सोमवार, 31 जनवरी 2022

शांतिपुरम में जागरण


 

                           प्राचीन देश शांतिपुरम में दो तरह के लोग रहते हैं . एक जो जागे हुए हैं और दूसरे जो जागे हुए नहीं हैं . इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती है कि ऐसे में शांतिपुरम सरकार के पास दो ही प्राथमिक काम हैं एक यह कि जागे हुए लगातार जागते रहें और दूसरा जो जागे हुए नहीं हैं उन्हें जगाया जाये . प्राथमिकता है इसलिए बहुत सारे संगठनों और उनकी तमाम शाखाओं को इस काम में लगाया गया है . उनका काम है कि एक एक आदमी के पास पहुंचें और पड़ताल करें कि वह कायदे से जागा हुआ है या कि जागा हुआ नहीं है . आदेश यह भी हुआ है कि जागने वालों और नहीं जागने वालों की जनगणना की जाये . ताकि शांतिपुरम की जागरण सम्बन्धी सरकारी योजनाओं का पूरा पूरा लाभ सरकार को मिले . जो लोग गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई जैसी घिसीपिटी समस्याओं को रोते मिलेंगे उन्हें सुप्त दर्ज किया जायेगा . जिन्हें चारों और भ्रष्टाचार बेईमानी, चोरी-डकैती दीख रही हो उन्हें सुपर-सुप्त श्रेणी में दर्ज किया जायेगा . जो शांतिपुरम सरकार के काम को संदेह से देखेंगे, नेतृत्व पर सवाल करेंगे या जो राइट टू इन्फार्मेशन यानी सूचना के अधिकार के तहत नेतृत्व का खाना खर्चा, कपड़ा-लत्ता और तोतों-कबूतरों के दाना-पानी का हिसाब पूछेंगे उन्हें अचेत श्रेणी मिलेगी . विशेष प्रकरणों में इन्हें एडवांस में मृत भी मान लिया जा सकता है . जो लोग धर्म-जाति, पूजा-प्रार्थना, ऊँच-नीच, अगड़ा-पिछड़ा को लेकर अतिसंवेदनशील हैं केवल वही जागे हुए माने जायेंगे .

                 “जो जागे हुए नहीं हैं उनका क्या करें साहेब जी ?” जागरण सचेतक ने पूछा .

                 “सबसे पहले उन्हें चिन्हित करो, सूचि बनाओ, निगरानी में रखो, समझाओ, लालच दो, डराओ पहले शाब्दिक फिर सोंटा-दर्शन से, बौद्धिक दो कि छापा पड़ सकता है . उन्हें जागरण शक्ति द्वारा भेजे गए वीडियो दिखाओ, वाट्स एप मेसेज भेजो, लड़ाई झगड़ों के पुराने प्रसंग याद दिलाओ, दिन दिन भर जागो-जागो बोलो . पूरा मौका दो उन्हें, अपनी तरफ से पूरा प्रयास करो कि वे जाग जाएँ . उन्हें जागना ही पड़ेगा .” साहब बोले .

                  “आदरणीय महोदय फंड की कमी है . कोई प्रावधान कर दें तो काम को गति मिले .” सचेतक अपनी समस्या बताई .

                  “फंड की कमी है तो पुलिस से संपर्क करें . वे बिना बात चालान बनाते ही हैं, शांतिपुरम के हित में उसे दुगना करें . सक्षम विभागों से कहो कि सुप्तों और सुपर सुप्तों पर छापा मारी करें . इससे या तो वे जाग जायेंगे या फिर आपकी फंड व्यवस्था करेंगे . हर हाल में पूरा शांतिपुरम हमें जागृत करना है .”

                  “हम पूरी कोशिश कर रहे हैं साहेब . किन्तु हमारे सामने सवाल यह भी है कि बहुत से लोग हैं जो इससे भी नहीं जागे तो ?”

                    “उन्हें बताओ कि पुरस्कार देंगे, ईनाम मिलेगा, नगद भी मिलेगा, उधार भी मिलेगा .  हवाई जहाज में बैठाएंगे और पूरे शांतिपुरम का चक्कर लगवाएंगे, पद-वद भी मिल सकता है .”

                   “महोदय क्षमा करें, न जागना भी एक तरह की कट्टरता है . कुछ लोग कट्टरता की हद तक नहीं जागे हुए हैं . हमारी कोशिशों के बाद भी वे नहीं मानेंगे .”

                   “ऐसों को बताओ कि नहीं जागे तो शांतिपुरम में दंगा हो सकता है . तुम नहीं जागे तो जागे हुओं के हाथों मारे जा सकते हो . बताओ कि सुप्तजनों को स्वर्ग में जगह नहीं मिलती है . और इसके बाद भी नहीं मानें तो ... तो आप लोग ईशप्रेरणा से अपना  काम कर सकते हैं .”

