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