सोमवार, 30 मई 2022

उड़ी उड़ी जाये बकरी


 

गरमी का मौसम है, गैलरी में कुछ बर्तन रखे हैं मिट्टी के, पानी भर कर . दिनभर चिड़िया पानी पीने आती हैं , नहाती भी हैं . उन्हें ऐसा करते देखना अच्छा लगता है . अभी एक  दिन जब चिड़ियों को देख रहा था कि आसमान में एक बकरी उड़ती दिखाई दी . विश्वास नहीं हुआ कि जो देख रहा हूँ वो सच है ! बकरी कैसे उड़ सकती है भला ! उड़े तो बकरा उड़े, हक़ है उसका, उड़ सकता है . लेकिन बकरी का उड़ना किसे बर्दाश्त हो सकेगा . हो सकता है कि ये बकरा हो . शिनाख्त करने की कोशिश की ही थी कि वह अचानक गैलारी में उतर आई और पानी पी कर फिर उड़ गयी . यक़ीनन बकरी ही थी .

आप सोचये, यह घटना आपकी आँखों के सामने घटित हुई होती तो ?! काफी देर तक कुछ सूझा नहीं . मन स्थिर हुआ तो दौड़ कर किसी को बता देने की इच्छा से एक चिहुंक सी उठी . लेकिन रुक गया, लोग पागल समझेंगे . फिर सोचा आँखों देखा सच तो सबको मानना ही पड़ेगा . लोग अभी इतने मूर्ख नहीं हो पाए हैं कि सच की तरफ से मुंह फेर कर खड़े हो जाएँ . फिर ये मामला महंगाई बेरोजगारी जैसा भी नहीं है कि दुखता सबको है पर रोता कोई नहीं .  जिक्र उड़ती हुई बकरी का है . त्रिवेदी जी को बताया तो उन्होंने मजाक उड़ाया कि ध्यान से देख लो यार, गैलरी में अंडे भी दे गयी होगी . जब उड़ती है अंडे भी जरुर देती होगी . बकरी के अंडे जब दिखाओगे तो मिडिया हाथोहाथ लेगा और फ्रंट पेज पर छ्पोगे . शुक्ला जी डिस्कवरी विशेषज्ञ हैं बोले बड़ी चीलें अपने पंजों में बकरी को ले कर उड़ती हैं . आपने ध्यान से देखा होता तो पता चल जाता कि ये बकरी भी जरुर किसी चील के पंजे में है . लेकिन आपका क्या दोष, जमाना भी बकरी देखता है चील नहीं . चौहान साहब चौपाटी चेम्पियन हैं . उनकी शंका ये कि बकरी जैसा गैस वाला गुब्बारा हो सकता है . हवा में उड़ता चला आया होगा और आपको लगा होगा कि बकरी है .  

हो सकता है और लोगों ने भी बकरी को उड़ते देखा हो लेकिन मजाक बन जाने के डर से चुप्पी लगाये हों . लेकिन ज्यादातर ने नहीं देखा होगा, यानी उन्हीं की बात मानी जाएगी . बहुमत का जमाना है . सत्य बहुमत से ही हारता है . बहुमत के पास जीत होती है, सत्य भी हो यह जरुरी नहीं है .

दूसरे दिन खुद बकरी का बयान आया . उसने कहा कि मेरे प्यारे देशवासियों, बकरियां अब पंख धारण कर रही हैं . बकरियां भी उड़ेंगी खुले आकाश में . उनके पर क़तर दिए जाते थे . लेकिन अब वो जमाना गया . जो बकरियों को सिर्फ शरीर या गोश्त मानते आ रहे थे उन्हें अपनी धारणा बदलनी होगी .  इस सच को जितनी जल्दी स्वीकार करेंगे उतना अच्छा होगा .

देर नहीं हुई और जवाबी बयान और प्रतिक्रियाएं आना शुरू हो गयी . किसी ने कहा कि बकरियों को परदे में नहीं रखने का परिणाम है ये . अब हर जगह उड़ती फिरेंगी . आज एक ने आसमान देख लिया है तो आगे और भी हैं जो देखेंगी . अगर बकरियां असमान में उड़ने लगेंगीं तो असमान की हैसियत क्या रह जाएगी ! बकरियां बाड़े में बंद ही अच्छी लगती हैं . बकरियों का काम बच्चे पैदा करना और मैं-मैं  करते रहना है, वगैरह .

अभी यह सब चल ही रहा था कि ब्रेकिंग न्यूज चमकी – ‘बकरियों के हैसले बुलंद,  शीघ्र ही चाँद पर जाएँगी’ .