                    “ठीक है साहेब,  इन्हें मृतक सूचि में ही रखना पड़ेगा . लेकिन इतने सारे लोगों को ठिकाने कहाँ लगाया जा सकता है ?”

                     “चिंता नहीं करें, देवनदी माँ है . देवनदी की क्षमता बहुत है, देवनदी शांतिपुरम के पक्ष में हमेशा तत्पर है . ... जाओ अब समय नष्ट मत करो देवनदी प्रतीक्षा कर रही है .”

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रविवार, 23 जनवरी 2022

वे जो मुस्करा रहे हैं


                           लोगों ने देखा कि आवारा कुत्ते की दुम कुछ दिनों से सीधी है ! पुराने लोग बताते हैं कि कुत्ते की दुम सीधी हो तो उसके पागल होने की आशंका प्रबल रहती है . पागल कुत्ता काटने लगता है . इरादतन काटे या गैरइरादतन, चौदह इंजेक्शन पूरे लगते हैं . इसलिए पागल कुत्ता जब भी बस्ती में आता था तो लोग बच्चों को लेकर घरों में घुस जाते थे . पागल कुत्ते के आने से लोगों को फ़ौरन घर में छुपाना एक रिहर्सल हो जाया करती थी जो डाकुओं के आने पर बड़े काम आती थी . मुसीबत आये तो मुकाबला करने के बजाए छुप जाना हमारी नीतिगत प्राथमिकता है . इस भागमभाग के दौरान कई बार बस्ती के वाशिन्दे-कुत्तों को पागल कुत्ते की गुस्ताखी का जवाब देने का विचार आता, सो वे अपनी पूरी ताकत से राजनैतिक धार्मिक नारों जैसा कुछ भौंकते हुए उसके पीछे दौड़ जाते थे और उसे सीमा पार खदेड़ कर ही दम लेते थे . कभी कभी ऐसा भी होता था कि हिम्मत करके बस्ती के लोग डंडे लाठी लेकर निकल पड़ते, कुछ लोग पत्थर ले कर पागल कुत्ते को घेर लेते और दिन दहाड़े उसका खत्मा कर डालते . कई दिनों तक इसकी चर्चा चलती, कोई इसे मॉबलीचिंग कहता तो कोई एनकाउंटर बताता . कुछ महीनों के बाद कुत्ता मारने की घटना बहादुरी की एक कहानी बन जाती, जिसे बच्चों को उस समय सुनाया जाता जब बस्ती में लाईट जाने के बाद अँधेरा छा जाता था और वे डरते थे .

                             लेकिन ये पुरानी बात है, बस्तिकाल की . अब कुत्ते इक्कीसवीं सदी में चले गए हैं . लोकतंत्र में उनको भी नागरिक अधिकार मिल जाते हैं जो वोटर नहीं होते हैं या जो वोट नहीं डालते हैं . फिर पार्टी हो या सरकार, दुमवानों ने जो मुकाम हासिल कर लिया है वो अभूतपूर्व है . सुना तो यह भी गया है कि कुत्ते इच्छाधारी होने लगे हैं ! मौके और जरुरत के हिसाब से वे कुछ भी बन जाते हैं . कभी भी गायब हो जाते हैं, कभी प्रकट हो जाते हैं . कुछ भाषण भी देने लगे हैं, छोटे बड़े वादे करते हैं और कभी कभी नोचने खाने के पक्ष में संविधान तक बदलने की कोशिश करते हैं ! देश में गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी जैसी समस्याएं सर उठाये रहती हैं . लेकिन कुत्तों के लिए इन सब बातों का कोई मतलब नहीं होता है. वे अपने मालिक के प्रति वफादार रहते हैं, मालिक ही उनको पालता है, पोसता है और छू लगाता है . एक बार किसी चौकी पर बैठ गए तो आराम से चार पांच बरस मानव हड्डी चूसते चाटते गुजार देते हैं . ज्ञानी ध्यानी विद्वान् महात्मा लोग बताते हैं कि कुत्ता-मुक्त समाज की कल्पना करना बेकार है . वे युधिष्टिर के साथ स्वर्ग तक गए थे, इसी बात की रायल्टी वे आज तक वसूल रहे हैं . वे कहते हैं कि जिन्हें लगता है कि कुत्तों से खतरा है वे इस संवाद को याद रखें – ‘गब्बर से तुम्हें एकही आदमी बचा सकता है ... खुद गब्बर .’

                             तो बात ये थी कि लोगों ने देखा कि इन दिनों कुत्तों की दुम सीधी दिखायी दे रही है ! कुछ ने बताया कि उन्होंने कुत्तों को मुस्कराते हुए भी देखा है . लोग चौंक रहे हैं . डिस्कवरी या एनीमल प्लेनेट वालों ने ऐसा कभी दिखाया तो नहीं ! जल्द ही सीधी दुम वाले हंसते कुत्ते प्रदेश भर में लोगों को दिखने लगे !!

