कहते हैं कि सोचना भी एक
काम है, और बहुत कठिन काम है. इनदिनों कठिन कामों के लिए क्रेश कोर्स का चलन है. सुना है अपने वोटर लोग
भी सोचने लगे हैं. ये बहुत बुरी
बात है, लोकतंत्र
के लिए खतरा है. मैं वोटर हूँ, लेकिन बता
दूँ कि मैं नहीं सोचता हूँ, अव्वल तो मुझे सोचने का कभी कोई काम पड़ा ही नहीं
. जब किसी ने कहा कि इस मामले पर सोचो तो
सबसे पहले सवाल यही पैदा हुआ कि ‘कैसे’ !! एक अनुभवी ने बताया कि बैठ कर सोचो,
गाँधी जी भी बैठ कर ही सोचते थे . संसद
भवन के बाहर उनकी मूर्ति लगी है जिसमें अभी भी वे बैठे सोच रहे हैं. खड़े आदमी के
घुटने उसे खड़े रखने में व्यस्त होते हैं. अगर घुटनों में दर्द हो तो सोचने का काम
लगभग असंभव है. जिन्हें गठिया हो जाता है वे गठिया के आलावा कुछ नहीं सोच पाते
हैं. लेकिन जिनको सर दर्द हो रहा हो उनके साथ ऐसा नहीं है. वे कहीं पेड़ के नीचे
बैठते हैं और गर्रर से सोचने लगते है. माना जाता है कि पेड़ आक्सीजन ही नहीं देते
विचार भी देते हैं. बड़े बड़े संत-महात्मा पेड़ के नीचे बैठे सोचा करते थे. अब दिक्कत
ये हैं कि हमारे यहाँ लोग नये पेड़ लगा ही नहीं रहे हैं. बल्कि आप गवाह हैं इसके कि
पुराने पेड़ लगातार बेरहमी से काटे जा रहे हैं. महानगरों में पेड़ नहीं है इसलिए
विचार भी नहीं है. एक विचारहीन यांत्रिकता है जिसे लोग जिंदगी कहते हैं. पन्द्रहवें
माले की बालकनी से नंदू नीचे भागते दौड़ते लोगों को देखता है और खुश हो जाता है कि
वह इस तरक्की का हिस्सा है. वो तो अच्छा है कि कमोड लगे हैं घरों में और कुछ देर
मज़बूरी में वहां बैठना ही पड़ता है. जो लोग इस पवित्र स्थान पर फोन ले कर नहीं
बैठते हैं वे विचारों की कुछ हेडलाइन झटक लेते
हैं. पुराने जमाने में डूब कर सोचने का मशविरा भी मिल जाया करता था. लेकिन
आप बेहतर जानते हैं कि नदी में कूद कूद कर नहाने वाले अब आधी बाल्टी में नहा रहे
हैं तो डूबने की गुंजाईश बचती कहाँ है. चुल्लू भर का तो रिवाज ही समझो खत्म ही हो गया
है.
सुना है सोचने के कुछ
कायदे भी हैं. जैसे कवि, शायर या कलाकार टाईप के लोग प्रायः गर्दन को ऊंचा करके
सोचते हैं. ऐसे में कोई कोई ठोड़ी के नीचे हाथ रख ले तो माना जाता है कि गंभीर
चिंतन हो रहा है. कई बार बड़े नेता भी इसी तरह सोचते फोटो में दिखाई देते हैं. इससे
पढेलिखे वोटरों को एक अच्छा सन्देश जाता है. हालाँकि बाकी लोगों की यह धारणा बनी रहती है कि नेता लोग बड़े
वाले कलाकार होते हैं. कलाकार वह होता है जो करता हुआ तो दीखता है लेकिन वास्तव
में वो नहीं कर रहा होता है . जो वह वास्तव में करता है वो किसी को नहीं दीखता है.
सीबीआई को भी नहीं. जब कुछ सोचने की गुन्जाइश ही नहीं है तो जनता भी अब कलाकारों
से काम चला लेती है. वे जानती है कि ये अलीबाबा राजनीति में आया है तो किसी न किसी
दरवाजे पर जा कर खुल जा सिम सिम जरुर बोलेगा. ये अकेले नहीं, इनके साथ चालीस चालीस
और भी हैं. अगर इन्हें नेता मानेगा तो दुखी होगा, कलाकार मानेगा तो फिल्म या नाटक
का मजा मिलेगा. लगता है आप सोचने लग पड़े हैं, सोचिये मत, मस्त रहिये.
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