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शुक्रवार, 27 मई 2022

जहाँ पेड़ नहीं है वहाँ विचार भी नहीं है


 




कहते हैं कि सोचना भी एक काम है, और बहुत कठिन काम है. इनदिनों कठिन कामों के लिए  क्रेश कोर्स का चलन है. सुना है अपने वोटर लोग भी सोचने लगे हैं. ये बहुत बुरी बात है, लोकतंत्र के लिए खतरा है.  मैं वोटर हूँ, लेकिन बता दूँ कि मैं नहीं सोचता हूँ, अव्वल तो मुझे सोचने का कभी कोई काम पड़ा ही नहीं .  जब किसी ने कहा कि इस मामले पर सोचो तो सबसे पहले सवाल यही पैदा हुआ कि ‘कैसे’ !! एक अनुभवी ने बताया कि बैठ कर सोचो, गाँधी जी भी बैठ कर ही सोचते थे .  संसद भवन के बाहर उनकी मूर्ति लगी है जिसमें अभी भी वे बैठे सोच रहे हैं. खड़े आदमी के घुटने उसे खड़े रखने में व्यस्त होते हैं. अगर घुटनों में दर्द हो तो सोचने का काम लगभग असंभव है. जिन्हें गठिया हो जाता है वे गठिया के आलावा कुछ नहीं सोच पाते हैं. लेकिन जिनको सर दर्द हो रहा हो उनके साथ ऐसा नहीं है. वे कहीं पेड़ के नीचे बैठते हैं और गर्रर से सोचने लगते है. माना जाता है कि पेड़ आक्सीजन ही नहीं देते विचार भी देते हैं. बड़े बड़े संत-महात्मा पेड़ के नीचे बैठे सोचा करते थे. अब दिक्कत ये हैं कि हमारे यहाँ लोग नये पेड़ लगा ही नहीं रहे हैं. बल्कि आप गवाह हैं इसके कि पुराने पेड़ लगातार बेरहमी से काटे जा रहे हैं. महानगरों में पेड़ नहीं है इसलिए विचार भी नहीं है. एक विचारहीन यांत्रिकता है जिसे लोग जिंदगी कहते हैं. पन्द्रहवें माले की बालकनी से नंदू नीचे भागते दौड़ते लोगों को देखता है और खुश हो जाता है कि वह इस तरक्की का हिस्सा है. वो तो अच्छा है कि कमोड लगे हैं घरों में और कुछ देर मज़बूरी में वहां बैठना ही पड़ता है. जो लोग इस पवित्र स्थान पर फोन ले कर नहीं बैठते हैं वे विचारों की कुछ हेडलाइन झटक लेते  हैं. पुराने जमाने में डूब कर सोचने का मशविरा भी मिल जाया करता था. लेकिन आप बेहतर जानते हैं कि नदी में कूद कूद कर नहाने वाले अब आधी बाल्टी में नहा रहे हैं तो डूबने की गुंजाईश बचती कहाँ है. चुल्लू भर का तो रिवाज ही समझो खत्म ही हो गया है.

सुना है सोचने के कुछ कायदे भी हैं. जैसे कवि, शायर या कलाकार टाईप के लोग प्रायः गर्दन को ऊंचा करके सोचते हैं. ऐसे में कोई कोई ठोड़ी के नीचे हाथ रख ले तो माना जाता है कि गंभीर चिंतन हो रहा है. कई बार बड़े नेता भी इसी तरह सोचते फोटो में दिखाई देते हैं. इससे पढेलिखे वोटरों को एक अच्छा सन्देश जाता है. हालाँकि बाकी  लोगों की यह धारणा बनी रहती है कि नेता लोग बड़े वाले कलाकार होते हैं. कलाकार वह होता है जो करता हुआ तो दीखता है लेकिन वास्तव में वो नहीं कर रहा होता है . जो वह वास्तव में करता है वो किसी को नहीं दीखता है. सीबीआई को भी नहीं. जब कुछ सोचने की गुन्जाइश ही नहीं है तो जनता भी अब कलाकारों से काम चला लेती है. वे जानती है कि ये अलीबाबा राजनीति में आया है तो किसी न किसी दरवाजे पर जा कर खुल जा सिम सिम जरुर बोलेगा. ये अकेले नहीं, इनके साथ चालीस चालीस और भी हैं. अगर इन्हें नेता मानेगा तो दुखी होगा, कलाकार मानेगा तो फिल्म या नाटक का मजा मिलेगा. लगता है आप सोचने लग पड़े हैं, सोचिये मत, मस्त रहिये.

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हरी हरी मछली कितना पानी ?