                             आखिर टीवी पर कुत्ता विशेषज्ञ के खुलासे से जनता को तसल्ली हुई . वे बोले लोग चिंता न करें, चुनाव का मौसम है, आचार संहिता लगी हुई है . काटने वालों को मुस्कराना पड़ रहा है . मतगणना के बाद सारी दुमें यथावत अपना काम करने लगेंगी .

 

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गुरुवार, 20 जनवरी 2022

च्यवनप्राश कैसे खाएं

 




                      खाने के तरीके बहुत हैं . छुरी कांटे से, चम्मच से, हाथ से तो सब समझते हैं लेकिन जानकार बताते हैं कि सही समय पर सही चीजों के साथ खाने से ही लाभ मिलता है . वरना लोटाभर घी पी लीजिये, अपना नाम तक भूल जाइयेगा . राम रसिया जी सब जानते हैं . चलता फिरता गूगल हैं राजधानी का . उन्हीं से पूछ लिया कि च्यवनप्राश कैसे खाएं कि सेहत दुरुस्त हो .

                   “खाने के मामले में नियम कायदा बहुत महत्त्व रखता है . नगद खाने से खुद की ही नहीं घर भर की सेहत टनाटन हो जाती है . और घर की भी क्यों कहें देश भर की सेहत का राज यही है . खाओ और खाने दो . भ्रष्टाचार के बारे में मत सोचो . भ्रष्टाचार का दायरा बहुत बड़ा है . झूठ बोलना, झूठे वादे करना और कुर्सी जीत लेना भी भ्रष्टाचार है . जीतने के बाद सेवा के नाम पर मनमानी करना और भी बड़ा भ्रष्टाचार है . सोचो तो बहुत कुछ है नहीं सोचो तो कुछ भी नहीं . नया जमाना है, इसलिए नयी सोच के साथ आगे बढ़ाना चाहिए . और नयी सोच ये हैं कि ज्यादा सोचने का नहीं . उठो सुबह और आइने के सामने खड़े हो कर तीन बार कहो भ्रष्टाचार का लीगल टेंडर जारी है . बस हो गया, मन पवित्र, आत्मा शुद्ध . सरकार कोई भी हो कानून उन्ही के खिलाफ कार्रवाई करता है जिन्हें खाने का सलीका नहीं है . हर सरकार चाहती है कि अधिकारीयों की शिकायत नहीं मिले . शिकायत मिलने पर कार्रवाई भी करना पड़ती है और भ्रष्टाचार के खिलाफ बयान और भाषण भी देना पड़ता है . रिश्वत देना और ले लेना एक कला है . इस काम में सफल लोग कलाकार कहे जाते हैं .”  राम रसिया जी की ट्रेन एक स्टेशन से छूटती है तो दूसरे स्टेशन पर ही रूकती है . लगता है उन्हें खाना ध्यान रहा च्यवनप्राश भूल गए .

                   “राम रसिया जी आप बड़े जानकार हैं, सो हमने तो बस यह जानना चाहा था कि च्यवनप्राश कैसे खाएं ?” उन्हें  मूल प्रश्न याद दिलाया .

                   “अच्छी बात है, ... पहले सुधार किया जाये . च्यवनप्राश खाया नहीं चाटा जाता है . खाना अलग क्रिया है चाटना अलग . जैसे रिश्वत, खायी जाती है चाटी नहीं  जाती है . सिर्फ दिमाग ही ऐसी चीज है जिसे खाया भी जाता है और चाटा भी जाता है . सेहत के लिए लोग धूप भी खाते हैं किन्तु च्यवनप्राश को चाटना अलग बात है .”

                    “चलिए ठीक है . चाट लेंगे . उसमे क्या है .”

                    “कैसे आदमी हो जी,  चाटने को हलके में मत लो, कोई कुछ कह कर वापस चाट ले तो कुर्सी तक हिल जाती है ससुरी . बदनामी होती है अलग से . चाटने का विधान गहरा है . अनुभव से समझ आता है .” वे फिर राजधानी की राजनीति में घुसे .

                    “ठीक है, मानते हैं .  आप ये बताइए कि हम च्यवनप्राश का सेवन कैसे करें ?”

                    “सत्ता जो है स्वर्ण केशर युक्त च्यवनप्राश है, थोड़ा थोड़ा चाटना पड़ता है . एकदम से चाटेंगे तो हजम नहीं होगा . बिना चम्मच के इसे चाटा नहीं जा सकता है . चम्मच हैं ?”

                     “अभी भी सत्ता को क्यों घसीट रहे हैं !! ... हाँ चम्मच हैं दस बारह ... च्यवनप्राश नहीं है . कौन सा ठीक रहेगा ?”

