सोमवार, 31 अक्तूबर 2022

जो सहमत हैं ... सुखी हैं !


 




कहते है कि लोकतंत्र में बोलने की आजादी होती है । यों तो सब बोलते ही हैं लेकिन आजादी के साथ बोलना आँख में किरकिरी की तरह चुभता है । जिसको बोलना है बोले, खूब बोले, कोई दिक्कत नहीं है । लेकिन आजादी के साथ बोलने वाला कमबख्त सोचता भी है । सोचने से विचार बनता है और विचार से असहमति पैदा होती है । असहमत आदमी खुद तो तनाव में रहता ही है दूसरों को भी तनाव देता हैं । विचार एक संक्रामक रोग है यानी छूत की बीमारी । कविता, कहानी और यहाँ तक कि कार्टून से भी विचार पैदा हो जाते और समाज में फैलते भी हैं । लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि कलम और किताबें उनके तनाव का मुख्य कारण है । अगर हम एक मजबूत और स्वस्थ समाज चाहते हैं तो लोगों को किताब कलम से दूर रहने और हर बात के लिए सहमत रहने के संस्कार देने होंगे । प्रश्न पूछने वालों को, शंका रखने वालों को, सवाल करने वालों को इतना जलील किया जाना चाहिए कि वे दोबारा हिम्मत नहीं करे कुछ भी पूछने की । नशे से घर परिवार बर्बाद होता है लेकिन विचार क्या क्या बर्बाद कर सकता है इसकी कोई सीमा नहीं है  । समाज को नशामुक्ति केन्द्रों से ज्यादा विचारमुक्ति केन्द्रों की जरुरत है । हमारे संत महात्मा और बाबा लोग बहुत अच्छा काम कर रहे हैं । उनके भजन, प्रवचन, सीख-शिक्षा लोगों को विचार प्रवृत्ति से दूर रखने में सार्थक योगदान करते हैं । सत्संग में व्यक्ति सहमत होना और सहमत बने रहना सीखता है । वह समझ लेता है कि ‘जब आवै संतोष धन, सब धन धूर सामान’ । यहाँ संतोषी सदा सुखी का मतलब सहमत सदा सुखी ही है । सहमति की आवाज बड़ी शीतल होती है । कबीर ने भी कहा है ‘ऐसी बानी बोलिए, मन का आप खोए ; औरन को सीतल करे आपहु सीतल होए’ । यहाँ इन पंक्तियों का आशय यह है कि आप मन की गहराइयों से सहमति के बोल बोलिए, उससे दूसरे सुखी होंगे और आप भी सुखी रहेंगे ।

हम विश्वगुरु ऐसे नहीं हैं । कहते हैं अमेरिका का आदमी पच्चीस वर्ष में जीतनी फिलासफी सीखता है उतना फिलासफ़र तो हमारे देश का सात साल का बच्चा होता है । स्कूली गुरुजनों को देखिये, वे बच्चों को सवाल पूछना नहीं सहमत होना सिखाते हैं । किसी ज़माने में जो राजाराम हुआ करते थे बाद में राजीराम होकर मजे करते हैं । सरकार चाहे घर की हो या बाहर की, सुखी वही है जो राजी रहता है । वक्त बदल रहा है, जो बात बात पर असहमत हो जाया करते हैं उन्हें अब मार्गदर्शन के लिए भी कोई नहीं पूछ रहा है । जो अपनी तमाम असहमतियों को भोंगली बना कर टांड रखता है वह हर बात में आसानी से राजी हो लेता है । दरअसल राजी रहना एक साधना का विषय है । योग है जो अभ्यास से सिखा जा सकता है । डाक्टरों का कहना है कि आज के समय में तनाव सबसे बड़ी समस्या है । इससे दिक्कत यह है कि लोग अवसाद और हार्ट अटैक जैसी दूसरी बिमारियों की चपेट में आ जाते हैं । तनाव दूसरी बिमारियों के लिए रेड कारपेट है । जो राजी होता है वो गाजी (ताकतवर) होता है । उसे कोई दिक्कत नहीं होती है । तो सहमत बनें, कलम, किताब और विचार से दूर रहें, समाज का विकास करें ।

-----


शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2022

जूते के बहाने जूता


 