 


                           आदमी को पैदा होने के बाद अपने यहाँ वोटर बनाने में अठ्ठारह साल लग जाते हैं । वो समझता है कि बालिग हुआ अब शादी-वादी करेगा, व्यवस्था मानती है कि वोट हुआ अपने काम आयेगा । हर पाँच साल में, या यों कहें मौके मौके पर वोट को लगता है कि वही मालिक है मुल्क का । इस बात का असर इतना कि उसका माथा गरम और चाल टेढ़ी हो जाती है । आँखों में शाही डोरे से उतार आते हैं । कुछ डाक्टर इसे सीजनल बुखार बता कर गोलियां वगैरह देकर फारिग हो जाते हैं । लेकिन अनुभवी डाक्टर बकायदा टेस्ट आदि करवा कर वोटर की जान को और कीमती बनाते हैं । इधर लोकतंत्र के पक्के खिलाड़ी जानते हैं कि वोटों को भविष्य की चिंता सताती है इसलिए वोटिंग से पहले उसे पिलाना जरुरी होता है । इधर वोट बिना कुछ किए सुखी होना चाहते हैं, भले ही हफ्ता पंद्रह दिनों के लिए ही क्यों न हो । हालांकि सुख एक भ्रम है । लेकिन विद्वान यह भी कह गए हैं कि भ्रम ही है जिससे लोकतन्त्र को प्राणवायु मिलती है । इस सब के बीच अच्छी बात यह है कि वोटर भुलक्कड़ भी है । कल उसकी इज्जत से कौन खेल गया यह उसे याद नहीं रहता है । थोड़ा बहुत हो भी तो भूलाने के लिए प्रायः एक बोतल काफी होती है ।

मैं भी नियमानुसार एक वोट हूँ । किसी ने फुसफुसा कर कहा कि तुम्हें एक ईमानदार वोट बनना चाहिए । लोकतन्त्र एक बड़े दिल की व्यवस्था है । इसमें नेता बेईमान, लुच्चे, लफंगे, झूठे, मक्कार, अनैतिक, अपराधी हों तो भी चलेगा लेकिन वोटर सच्चा, सीधा, धैर्यवान और सबसे बड़ी बात ईमानदार होना जरूरी है । मैंने पूछा वोटर की ईमानदारी के मायने  क्या हैं ? वे बोले यह नेचर का मामला है । ईश्वर ने दिन और रात बनाए, फूल और कांटे बनाए, इसी तरह नेता और वोटर हैं । दो में से एक का ईमानदार होना प्रकृतिक रूप से जरूरी है । चाहो तो इसे ईश्वर की मर्जी कह लो । अच्छा वोटर वह होता है जिसे बार बार ठगने के बाद भी ठगे जाने का दुख नहीं होता है । कबीर इस बात को पहले ही समझा गए हैं –“कबीरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोय ; आप ठगाए सुख उपजै, और ठगै दुख होए” । आप जानते हैं कबीर जनता के कवि थे नेताओं के नहीं । हमारी सरकारें चाहे वो किसी भी पार्टी की हों, सबका उद्देश्य जनता को कबीर से जोड़ने का रहा है । आगे संत कह गए हैं – “सांई इतना दीजिए जा में कुटुंब समय ; मैं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाए” । यहाँ सांई सरकार है  और जानती है कि वोटर का कुटुंब भी वोटर है और आने वाला अतिथि भी वोटर है । और संत की मंशा है कि इन्हें इतना भर मिलता रहे कि सारे बने रहें बस । ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्‍यासंसार केवल छाया है, भ्रम है । वोटर हरी मछली है लोकतन्त्र के तालाब  में । दो चार साल में एक बार पूछ लो कि ‘हरी हरी मछली कितना पानी ?’ बस बहुत हुआ, ड्यूटी ख़त्म .  एक और संत कह गए हैं “क्या ले कर तू आया जग में और क्या ले कर जाएगा ; सोच समझ ले मन मूरख अंत में पछताएगा” । वोटर सरकार की न सुनें लेकिन संतों की तो सुनते ही हैं । भजन, कीर्तन, भंडारा, कथा, प्रवचन ये सब आदमी को अच्छा वोटर बनाते हैं . कल को कोई, यानी  इतिहास, यह न कहे कि सरकारों को उनकी ज़िम्मेदारी का अहसास नहीं था । चिंता और चिंतन छोडो, खाओ पियो और कीर्तन करो .

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गुरुवार, 26 मई 2022

मच्छरों का चिंतन शिविर


 