                      “ खुद चम्मच बनोगे तो ज्यादा अच्छा रहेगा . चम्मच में ही पहले च्यवनप्राश चिपकता है . किसी झन्नाट विधायक के साथ लग लो . सबसे अच्छा च्यवनप्राश आजकल विधायक ही है . सावधानी और सलीके से चाटोगे तो पौष्टिकता मिलेगी .”

                     “ भाई साहब मैं आंवले से बने च्यवनप्राश की बात कर रहा हूँ ... आप लेन देन के च्यवनप्राश से बाहर नहीं आ रहे हैं !!”

                      “तो लाइए कहाँ है च्यवनप्राश ? डब्बा सामने होगा तभी न बताया जायेगा कि कैसे खाएं . खाने पीने का ज्ञान मुंह जबानी नहीं मिलता है . ... और हाँ, दो डब्बा लाइए, बताने में एक हमसे जूठा हो जायेगा सो हम ही रख लेंगे . ”

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मंगलवार, 18 जनवरी 2022

गाय-भाई रामभरोसे

 


                                 भक्ति बहुमार्गी है . पत्थर से पहाड़ तक, धरती से आकाश तक किसी का भी भक्त हुआ जा सकता है . राजनितिक दल में पहले भी भक्त हुआ करते थे गाँधी के नेहरू के, खादी पहनते, घरबार छोड़ कर उनके पीछे चल देते थे . समय बदल गया है और भक्तजन भी . भक्त हैं लेकिन अलग किस्म के . इन भक्तों की कई शाखाएं उपशाखाएँ हैं  जैसे अंध भक्त, घनघोर भक्त, प्रशिक्षित भक्त, प्रशिक्षु भक्त, परंपरागत भक्त, नवीन भक्त, जांनिसार भक्त, जानलेवा भक्त वगैरह . दल की पंजी पुस्तिका में सारे भक्त देशभक्त के नाम से दर्ज होते हैं . जो भक्त नहीं वो देशभक्त भी नहीं . देश देशभक्तों का है, शेष को क्या समझना है और उनका क्या करना है यह चिंतन का प्रमुख विषय है . चिंतन के लिए शिविर होते है, जिसमें खास किस्म के विचारों की धारा बहती है . भक्त इस धारावाहिक चिन्तन को विचारधारा कहते हैं . विश्वास किया जाता है कि सुबह शाम तेल पिलाने से लाठी और विचार मजबूत होते हैं .  हप्ते भर के शिक्षण बूस्टर डोज से भक्त सुरक्षित हो जाता है .

                      रामभरोसे सीधा साधा बेरोजगार आदमी है . उसके पिता स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे हैं . गाँधी उसके मन में हैं . घर में एक गाय है जिसके दूघ और उपलों से गुजारा चलता है . कुछ महीनो से रामभरोसे को इस बात से बहुत गुस्सा है कि कोई रोज रात को उसकी गाय का गोबर चुरा ले जाता है . सुबह सुबह कुछ लोग गौमूत्र के लिए लोटा लिए भी खड़े हो जाते हैं ! माहौल ऐसा हो जाता है जो उसे पसंद नहीं है . लेकिन बॉडी लेंग्वेज पर गौर करें तो पता चलेगा कि रामभरोसे की गाय को इसमें बड़ा आनंद आता है . वह भी मूत्र विसर्जन तभी करती है जब दो चार भक्त लोटा आगे करके अम्मा अम्मा न कर लें . शुरू में लोटाधारी रामभरोसे को थेंक्यू कहते थे, लेकिन जबसे वे गाय के साथ आत्मनिर्भर होने लगे हैं तो ये उनकी थेंक्यू-मुक्त सेवा हो गई है . एक दिन रामभरोसे से रहा नहीं गया, पूछ लिया कि आजकल आप लोग थेंक्यू नहीं कहते हैं ? वे बोले – आप तो अपने हैं और अपनों के बीच थेंक्यू कैसा ! गाय जैसी आपकी माता है वैसी हमारी भी . सो आप-हम तो गाय-भाई हुए ना .

                  “ठीक है ठीक है, थेंक्यू भले ही मत कहिये ... पर ... भाई रहने दीजिये .” रामभरोसे ने सोचा मुंडेर का पीपल तुरंत ही उखाड़ देना ठीक है . कल को भाई बनके गाय ही हांक ले गए तो क्या कर लूँगा .

                 वे लोग नहीं माने . समझाया कि आपके देशभक्त पिता ने अपने को झोंक दिया, अब आपकी बारी है . देश वही है लोग बदल गए हैं . बलिदान देने की जरुरत अभी भी है . आप जैसे लोग सोचते समझते हैं, आप आगे नहीं आएंगे तो युवाओं को दिशा कौन देगा ? कल आप दिशा देने कार्यालय पर आइये, बहुत प्रसन्नता होगी .

