आदमी को
पैदा होने के बाद अपने यहाँ वोटर बनाने में अठ्ठारह साल लग जाते हैं । वो समझता है
कि बालिग हुआ अब शादी-वादी करेगा,
व्यवस्था मानती है कि वोट हुआ अपने काम आयेगा । हर पाँच साल में,
या यों कहें मौके मौके पर वोट को लगता है कि वही मालिक है मुल्क का । इस बात का
असर इतना कि उसका माथा गरम और चाल टेढ़ी हो जाती है । आँखों में शाही डोरे से उतार
आते हैं । कुछ डाक्टर इसे सीजनल बुखार बता कर गोलियां वगैरह देकर फारिग हो जाते
हैं । लेकिन अनुभवी डाक्टर बकायदा टेस्ट आदि करवा कर वोटर की जान को और कीमती
बनाते हैं । इधर लोकतंत्र के पक्के खिलाड़ी जानते हैं कि वोटों को भविष्य की चिंता
सताती है इसलिए वोटिंग से पहले उसे पिलाना जरुरी होता है । इधर वोट बिना कुछ किए सुखी
होना चाहते हैं,
भले ही हफ्ता पंद्रह दिनों के लिए ही क्यों न हो । हालांकि सुख एक भ्रम है । लेकिन
विद्वान यह भी कह गए हैं कि भ्रम ही है जिससे लोकतन्त्र को प्राणवायु मिलती है ।
इस सब के बीच अच्छी बात यह है कि वोटर भुलक्कड़ भी है । कल उसकी इज्जत से कौन खेल
गया यह उसे याद नहीं रहता है । थोड़ा बहुत हो भी तो भूलाने के लिए प्रायः एक बोतल
काफी होती है ।
मैं भी
नियमानुसार एक वोट हूँ । किसी ने फुसफुसा कर कहा कि तुम्हें एक ईमानदार वोट बनना
चाहिए । लोकतन्त्र एक बड़े दिल की व्यवस्था है । इसमें नेता बेईमान,
लुच्चे,
लफंगे,
झूठे,
मक्कार,
अनैतिक,
अपराधी हों तो भी चलेगा लेकिन वोटर सच्चा,
सीधा,
धैर्यवान और सबसे बड़ी बात ईमानदार होना जरूरी है । मैंने पूछा वोटर की ईमानदारी के
मायने क्या हैं ?
वे बोले यह नेचर का मामला है । ईश्वर ने दिन और रात बनाए,
फूल और कांटे बनाए,
इसी तरह नेता और वोटर हैं । दो में से एक का ईमानदार होना प्रकृतिक रूप से जरूरी
है । चाहो तो इसे ईश्वर की मर्जी कह लो । अच्छा वोटर वह होता है जिसे बार बार ठगने
के बाद भी ठगे जाने का दुख नहीं होता है । कबीर इस बात को पहले ही समझा गए हैं –“कबीरा
आप ठगाइए,
और न ठगिए कोय ;
आप ठगाए सुख उपजै,
और ठगै दुख होए” । आप जानते हैं कबीर जनता के कवि थे नेताओं के नहीं । हमारी
सरकारें चाहे वो किसी भी पार्टी की हों,
सबका उद्देश्य जनता को कबीर से जोड़ने का रहा है । आगे संत कह गए हैं – “सांई इतना
दीजिए जा में कुटुंब समय ;
मैं भी भूखा न रहूँ,
साधू न भूखा जाए” । यहाँ सांई सरकार है और
जानती है कि वोटर का कुटुंब भी वोटर है और आने वाला अतिथि भी वोटर है । और संत की
मंशा है कि इन्हें इतना भर मिलता रहे कि ‘सारे
बने रहें’
बस । ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या, संसार केवल छाया है, भ्रम
है । वोटर हरी मछली है लोकतन्त्र के तालाब में । दो चार साल में एक बार पूछ लो कि ‘हरी
हरी मछली कितना पानी ?’ बस बहुत हुआ, ड्यूटी ख़त्म . एक और संत कह गए हैं “क्या ले कर तू आया जग में
और क्या ले कर जाएगा ;
सोच समझ ले मन मूरख अंत में पछताएगा” । वोटर सरकार की न सुनें लेकिन संतों की तो
सुनते ही हैं । भजन, कीर्तन, भंडारा, कथा, प्रवचन ये सब आदमी को अच्छा वोटर बनाते
हैं . कल को कोई,
यानी इतिहास,
यह न कहे कि सरकारों को उनकी ज़िम्मेदारी का अहसास नहीं था । चिंता और चिंतन छोडो,
खाओ पियो और कीर्तन करो .
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