                       मच्छरदानी समझते हैं ना आप ?  छोटे से तम्बू जैसी, जलीदार कपड़े की होती है, बिस्तर पर परदे सी लटकी हुई . मच्छर जब आपसे मिलने आते हैं तो सबसे पहले उनका पाला इसी से पड़ता है .  इसे प्रायः रात को सोते समय ताना जाता है . अगर कोई दिन में भी ताने तो मक्खियों से बचाव हो सकता है लेकिन तब दिक्कत ये होगी कि इसे मक्खीदानी कहना पड़ेगा . हालाँकि नाम बदलने में क्या है आजकल ! फट से बदला जा सकता है . फिर भी सोचना इसलिए पड़ता है कि  इससे मच्छरों को बुरा लग सकता है . अपने यहाँ मच्छर भले ही वोटर न हों पर वोटर मच्छर होते हैं. इसी रिश्ते से हर कुर्सीदार और कुर्सीकामी को उनका ख्याल रखना पड़ता है . मच्छरों की कई जातियां होती हैं . जैसे काटने वाले, गुनगुनाने वाले, चूसने वाले, खून पीने वाले, शराब पीने वाले, गटर वाले, ड्रेनेज वाले, मलेरिया वाले, डेंगू वाले, दिन वाले, रात वाले, और भी कई तरह के . कुछ मित्रनुमा भी होते हैं जो ‘न जाने वाले अतिथि’ को बाहर का रास्ता दिखाने में मदद करते हैं . लेकिन मच्छर गुलाम नहीं होते हैं . उन्हें आज़ादी पसंद है . भले ही मर जायेंगे पर खून पिए बगैर नहीं मानेंगे . मच्छर गड्ढों में, अँधेरी, गीली जगहों पर रहते हैं और थोक में लार्वा पैदा करते हैं . लोगों को डराते हैं कि एक दिन पूरी दुनिया मच्छरों से भर जाएगी . लेकिन सवाल ये भी है कि जब सारे मच्छर होंगे तो ये खून किसका पियेंगे ! इसका जवाब उनके पास नहीं है .

                            खैर, बहुत पहले हम मच्छरदानी नहीं लगाते थे . मच्छर भी कम ही थे, जितने घर के अन्दर थे उतने ही . अब तो घुसपैठ होने लगी है, पैदा कहीं और होते हैं खून चूसने कहीं घुस आते हैं . सच तो यह है कि हमारे पास मच्छरदानी थी ही नहीं . मतलब बाज़ार में तो थी, लेकिन हमारे पास नहीं थी . इसे यों समझिये कि कानून तो था किताबों में लेकिन उसका इस्तेमाल नहीं किया जाता था . उस समय के मच्छर भी गाँधी, अहिंसा और सेक्युलर का पोस्टर ले कर खून चूसने  निकलते थे और कटाने से पहले कान में ‘वैष्णव जन तो तेने कहिये जो पीर परायी जाने रे’ गुनगुना देते थे . आदमी भजन पूरा करने के चक्कर में लग जाता और मच्छर अपना काम पूरा करने में . भजन भक्ति के साये में कब रक्तदान  हो गया आदमी को पता ही नहीं चलता था . आज भी यही है, ध्यान नहीं दो तो मच्छर कब खून चूस जाते हैं पता ही नहीं चलता है .

                             पिछले दिनों मच्छरों का चिंतन शिविर चल रहा था .  उनकी कुछ मांगें तय हुई . पहली मांग तो यही थी कि मच्छर मारने वाले प्रोडक्ट से बाज़ार भरा पड़ा है . इस पर प्रतिबंध होना चाहिए . अहिंसावादी भी मच्छर मारने के मामले में बहादुर हो रहे हैं, इन पर रोक लगे . कुछ शहरों में साफ सफाई की मुहीम चलाई जा रही है , ये मच्छरों के खिलाफ षडयंत्र है . मच्छरदानी के प्रयोग को पाप घोषित किया जाए . यदि इन मांगों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया तो मच्छर अपने अलग राज्य ‘मच्छारिस्तान’ के लिए आन्दोलन शुरू कर देंगे . मच्छर जानते हैं कि किसी सरकार के पास मच्छरों की रोकथाम का कोई उपाय नहीं है .

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सोमवार, 23 मई 2022

फूलों पर लिखो यार


 


“आप फूलों पर लिखा करो यार . सिर्फ फूलों पर .” आते ही उन्होंने आदेश सा दिया .

“फूलों पर क्यों !?” मैं चौंका .

“क्योंकि फूल भी हैं संसार में . खिल रहे हैं चारों तरफ . आँखें खोल कर देखो . दिनरात सरकार पर ही भिड़े रहोगे तो फूलों पर कौन लिखेगा ? कवियों और लेखकों को प्रकृति प्रेमी ही होना चाहिए .” उनका स्वर शिकायती था, लगा कुछ नाराज हैं .

“ऐसा है भाई जी, लेखक वो लिखता है जो उसे प्राथमिक रूप से जरुरी लगता है . घर में बिजली तो है आपके यहाँ . अगर कहीं शार्ट सर्किट हो, जलने की गंध आ रही हो तो मेन स्विच की और ही दौड़ोगे ना ? ... अव्यवस्था की गौमुखी जिधर होगी लेखक उधर ही जायेगा . ” उन्हें समझाने की कोशिश की .