                “मेरे पास कोई दिशा नहीं है . मैं दिशाहीन बेरोजगार हूँ . और मैं सोचता भी नहीं हूँ . दिमाग बिलकुल काम नहीं करता है . मुझे कुछ समझ में भी नहीं आता है . कभी कभी तो मैं अपना घर तक भूल जाता हूँ . “ रामभरोसे ने अपनी लाचारी बताई .

                     “दिशा नहीं, दिमाग नहीं, सोच समझ नहीं, घर द्वार भूलने वाले ! अरे आप तो हमारे बड़े काम के आदमी हैं ! आपसे बड़ा देशभक्त और कौन हो सकता है . आप कल आइये, आपको दिशा मिलेगी, विचार मिलेगा . क्या पता भविष्य में आपको देश का नेतृत्व करना पड़ जाये . समय का कुछ कहा नहीं जा सकता, पता नहीं कब किसका आ जाये . और दिमाग की फ़िक्र नहीं करें, वो किसी काम का नहीं होता है . जो भी होता है समय होता है . “  पहली बार किसीने इज्जत की . सुन कर रामभरोसे को अच्छा लगा .

                     कल जाऊं या न जाऊं सोचते रामभरोसे ने दिन गुजारा . दूसरे दिन सुबह लोटाधारियों ने अपना नित्यकर्म किया और बोले “चलिए, हम आपको ससम्मान लेने आये हैं .” रामभरोसे अभी तक तय नहीं कर पाया था लेकिन चल दिया . मुकाम पर पहुंचाते ही एक जैसे दिखने वाले कुछ लोगों से परिचय हुआ . ये पथप्रदर्शक जी, ये मार्गदर्शक जी, ये संचालक जी, ये प्रेरक जी, ये निर्देशक जी वगैरह . उन्हें बताया गया कि ये रामभरोसे ‘जी’ हैं .

                       प्रेरक जी बोले –“अच्छा !! आप अकेले नहीं हैं ... यहाँ सब रामभरोसे हैं . नियमित आइये, आपको अच्छा लगेगा .”

                       रामभरोसे चौंका – “सब रामभरोसे हैं !!”

                      “हाँ जी, ... पूरी पार्टी . सांसारिक नाम कुछ भी हो सकता है . किन्तु शीघ्रता मत कीजिये, धीरे धीरे सब समझ जाइएगा . आप राष्ट्रप्रेम की मुख्यधारा में आ चुके हैं .  “ प्रेरक जी ने निर्देशक जी की और देखा .

                       “इन्हें ले जाइये और मन-मस्तिष्क कार्यालय में जमा करवा कर गणवेश दिलवा दीजिये .” निर्देशक जी ने कहा .

 

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मंगलवार, 11 जनवरी 2022

पंद्रह दिनों में फर्राटेदार साहित्यकार बनें


 

विज्ञापन पढ़ते ही नवल नगरपंडे का दिल हूम हूम करने लगा । पंद्रह दिनों में अगर फर्राटेदार साहित्यकार बन लिए तो हाथ पीले और मुंह लाल होने में देर नहीं लगेगी । नीचे ‘फूल’ गैरंटी के साथ लिखा था कि फीस ही नहीं ईनाम भी देंगे आप । साथ ही यह भी लिखा था कि नाम और पहचान गुप्त रखा जाता है । इसीलिए शहर के बड़े साहित्यकारों के नाम यहाँ नहीं दिए जा रहे हैं । कई दाढ़ी वाले कवि और लम्बे कुरते वाले कथाकारों ने हमारे यहाँ से ही प्रशिक्षण लिया है । एक जमाना था जब साहित्यकारों को वक्त जरुरत ही पूछा जाता था । जैसे घोड़ी-बैंड वालों को बरात के समय । लेकिन अब माहौल जो है बदल गया है । बात ये है कि सरकार बदलती है तो माहौल भी आटोमेटिक बदलता है । नया लिखने वाले नयों की भारी मांग है । लोग कागज-कलम दबाये स्टार्ट-अप में दनादन कूद रहे हैं । समय कम है, मौके की गंगा बह रही है तो फटाफट हाथ धो लेने में कोई बुराई नहीं है । नवल नगरपंडे ने सोच लिया कि साहित्यकार बनाते ही सबसे पहले प्रेम कवितायेँ लिखेंगे । सुना है कि प्रेम कवितायेँ लिखने वालों से लड़कियाँ चट्ट से प्रेम करने लगती हैं । दो साल से लगातार रिजेक्ट हो रहे हैं । अगर दो चार कवितायेँ काम कर गयीं तो अपन भी बैंड पर “आज मेरे यार की शादी है” बजवा लेंगे ।

कुछ देर में ही नवल नगरपंडे विज्ञापित दफ्तर में थे । सामने बड़ी सी कुर्सी पर माथे पर चन्दन चुपड़े, साहित्यकार के भेष में एक भारी से सज्जन बैठे हैं वे आचार्य हैं ऐसा सामने रखी पट्टी पर लिखा है । मुस्कराते हुए उन्होंने कहा – बईठिये ।

नवल नगरपंडे मुस्कराने की जवाबी कार्रवाई करते हुए बैठ गए । पूछा – “आचार्य जी, वो पन्द्रा दिनों में साहित्यकार ...?”

