शुक्रवार, 27 मई 2022

हरी हरी मछली कितना पानी ?


 


                           आदमी को पैदा होने के बाद अपने यहाँ वोटर बनाने में अठ्ठारह साल लग जाते हैं । वो समझता है कि बालिग हुआ अब शादी-वादी करेगा, व्यवस्था मानती है कि वोट हुआ अपने काम आयेगा । हर पाँच साल में, या यों कहें मौके मौके पर वोट को लगता है कि वही मालिक है मुल्क का । इस बात का असर इतना कि उसका माथा गरम और चाल टेढ़ी हो जाती है । आँखों में शाही डोरे से उतार आते हैं । कुछ डाक्टर इसे सीजनल बुखार बता कर गोलियां वगैरह देकर फारिग हो जाते हैं । लेकिन अनुभवी डाक्टर बकायदा टेस्ट आदि करवा कर वोटर की जान को और कीमती बनाते हैं । इधर लोकतंत्र के पक्के खिलाड़ी जानते हैं कि वोटों को भविष्य की चिंता सताती है इसलिए वोटिंग से पहले उसे पिलाना जरुरी होता है । इधर वोट बिना कुछ किए सुखी होना चाहते हैं, भले ही हफ्ता पंद्रह दिनों के लिए ही क्यों न हो । हालांकि सुख एक भ्रम है । लेकिन विद्वान यह भी कह गए हैं कि भ्रम ही है जिससे लोकतन्त्र को प्राणवायु मिलती है । इस सब के बीच अच्छी बात यह है कि वोटर भुलक्कड़ भी है । कल उसकी इज्जत से कौन खेल गया यह उसे याद नहीं रहता है । थोड़ा बहुत हो भी तो भूलाने के लिए प्रायः एक बोतल काफी होती है ।

मैं भी नियमानुसार एक वोट हूँ । किसी ने फुसफुसा कर कहा कि तुम्हें एक ईमानदार वोट बनना चाहिए । लोकतन्त्र एक बड़े दिल की व्यवस्था है । इसमें नेता बेईमान, लुच्चे, लफंगे, झूठे, मक्कार, अनैतिक, अपराधी हों तो भी चलेगा लेकिन वोटर सच्चा, सीधा, धैर्यवान और सबसे बड़ी बात ईमानदार होना जरूरी है । मैंने पूछा वोटर की ईमानदारी के मायने  क्या हैं ? वे बोले यह नेचर का मामला है । ईश्वर ने दिन और रात बनाए, फूल और कांटे बनाए, इसी तरह नेता और वोटर हैं । दो में से एक का ईमानदार होना प्रकृतिक रूप से जरूरी है । चाहो तो इसे ईश्वर की मर्जी कह लो । अच्छा वोटर वह होता है जिसे बार बार ठगने के बाद भी ठगे जाने का दुख नहीं होता है । कबीर इस बात को पहले ही समझा गए हैं –“कबीरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोय ; आप ठगाए सुख उपजै, और ठगै दुख होए” । आप जानते हैं कबीर जनता के कवि थे नेताओं के नहीं । हमारी सरकारें चाहे वो किसी भी पार्टी की हों, सबका उद्देश्य जनता को कबीर से जोड़ने का रहा है । आगे संत कह गए हैं – “सांई इतना दीजिए जा में कुटुंब समय ; मैं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाए” । यहाँ सांई सरकार है  और जानती है कि वोटर का कुटुंब भी वोटर है और आने वाला अतिथि भी वोटर है । और संत की मंशा है कि इन्हें इतना भर मिलता रहे कि सारे बने रहें बस । ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्‍यासंसार केवल छाया है, भ्रम है । वोटर हरी मछली है लोकतन्त्र के तालाब  में । दो चार साल में एक बार पूछ लो कि ‘हरी हरी मछली कितना पानी ?’ बस बहुत हुआ, ड्यूटी ख़त्म .  एक और संत कह गए हैं “क्या ले कर तू आया जग में और क्या ले कर जाएगा ; सोच समझ ले मन मूरख अंत में पछताएगा” । वोटर सरकार की न सुनें लेकिन संतों की तो सुनते ही हैं । भजन, कीर्तन, भंडारा, कथा, प्रवचन ये सब आदमी को अच्छा वोटर बनाते हैं . कल को कोई, यानी  इतिहास, यह न कहे कि सरकारों को उनकी ज़िम्मेदारी का अहसास नहीं था । चिंता और चिंतन छोडो, खाओ पियो और कीर्तन करो .

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