“अपने को सुधारो जरा . खुद की नज़रों में खोट हो तो हर तरफ बुरा बुरा ही दिखता है . अच्छी नजरें वो होती हैं जो कीचड़ में भी कमल को ही देखती हैं, समझे . कबीर कह गए हैं –  ‘साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय ; सार सार को गहि रहे, थोथा देई उड़ाए’ . जो बुरा बुरा है वही थोथा है, उस पर ध्यान मत दो . जो बुरा नहीं देखता वही साधु है . साधु हर जगह पूज्य है, हर राज्य में पूज्य है . कुछ साधु सीधे भजन, पूजन, आरती, कीर्तन, गान आदि करते हैं, बहुत से लोग यह काम लिख कर करते हैं . हम उन्हें उन्हें साधु-लेखक मानते हैं और मनवाते भी हैं . अच्छे साधु-लेखकों को राज्य पुरस्कार, सम्मान, पदवी वगैरह दे कर उनके कर्म को सम्मति और प्रोत्साहन देता है . अगर लेने वाला डिफाल्टर न हो तो देने में किसी दाता को कोई दिक्कत नहीं होती है .” उन्होंने अपनी समझ बताई .

“पुरस्कार, सम्मान अच्छे हैं लेकिन जरुरी नहीं कि ...”

“देखो, तुम्हें ऐसे कुछ नहीं मिलेगा . तुम फूलों पर कुछ लिखो और फिर देखो क्या क्या होता है ! फूलों पर लिखा साहित्य एसिडिटी की गोली की तरह होता है . पिछला एसिड न्यूट्रल करने का और कोई उपाय नहीं है . प्रकृति कवि बनो, नीला आसमान, मादक पवन, चहचहाते पंछी देखो . तितलियों पर लिखो,  फूलों पर कलम चलाओ ताकि कल तुम्हारे आंगन में फूल खिलें और दीवारों पर प्रशस्ति-पत्रों की अंगूरी झालर टंकी हो . ... अमलतास फूल रहा है इन दिनों, उस पर लिखो . ” वे बोले .

“अमलतास पर तो ... मुश्किल है . मैंने तो अभी तक ठीक से देखा भी नहीं है . आप कहें तो गुलाब पर लिखूं ?”

“ठीक है , गुलाब पर लिखो, ... लेकिन लाल गुलाब पर मत लिखना.  नेहरू ने सीने पर लगा लगा कर गलत सन्देश दिया था और नतीजे में कम्युनिस्ट ऐसे सर पर चढ़ गए कि आज तक उतरना मुश्किल है .” उन्होंने उंगली उठा कर कड़ी हिदायत के साथ कहा .

“लेकिन इन दिनों तो कम्युनिस्ट सोये हुए हैं . कहीं कोई हलचल नहीं . इतनी भरपल्ले महंगाई में भी जो नहीं उठे वो तो पूंजीवाद के समर्थक हुए ना . फिर उनसे डर कैसा ?” हमने परोक्ष रूप से लाल गुलाब पर लिखने की मंशा जाहिर की .

“ डर वर कुछ नहीं, गुलाब से लोग लाल गुलाब और शेरवानी ही समझते हैं . तुम तो अमलतास पर लिखो .” वे नहीं माने .

“ गुलमोहर पर लिखूं, वह भी खूब फूल रहा है इनदिनों ?” अब हमने भी मजाक का मूड बनाया .

“कहा ना लाल नहीं, बड़ी मुश्किल से लोग लाल झंडा भूले हैं . चलो गेंदे पर लिखो ... गेंदा तो जनम से ही देखते आ रहे हो . गेंदा ठीक है ? ”

“गेंदे पर कविता निकलेगी नहीं , आप कहें तो मोगरा चमेली ...”

“निकलेगी कैसे नहीं ! वो कितना अच्छा लिखा है किसी ने ‘फूल गेंदवा न मारो, लगती करजवा में तीर’, एक और भी है ‘ससुराल गेंदा फूल’  . साहित्य को मोगरा चमेली वाली  कोठागिरी से बाहर निकालो . जरा सोचो और फटाफट लिख डालो ‘गेंदा खण्डकाव्य’ और चार महीने बाद सम्मनित होने के लिए तैयार रहो .

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शनिवार, 14 मई 2022

महंगाई एक भ्रम है






“देखो संसार में महंगा सस्ता कुछ नहीं होता है . महंगाई सिर्फ एक भ्रम है .  फिर भी  अगर तुमको लगता है कि दाल महँगी हो गई है तो पानी थोड़ा ज्यादा डाल दिया करो . अभी पानी तो सस्ता है ना .” वीर सिंह ने पत्नी को समझाया .

“मिर्च-मसाला, प्याज-लहसुन, तेल सभी तो महंगा है ! इनकी जगह क्या डालूं ... धूल !”