“उसी के लिए तो बईठे हैं हम । आज बहुतै जरुरत है साहित्य सेबा की । बहुत बढ़िया कोर्स हय । एक बार ठीक से समझ-सिख जाइये तो आपका ब्यक्तित्व बदल जाएगा । फस्ट डे से ही आपको अपने में बदलाव महसूस होने लगेगा । केतना आदमी लोगों को अभी तक साहित्यकार बना दिए हैं जानेंगे तो फीस नगद देने से अपने को रोक नहीं पाएंगे । बाबा का असिर्बाद है । बनारस सुनैं हैं ना ? बाबा बम भोले, लगा के भांग के गोले । “

“अरे भांग पीना पड़ेगी क्या !?” नवल चौंके ।

“पीजिएगा तब न जानियेगा । पंद्रह दिन में दन्न से साहित्य का भोले भंडारी बन जाईयेगा तभेई मानियेगा । भांग में भासा है, बो का कहते है नई बाली हिंदी । इसमें कबिता है, कहानी है ... सब है जो चहिये । भांग से साधना में जो है मन बहुतै जोर से लगता है । ... पंद्रह दिनों की फीस सात हजार है ... ईनाम अलग ।“

“फीस तो बहुत ज्यादा है ...” नवल ना नुकुर की मुद्रा में आए ।

“ज्यादा नहीं बहुतै कम है ... पूछिये क्यों ... पूछिये पूछिये सरमाइए नहीं ।“

“क्यों ?”

“एक ज़माने में पत्र-पत्रिकाएं मेहनताना देती थीं, प्रकासक रोयल्टी देता था । अब सरम सब जगह से ख़तम हो गयी है । बेसरमी लाइफ स्टाइल बन गई  है । छापते सब हैं देता कोई कुछ नहीं । साहित्य जो है फिरी फुग्गे का खेल हो गया है । बताइए ऐसे में डेढ़-दो लाख का कोर्स सात हजार में मिल रहा है तो समझिये फ्री ही पड़ रहा है । ... चलिए नाम बोला जाये ।“

“नाम नवल नगरपंडे । ... फीस एक साथ देना होगी क्या ?”

“पंद्रह दिनों का कोर्स है तो क्या छः माह का क़िस्त करवाइयेगा !?”

“आचार्य जी एक बार थोड़ा सिलेबस बता देते तो ठीक रहता ।“

“थोड़ा काहे पूरा जानिए, हक्क है आपका । देखिये, पहले दो दिन ब्यक्तित्व बिकास किया जायेगा । मतलब साहित्यकार की तरह कपड़ा-लत्ता पहनना सिखियेगा । चाल-ढाल,  उठना-बइठना, लटका-झटका, बोलना-चुप रहना सब सिखाया जाता हय  ।“

“उसके बाद ?”

“उसके बाद दो दिन कलम-कागज का छेत्र । किताबैं, पत्र-पत्रिकाएं बगैरा देखना खंगालना सिखियेगा । नए पुराने, जिन्दा मुर्दा साहित्यकारों के  बारे में जानकारी हासिल कीजियेगा ।“

“ठीक है, चार दिन हुए । बाकी बचे ग्यारह दिन ?”

“इसके बाद तीन दिन कबिता लिखना सीखिएगा । तुक विज्ञान जानिएगा । तीसरे दिन से कबिता ठोकियेगा दनादन ।“

“आगे के दिनों में ?”

“आगे का तीन दिन कथा-कहानी पर होगा । कहानी का आगापीछा जानिएगा । तमाम कहानीकारों के बारे में बताया जायेगा कि उनकी कैसी कहानियां आपके काम की हैं या नहीं हैं । हमारा कुछ ट्रिक है वह भी बताया जायेगा ।“

“ट्रिक ! ट्रिक मतलब क्या ?!”

“आगे का पांच दिन ट्रिक का ही हय । जैसे कहानी खोजना पुरानी किताबों से, पुरानी पत्रिकाओं से । उसे पढ़ना समझना और फिर अपने हिसाब से बदल लेना ट्रिक है ।“

“अपने हिसाब से कैसे ?”

“अरे भाई कहानी मुंबई की चल रही हो तो आप दिल्ली की कर दो । नायक रूपचंद हो तो राजीव कर दो । मतलब पात्रों और जगह के नाम बदल दो ... कहानी आपकी हुई ।“

“अरे ! ये तो बड़ा असान है !”

“इतना आसान नहीं है जी । कफ़न और पंच परमेश्वर खेंच देंगे तो पकड़े जायेंगे ।“

“शीर्षक भी तो बदलना पड़ेगा ना ?”