दिवाली की सफाई में जूते निकल आए । जब पसंद किए थे तो देखा कंपनी अच्छी है, डब्बे पर छ्पा घोषणा पत्र भी जोरदार था । लिखा था सोल मजबूत है । इतना कि सारे अवांछितों को कुचल देगा जो आपके पैरों को कुचल देने का इरादा रखते हैं । मेरे जैसा आम आदमी जूते में क्या देखता है ? यही कि सोल बढ़िया होना चाहिए । सोल पर ही जूता टिका  होता है और जूतों पर पैर । सोल जितना पहनने वाले के लिए महत्व का है उतना ही जूते के लिए भी । सुरक्षा की दरकार न हो तो जूतों की जरूरत क्या है ।

कालीन पर तो वैसे भी चरण कमल होते हैं । तकनीकी रूप से देख जाए तो जूता हो या न भी हो तो कोई फर्क नहीं पड़ता । जूता उनके लिए केवल शोभा की वस्तु है । सोल भले ही कमजोर हों पर मुलायम होना चाहिए । ताकि उसमें जब चरण डालें तो लगे कि जूते चरणों को चूम रहे हैं । चरणों और कालीन के बीच जूतों की वही भूमिका होती है जो कमीज और कोट के बीच टाई की होती है । उपयोगी नहीं है पर फिर भी जरूरी है । शोध करने वाले इस बात पर ध्यान दे सकते हैं कि जो जूता आम आदमी को काटता है वो अमीरों के सामने चरणदास कैसे हो जाता है ! चरणों की महिमा और जूतों की बेशरमी पर अब देश गौर करना चाहता है ।

खैर, मुझे इससे क्या, और सच पूछो तो आपको भी इससे क्या ? आप हम ठहरे आमजन यानी लोकतंत्र की जान ।  ज्यादा सोचने की न हमारी आदत है और न हमें कोई  जहमत उठाने देता है । बस हवा का एक झोंका आ जाए, कोई लहर सी उठे या मतदान के पहले वाली रात जरा मुंह दिखाई हो जाए तो हम भी तेरे, दिल भी तेरा । जूतों की तरफ देखने की न जरूरत है और न ही फुर्सत । दिल बड़ा हो तो तंग जूतों में भी पाँव डालने में कोई गुरेज नहीं है । बाद में अगर जूतों ने दो चार जगह काट भी लिया तो भी कोई उसे फैंकता थोड़ी है । फिर इस बात की क्या गैरंटी कि दूसरा नया नवैला, जो उपर से नरम नरम सा दिख रहा है चार दिन चल पाएगा । जिसके सोल ही मजबूत दिखाई नहीं दे रहे हैं उसकी मुलायमियत और खूबसूरती किस काम की ! अगर जंगल में रह रहे हो, रास्ते ऊबड़ खाबड़ हों तो सोल मजबूत होना जरूरी हैं ।

“दो साल से टांड़ पर पड़े हैं, अब क्या करोगे इनका !?” श्रीमती जी ने जूतों को  फटकारते शब्दों के साथ मेरे सामने पटका ।

“पहनना तो है नहीं ... तुम कहो तो अटाले वाले को दे दूँ ?  दिवाली कुछ बेकार चीजों से मुक्ति का भी त्योहार है । लेकिन जैसा कि आप जानते ही हैं कि डरा हुआ कर्मचारी अपने अधिकारी से पूछ कर, स्वीकृति मिलने के बाद ही किसी चीज को अटाले में दे पाता है ।  सो पूछ लिया ।

“क्यों !?, मुफ्त में मिले थे क्या ? ... अपनी पसंद से देखभाल के लिया था ना ! ... यही पहनों ।“

“नए थे तब ठीक लग रहे थे, अब ये जूते काटते हैं डीयर । तंग इतने हो गए हैं कि पाँव डालने की हिम्मत नहीं हो रही है ।“

“जूता शुरू शुरू में तो काटता ही है । लगातार पहनोगे तो जहां काट रहा है वहाँ की चमड़ी मोटी  हो जाएगी ।  राष्ट्रवादी बनो, ज्यादा ध्यान मत दो, एक बार फंसा लो, पैर जल्दी सेट हो जाएंगे ।“

“समझो ना,  हिम्मत नहीं हो रही और मन भी नहीं हो रहा है ।“

“हिम्मत करना पड़ती है, मन को मारना पड़ता है । विश्वास और भरोसा बड़ी चीज है । हम औरतों से सीखो । जिस सैंडल में पैर डाल दिया उसी की हो कर रह जाती हैं । काटती हों, चुभती हों, फिर भी फैंकती नहीं हैं । करवा चौथ ऊपर से ! “