“ अरे तो कौन सा पहाड़ टूट गया है जो नाराज हो रही हो ! सादी दाल खायेंगे. हमारी दादी कहा करती थी कि सादी और पतली दाल स्वास्थ्य के लिया बढ़िया होती है . बीमार भी पड़े पड़े पचा लेता है . सादी दाल ही बना लिया करो यों भी हम लोगों का पेट पिछली सरकारों का सस्ता सस्ता खा कर ख़राब हो गया है . आम आदमी हैं, हमें जीने के लिए खाना चाहिए . खाने के लिए जीने का अधिकार उनका है जिनके जेब में दो चार एमपी पड़े होते हैं . “

“लेकिन गैस का क्या !? ...सिलेंडर हजार से उप्पर जा कर भी उछलूँ उछलूँ कर रहा है . “ वे बोलीं .

“थोड़ी सी समझदारी बताओ भागवान . थोड़े दिनों की बात है दो हजार पैंतीस तक सब ठीक हो जायेगा . दिन जाते कोई देर लगती है . भामाशाह ने महाराणा प्रताप के सामने सोने चांदी के आभूषण ला कर रख दिए थे . बताओ आभूषण क्या वे पहनते थे ? घर की महिलाएं पहनती थीं, उन्होंने दिए थे . आज समय विकट है लेकिन कोई भामाशाह महाराणा के चरणों में कुछ रख नहीं रहा है बल्कि अपने आभूषण दुगने चौगुने कर रहा है .”

“तो पेट्रोल-डीजल, गैस से इसका क्या मतलब है !”

“वित्तमंत्री को किसी ने बताया कि सीधी अंगुली से घी नहीं निकलता है सो उस बेचारे ने टेक्स लगाने पड़ रहे हैं . देखो, महंगाई को लेकर शोक या क्रोध करने का समय नहीं है . देश जनसँख्या पीड़ित भी है . लाख से ज्यादा पैदा हो रहे हैं रोजाना . महंगाई जनसँख्या नियंत्रण का एक उपाय भी है . हमें इसमे सहयोग करना चाहिए .”

“दो बच्चे हैं हमारे ... ये सहयोग कम है क्या ?! ... कम और ज्यादा बच्चे वालों के लिए एक ही महंगाई !! ये तो अन्याय है .”

“सोचो कल हम विश्वगुरु होंगे, महाशक्ति बनेंगे, जहाँ भी खोदेंगे वहां पानी, तेल और  मूर्तियाँ मिलेंगी, दुनिया हमें झुक कर सलाम करेगी, हम ... हम ... हम ...”

“घर मुझे चलाना होता है . जब भी मैं अपनी समस्या बताती हूँ तुम बौद्धिक देने लगते हो !! महंगाई का तुम्हें दर्द नहीं है तो कम से कम कहीं ओवर टाइम करो, कोई एक्स्ट्रा काम करो, चार पैसे लाओ ताकि दाल को पानी होने से बचाऊँ तो सही . पनीली दाल से बच्चों को देश का भविष्य कैसे बना पाएंगे !?”

“अरे देवी ! ... एक तो तुम सोचती बहुत हो . सरकार को पता चल गया तो देशद्रोह में पकड़ी जाओगी . देखो, सोचना ही है तो सही दिशा में सोचो . अतीत का सोचो, कितना गौरवशाली था . वर्तमान का सोचो कि कितना खतरा है अन्दर बाहर से . भविष्य में सिर्फ डर है लेकिन उस डर को जिन्दा रखो क्यों की डर के आगे पार्टी की जीत है, ... समझी ?”

“और महंगाई ?!”

“कहा ना शुरू में ... महंगाई एक भ्रम है .”

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मंगलवार, 10 मई 2022

आज गरमी बहुत है भाई !


 



‘बहुत गरमी है भाई !’ , आते ही हरगोविंद जी बोले . मैंने सहमति जताई, आप सही कह रहे हैं, आज बहुत गरमी है . गरमी एक ऐसी चीज है जिससे हर कोई सहमति जता सकता है . वरना तो आजकल माहौल ऐसा है कि किसी भी मुद्दे पर सहमत होना बड़ा मुश्किल है . जहाँ तक हरगोविंद जी का सवाल है उनसे प्रायः  सब सहमत हो कर सिर हिला देते हैं . कुछ तो उनकी बड़ी बड़ी मूंछों का मान रखते हैं जो हाल के वर्षों में उन्होंने पालपोस ली हैं . और हम जैसे नाचीज तो उनसे कम उनकी लाठी को देखते हुए बात करते हैं . वे पुलिस विभाग से रिटायर हुए जवान हैं . सो लाठी, मूंछों और उनका लंबा संग-साथ है . सुना है वे दोनों को तेल पिलाते हैं सुबह शाम, कहते हैं कि इससे दोनों असरदार बनी रहती हैं . दरअसल लाठी उनके व्यक्तित्व के साथ जुड़ गयी है, जैसी गाँधी जी की प्रर्तिमाओं में हम उन्हें लाठी के साथ देखते हैं . हरगोविंद जी की मूंछे और लाठी परस्पर पूरक भी हैं . लाठी के बिना मूंछ और मूंछों के बिना लाठी जैसे नाड़ा और पजामा . दोनों मिल कर हरगोविंद जी को वो बना देते हैं जो वे नहीं हैं . पुलिस विभाग ने भी दरअसल मूंछों और लाठी को ही रिटायर किया है, हरगोविंद जी तो केयर टेकर हैं सो साथ ही बाहर आ गए . वे फिर बोले –‘इस बार गरमी कुछ ज्यादा ही पड़ रही है’ . हमने समर्थन किया – ‘आप ठीक कह रहे हैं, वातावरण बहुत गरम है’.