“क्या चुराना है, उससे ज्यादा क्या नहीं चुराना है इसी में सारी ट्रिक हय, सारा ज्ञान हय ।  यह सीखना पड़ेगा । और कैसे चुराना है यह भी सिखियेगा । इस बिधा को सोरोगेट साहित्यकार की केटेगिरी मिला है । दूसरों का उठाइए और अपना बना कर बजार में छोड़ दीजिये । चिंता मत कीजिये, ये पुन्न का काम है । अनाथ, आबारा, लाबारिस, बेनाम  रचनाओं को अपना नाम देना बड़ा जिगरे का काम हय ।“

“लोग छापेंगे, पत्र-पत्रिका वाले ?”

“आरे छापेंगे क्यों नहीं !! बिग्यापन के बीच बीच में जो खली अस्थान होता हय उनको भरना तो पड़ता हय ना । भरेंगे । प्यारे मोहन प्यारे का नाम जानते हो ? हमारे ही प्राडक्ट हय । साल में तीन चार अंडे दे देते हय ।“

“अंडे !!”

“किताबे तो अंडा ही होती हय आजकाल । जब तक कबि कुड़क नहीं हो जाए देता ही रहता है । अब देखिये कोई रोजाना आधा दर्जन कबिता लिख्खेगा तो चार किताबें तो निकलेगा ही ।“

“रोज आधा दर्जन कवितायेँ ! ये तो बहुत हैं ।“

“आउट पुट बहुतै अच्छा देता है यहाँ का प्राडक्ट । आप तो पहले दिन से ही इतना निकाल देंगे ... गारंटी है ।“

“आचार्य जी हमारी बहुत इच्छा है कि एक दो किताबें निकल जाये फटाफट । लोकार्पण करवाएं, सभा हो, भीड़-वीड़ हो, हार-फूल, भाषण-वाषण ... वो क्या है कि माँ चाहती है कि घर में बहु आ जाये, अभी शादी नहीं हो पा रही है हमारी ।“

“हो जायेगा । किताब छापने बाले और लोकार्पण करबाने बाले कांट्रेक्टर हैं हमारे टच में । कहिये तो एक-ठो किताब पहले छपबा दें आपकी ... लिखना बाद में सीख लीजियेगा, पहले घोड़ी चढ़ लीजिये ।  कोई दिक्कत नहीं है ... दुनिया बहुतै तेज चल रही है ।“

“कितना लग जायेगा ?”

“पचास साठ हजार तो लगेगा ही । ... किन्तु सस्ता पड़ेगा । ब्याह के खर्चा में जोड़ लीजिये या फिर दहेज़ से जनरेट का लीजियेगा ।“

“जी मैं सोच रहा था कि दहेज़ न भी मिले बस लड़की ही मिल जाये तो ...”

“अजी बिद्वान आदमी हैं, साहित्यकार हैं तो दहेज़ काहे नहीं मिलेगा !! ... दो तीन बरस का ग्रेस पीरियड छोड़ कर बाद में ठाठ से दहेज़ के खिलाफ कबितायें भी लिखियेगा कोई दिक्कत नहीं है ।  दुनिया बहुतै तेज चल रही हय ... देस जो हय बिस्वगुरु होने जा रहा है तो बिद्वानों के दम पर ही ना ? फीस निकाला जाय अब । “

“पहले तो किताब निकालने का कह रहे थे आप ! ...”

“फीस जमा करियेगा तभी न आप को साहित्यकार घोसित किया जा सकता हय । रसीद कटवाइए और यहाँ से अभी के अभी साहित्यकार बनके निकलिएगा  ठप्पे से ।“

नवल नगरपंडे ने फीस जमा कर दी ।

“बधाई हो ... लीजिये आप साहित्यकार हुए इसी बखत से । दो जोड़ी कुरता पजामा खरीद लीजिये, थोड़ा दाढ़ी बढ़ा लीजिये ... बस हो गया । और लड़की ढूंढने में लग जाइये फटाफट ।“

“और किताब ?”

“जैसे ही पचास हजार जमा कीजियेगा आपकी किताब का गर्भाधान संस्कार हो जायेगा ।“

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मंगलवार, 4 जनवरी 2022

हमारी तो मजबूरी है जी !