-----

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2022

सामने वाले की (हवा) बिगाड़ो


 

राजनीति एक सामूहिक हवाबाजी है । जमाना इन्टरनेट का है, जब किसी की हवा चल नहीं रही हो तब सब लोग मिल कर गाने लगें कि चली चली हवा चली .... पार्टी की हवा चलीतो हवा जो है चलने लगती है । हवा को पता है कि चलने से ही वह हवा है । जिस तरह चलती का नाम गाड़ी होता है उसी तरह चलती का नाम हवा भी होता है । चाल और चलन की जितनी अनिवार्यता मनुष्य के जीवन में है उससे ज्यादा हवा के अस्तित्व में हैं । राजनीति में हवा का बड़ा महत्व है, अपनी चल जाए और सामने वाले की बंद हो जाए तो समझो गढ़ जीत लिया । हर चुनाव के समय हवा बनानेकी कोशिश की जाती है । जी, आपने ठीक समझा, हवा बनाई भी जाती है, कक्षा पांच के बच्चे से पूछोगे तो वह बता देगा कि एनटूओटू  से बनती है । राजनीति की हवा जरा अलग होती है । इसको बनाने का कोई आसान फार्मूला नहीं है कि आपको बता दें चट्ट से । आपने देखा ही होगा कि चुनाव के समय लोगों को खूब उल्लू बनाया जाता है । उल्लू बनने के बाद भी लोग देखने में तो आदमीही लगते हैं, उल्लू जैसा तो कोई दिखता नहीं । उसी तरह हवा बनाई जाती है, टाइट की जाती है, बंद होती है, निकल भी जाती है, निकाली जाती है पर किसी को दिखती नहीं है ।

श्वानों और नये नये गुण्डे भाइयों की हवा अपनी गली में ही चलती है, इसके प्रभाव में श्वान अपने को शेर और आदरणीय गुण्डे स्वयं को युवा हृदय-सम्राटतक समझने लगते हैं...... जो कि सही है । जी हां, नोट कर लीजिए कि, सही है, आखिर हमें भी अपने मोहल्ले में रहना है । हालांकि वे कहीं से भी शेर तो क्या शेर के साढूभाई भी नहीं लगते हैं, लेकिन कोई अपने को समझे तो क्या किया जा सकता है ।

लेकिन हवा भले ही गली में चले या वार्ड में, एक बार चल जाए तो समझ लो हवा-हवाई है । कुछ दिनों हवा बनी रहे तो कहा जाता है कि आदमी उड़ने लगा हैं । यों तो वह जमीन पर ही रहता है पर जानकारों की नजर में वो उड़ता है । आपने गर्म हवा के गुब्बारे देखे होंगे, जैसे जैसे गर्म हवा उसमें भरती है वो ऊँचा उड़ता जाता है । संतों का कहना है कि अभिमान की हवा गर्म होती है । वे ये भी कहते हैं कि वक्त की हवा नहीं आंधी चलती है । लोकतंत्र हवा से जिंदा रहता है और आंधियों से उजड़ता है ।

पार्टी ने ठूंस ठूंस के खाया है अपने राज में, लिहाजा हवा इधर भी बन रही है । लगातार खट्टी डकारें भी आ रही हैं । मुंह दबाओ तो पेट फूलता है, और पेट को राहत दो तो लोगों का सांस लेना दूभर होने लगता है । वोट की बात करो तो लोग नाक दबाते हैं । इस बार संस्कृति की हींग भी असर करेगी इसमें संदेह है । याद नहीं रहा था कि चुनाव के समय जनता के बीच जाना होगा । पुराने लोग पुराने चावल थे, दारू-कंबल से हवा बना लेते थे । गरीबी कम नहीं होने दी ताकि हवा सस्ते में बने, पर लोग अब ज्यादा स्याने हो गए हैं । लेपटाप, टीवी या फ्रीज तक मांगने लगे हैं । पार्टी के थिंकटैंक कहे जाने वाले फुसफुसा रहे हैं कि अपनी हवा नहीं बन पा रही है तो सामने वाले की बिगाड़ो यार । एक ही बात है ।

-----

आत्मनिर्भर मनोहर खोटे !