“वातावरण गरम है मतलब !?” वे बोले .

“मतलब वातावरण में बहुत गरमी है .” हमने सफाई दी .

“आपकी बातों में सरकार के विरोध की बू आ रही है ! ‘वातावरण’ कहने की क्या जरुरत है ? ‘बहुत गरमी है ‘ इतना कहना पर्याप्त नहीं होता क्या !?” उन्होंने मूंछों और लाठी पर हाथ फेरते हुए कहा . 

“वातावरण का कोई खास मतलब नहीं है, वैसे ही कह दिया कि बात प्रभावी हो जाये”.

“शब्दों की यह फिजूलखर्ची आपको किसी दिन महँगी पड़ सकती है . वातावरण एक आपत्तिजनक शब्द है, समझते  नहीं हो क्या ?!”

“वातावरण में अपत्तिजनक क्या हो सकता है !! न यह साम्प्रदायिकता बढ़ने वाला शब्द है न ही किसी का अपमान करने वाला .”

“है क्यों नहीं ! ये सांप्रदायिक भी है और अपमानजनक भी . ठीक से सोच कर देखिये .”

“अब इतनी बारिकी से कौन सोचता है हरगोविंद जी ! किसके पास इतना वक्त है .”

“किसी गलत फहमी में मत रहिये, जिन पर जिम्मेदारी है देश की उन्हें सब सोचना पड़ता है . वातावरण के लिए करोड़ों खर्चने होते हैं, जगह जगह जा कर भाइयो-बहनो कहना पड़ता है तब कहीं जा कर एक वातावरण बनता है . और आप हैं कि बातों बातों में ‘वातावरण’ ऐसे उछाल देते हैं जैसे वह रास्ते में पड़ी कोल्ड ड्रिंक की खाली बोतल हो ! अगर पुलिस चाहे तो मामला देशद्रोह का बन सकता है .”

“अब आप तो रिटायर हो गए हैं ... दूसरा कोई तो है नहीं यहाँ .”

“विभाग ने वर्दी ले ली है लेकिन मूंछे और लाठी हमारे पास है. ...पुलिस न हो पर मोराल पुलिस हमारे साथ है ...  तो अपने को सही कीजिये, कहिये ‘आज गरमी बहुत है और गरमी के सिवा कुछ नहीं है’. “

“आप सही कह रहे हैं हरगोविंद जी, आज गरमी बहुत है गरमी के सिवा कुछ नहीं है’.”

 

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शुक्रवार, 6 मई 2022

बौनों के बीच गुलिवर


 समुद्र तट पर अजनबी को देख कर लोग इकठ्ठा हो गए, पूछा – “तुम कौन हो जी !? और यहाँ आये कैसे !?” 

“मैं गुलिवर हूँ बौने मित्रों, पिछली बार की तरह यात्रा पर निकला था लेकिन तूफान में मेरा जहाज फँस कर टूट गया . मैं बड़ी मुश्किल से तैर कर यहाँ पहुँचा हूँ .” गुलिवर ने बताया . 

सुन कर बौने एक दूसरे को देखने लगे . उन्हें याद आया कि ऐसा ही कुछ पहले भी हुआ था . पुरखों से सुना था कि थका यात्री गुलिवर जब सो रहा था तो बौनों ने उसे कैद भी कर लिया था . एक बौना मुस्करा कर बोला – “ आप हमारे अतिथि हैं जरुर थक गए होंगे, सो जाइये ना .” 

“थका तो हूँ पर सोऊँगा नहीं . पिछली बार थक कर मैं सो गया था तब उस समय के बौनों ने मुझे रस्सियों से बांध लिया था . बहुत दिनों तक उनकी कैद में रहना पड़ा था .” गुलिवर ने कारण बताया तो बौने समझ गए कि ये वही आदमी है . बोले – “ आप डरो मत, अब यहाँ किसी को बाँधा या कैद नहीं किया जाता है, मोबलीचिंग करते हैं .”