 



              आप आप हैं जी और हम हम हैं जाहिर है कि आप और हम अलग अलग तो होंगे ही । फिर भी हम भोलेभालों को आपके साथ मिल कर रहना पड़ रहा है ये छोटी बात नहीं है । आप सेक्युलर हैं ये आपकी च्वाइस है, लेकिन हमें तो कट्टर ही रहना पड़ेगा, मजबूरी है हमारी । साफ लिखा है संविधान में कि मुल्क धर्मनिरपेक्ष यानी सेक्युलर होगा । इसका मतलब है कि सरकार खुद धरम-धंधा नहीं करेगी लेकिन दूसरों को करने देगी ।  आप लोग अपने दीन को मानें और दूसरे मजहब की इज्जत करें, दूसरों की भावना और आस्था का ख्याल रखें बस यही जरा सी बात है इसके पीछे  । आपको जान कर ख़ुशी होगी कि हमें बात की बहुत ख़ुशी है कि दीगर लोग, दीगर मजहबी सब सेक्युलर हैं ।  सब जानते हैं कि सेक्युलर लोग बहुत अच्छे होते हैं । ये लोग कानून का सम्मान रखते हैं, अच्छे नागरिक हैं, लेकिन हमारी मज़बूरी है । आप लोग एक सभ्य समाज हो । इसलिए आपके लिए यह बहुत जरुरी है कि हमेशा विनम्र और उदार रहें ।  इस बात को  अनदेखा नहीं करना चाहिए । भोलेभाले लोगों की तो मज़बूरी है लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि बाकी लोग उनकी नकल करें ।  आप हम लोकतान्त्रिक देश में हैं । सबका बराबर का हक़ है । जो आपको मिलेगा वो हमको भी मिलना ही है । उन्नीस-बीस का फर्क रहता है लेकिन उसमें हमें कोई दिक्कत नहीं है । हमारी सबसे बड़ी चिंता संविधान को लेकर है । कुछ लोग अब संविधान की उपेक्षा करने लगे हैं । यह ठीक बात नहीं है । जब उपेक्षा भी आप लोग करने लगोगे तो हम क्या करेंगे ? हमारे लिए तो पहचान का संकट पैदा हो जायेगा ।

                    अच्छे लोगों के अमन पसंद बने रहने में हमारी ख़ुशी इतनी ज्यादा है कि बता नहीं सकते, रियली । लगता नहीं है हमें किसी दूसरी ख़ुशी की जरुरत है । अब यहीं की बात लो, गाँधी जी एक बड़ी हस्ती थे । उन्होंने अहिंसा का रास्ता दिखाया है आपके लिए, तो अच्छा ही होगा । टेकनीकली हमारे लिए भी बहुत अच्छा है । लेकिन देख रहे हैं कि लोग उस पर दिली ऐतबार नहीं रख रहे हैं आजकल । मतलब ये कि मन, वचन और कर्म से लोगों को अहिंसक होना चाहिए, लेकिन कुछ लोग हिंसा में अपनी आस्था व्यक्त करने लगे हैं ! देखिये हमारी तो मजबूरी है लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि हम दूसरों को अमन के लिए प्रोत्साहित भी नहीं करें । कोई एक गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल आगे कर देना बहादुरी की निशानी है, हम मानते हैं  । यकीकन हम भी कर देते दूसरा गाल आगे लेकिन मज़बूरी है, हम लोगों के बीच कोई गाँधी नहीं हुआ । ऊपर वाले की मर्जी है, इसमें कोई क्या कर सकता है !

                      आप लोग नए ज़माने को जल्दी समझ लेते हैं । आपका इंजन आगे लगा हुआ है । हम भोलेभाले, हमारा इंजन पीछे लगा हुआ है । आप लोग आगे देख कर चलते है, हमें चलने के लिए पीछे देखना पड़ता है । हममे बहुत सी खासियत है लेकिन उस पर लोग ध्यान नहीं देते हैं । हम खाना लजीज बनाते हैं, आपको भी अच्छा लगता है । कपड़े सिलने में माहिर हैं, आपकी पहली पसंद हैं ।  संगीत में उस्ताद हैं, लाल किले से गवाये जाते रहे हैं ।  एक प्यारी भाषा है जो जितनी हमारी है उतनी आपकी भी है । इमारतें बनाने और कारीगरी में हुनरमंद हैं, पता ही है आपको । गीत-ग़ज़ल कथा-कहानी के तो सब मुरीद हैं, साहित्य हो या फ़िल्में, आपको सब पसंद है ।  काम कैसा भी हो हम हरफन मौला हैं । लेकिन जब कानून को मानने की बात आती है तब मजबूरी है । आपकी बात अलग है, आप पढ़ेलिखे समझदार हो, अपने आकाओं को नकार भी सकते हो, उनसे बहस कर सकते हो, सवाल कर सकते हो, कोई बात गलत हो तो विरोध भी कर सकते हो लेकिन हमारी मज़बूरी है । अगर हमें जाहिल बनाये रखा गया है, दूसरों से नफरत करना ही सिखाया गया है तो हमारी मज़बूरी का अंदाजा आप लगा सकते हैं । यह बात ठीक है कि सरकार ने बढ़िया स्कूल खोल रखे हैं सबके लिए  ... लेकिन उसमें जब तक हमारे आका नहीं पढ़ लें ... तब तक हमारी मजबूरी है जी !

 

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