“मोबलीचिंग ! ये क्या नया कानून है ?”

        “ये कानून से ऊपर एकता का दिव्य कर्म है .  मतलब सब इकठ्ठा हो कर, झुण्ड बना कर सेवा कर देते हैं और सामने वाले का पुराना संस्कार निकाल कर नया डालते हैं .... “

“झुण्ड बना कर क्यों करते हैं ... सेवा !!” गुलिवर चौंका .

“बौने हैं ना, ऊँचाई कम है . तुमने सुना होगा कि लकड़बग्घे झुण्ड बना कर प्रयास करते हैं तो बड़े शेर को भी चट कर जाते हैं .”

“ओह ! आप लोगों की ऊँचाई कैसे कम हो गयी !!” गुलिवर डर गया लेकिन बातों में उलझा कर कोई रास्ता निकलना था उसे . 

“महंगाई और टेक्स बहुत है,  बोझ से दब कर छोटे होते जा रहे हैं . राजा चाहता है कि उसकी प्रजा बेक्टेरिया की तरह हो जाये तो पूरी दुनिया पर राज करेंगे .  उसका हुकम है कि एकता रखो, संगठन में शक्ति है, पढ़लिख कर ऊँचाई प्राप्त करना मूर्खता है , शिक्षा दूसरों की गुलामी का औजार है . इसलिए हमारे बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं संगठन में जाते हैं .”

“फिर भी यह समझ में नहीं आया कि शरीर इतना बौना कैसे हो गया !? क्या महंगाई के कारण पेट नहीं भर पाता है आप लोगों का ?” गुलिवर ने सहानुभूति पैदा करना चाही .  

“महंगाई की कोई बात नहीं है जी, अब तो लाल झंडे वाले भी चुप हैं तो टापू के सामने महंगाई कोई मुद्दा ही नहीं है . दरअसल राजा साहब चाहते हैं कि प्रजा स्वस्थ और सक्रीय रहे  . सक्रीय रहने के लिए भूखा रहना जरुरी है .  भूखे अपने लक्ष पर पूरी ताकत से टूट पड़ते हैं. जो लोग खाए अघाए होते हैं वो आलसी-लद्दड़ टापू पर बोझ होते हैं . अगर वे टेक्स-पेयर  नहीं होते तो बौनों ने अब तक उनका मोबलीचिंग कर दिया होता . टापू को विकास की तेज दर हासिल करना है उसके लिए धन भी चाहिए . उस दिन का इंतजार है जब पूरा टापू भूखों और बौनों से भर जायेगा . इसके  बाद हमारे राजा विश्वगुरु बन जायेंगे .” 

“क्या टापू में इतने बौनें हैं की राजा विश्वगुरु बन पायें ? .”

“सच बात ये है कि टापू जनसँख्या वृद्धि का शिकार है . बौनों के पेट आधे या चौथाई हो जाते हैं . इस तरह पचास लोगों के भोजन में सवा सौ लोग पाले जा सकते हैं . हमारा राजा बहुत दूर की सोचता है .” एक बौना बोला .

दूसरे बौने ने और खुलासा किया – “ पूरी जनसँख्या अगर बौनी हो गयी तो अनाज बचेगा, भूखे काम भी खूब करते हैं,  जनसँख्या नियंत्रण की गति भी बढ़ेगी और संगठन को शक्ति भी मिलेगी .” 

“कितना कीमती विचार है !! फिर तो राजा को महंगाई को लेकर कुछ ठोस सोचना चाहिए .”  गुलिवर ने कहा . 

 “राजा सोचते हैं, उनके मन की बात बौने जानते हैं . वे वैज्ञानिकों से भी बड़े वैज्ञानिक हैं . जिस तरह धूप से सोलर-इनर्जी निकलती है उसी तरह भूख से बाटम-इनर्जी निकलती है . टापू पर बाहरी लोग घुसे चले आते हैं . ....”

“बाहरी लोग कौन ?!”

“जैसे एलियन, जैसे इस वक्त तुम ... इनसे लड़ने के लिए बौनों में टापू प्रेम और मार मिटा देने का जज्बा होना चाहिए . भूखों में जीवन का कोई आकर्षण नहीं होता है इसलिए आधी रात को भी मरने मारने को तैयार रहते हैं .”

“लेकिन पिछली बार जब मैं आया था तो टापू के लोगों ने बहुत प्यार किया था मुझे .  खूब खिलाया पिलाया था ...” 

“टापू वही है, बौने वही हैं, सेना भी वही है . लेकिन राजा बदल गया है . गुलिवर ... तुम भले ही जाग रहे हो पर अब तीसरी यात्रा तुम्हारे भाग्य में नहीं होगी .” कह कर बौनों की भीड़ गुलिवर पर टूट पड़ी .


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