 



जब से देश में आत्मनिर्भरता की मुहीम चली है अपने मनोहर खोटे प्रेम के मामले में चुपके से आत्मनिर्भर हो लिए हैं । पत्नी शांता खोटे को अभी इस बात की भनक नहीं लगी है । बहुत से मामलों में वह भी आत्मनिर्भर हैं लेकिन साठवें जन्मदिन के बाद अब वे मंगलवार, गुरुवार और शनिवार को किसी पर हाथ नहीं उठाती हैं । इन तीन दिनों में ‘कंडीशन अप्लाय’ की घोषणा के साथ मनोहर खोटे मन की बात कर डालते हैं । बाकि दिनों में अपनी आत्मा को जबतब ‘सीपीआर’ देते रहते हैं । सरकार के साथ घर वालों ने भी मान लिया है कि मनोहर खोटे अब किसी काम के नहीं हैं । दफ्तर ने घर बैठा दिया है और घर वालों ने कोने में मोल्डेड तख़्त-ए-ताउस पर । जब जब उन्होंने प्रेम के दो बोल बोलना चाहे शांता खोटे ने कपड़ों का ढेर दिखा कर प्रेस करने बैठा दिया । मुक्ति उन्हें तब ही मिली जब दो तीन कपड़े उन्होंने बाकायदा जला दिए । हालाँकि शांता खोटे ने पहले खरीखोटी सुनाई और बाद में गरम प्रेस ले कर लपकी भी लेकिन जाको राखे साईयाँ मार सके न कोय । ऐन वक्त पर उनकी भाभी का विडिओ काल आ गया । सो ज्यादा कुछ नहीं हुआ, सिवा शाम की चाय बंद होने के । और शुक्र रहा कि बोलीं भी नहीं महिना भर तक ।

इधर उपेक्षित मनोहर खोटे को खाली बैठे कुछ पुरानी यादें आती रहीं और जाती भी रहीं । यादों का ऐसा ही है, जब आती हैं तो रोक नहीं सकते और जाती हैं तो पकड़ नहीं सकते । बरसों से डायरी में एक फूल रखा था गुलाब का । फूल क्या था जी ... यादों का सेटटॉप बॉक्स था । तमाम चैनल पकड़ता था रंगबिरंगे और बिना सेंसर ‘रंगीन’ । दुर्भाग्य से फूल एक दिन शांता खोटे के हाथ लग गया । वे समझ गयीं और उन्होंने फूल को चाय के साथ उबाल कर खड़े खड़े पी डाला । मनोहर खोटे उस दिन के बाद ऐसे इडीयट बॉक्स हो गए जिसमें ब्लेक एंड व्हाइट भी बंद हो गया । बहुत समय अकेले काट लेने के बाद अब मनोहर खोटे के पास कोई रास्ता नहीं बचा सिवाय आत्मनिर्भर हो लेने के । किसी ज़माने में गुरूजी ने कहा था कि आदमी को बड़े सपने देखना चाहिए । छोटे सपने देखना अपराध है । इसलिए मनोहर खोटे ने सोच लिया कि जब सपना ही देखना है तो सीधे महानायक को ही कॉम्पिटीशन में रखा जाए । अप्सरा किसी एक की नहीं होती है । वो बस होती है । बिना आधार कार्ड दिखाए कोई भी उससे प्रेम कर सकता है । कानून वानून का भी कोई झंझट नहीं । इसमें अच्छी बात यह है कि आपका प्रेम आपको ही पता होता है । बस बैठे रहिये और प्रेम का मजा लेते रहिये । सबसे अच्छी बात तो यह है कि इसमें जवानी का होना भी जरुरी नहीं है । और तो और अप्सरा का भी सामने होना जरुरी नहीं है । पत्र पत्रिकाओं में छपे उसके फोटो ही काफी होते हैं । प्रेम दिल से किया जाता है । कोई कह गया है ना “दिल के आईने में तस्वीर यार की ; जरा गरदन झुकाई और दीदार कर लिया” । यह एक साधना है, करता रहे आदमी तो सिद्धि प्राप्त हो जाती है । शांता खोटे को पता नहीं है कि मनोहर खोटे एक सिद्ध पुरुष है ।

----


मंगलवार, 11 अक्तूबर 2022

जब पत्थर मुस्कराए


 



सुबह सुबह डीएसपी साहब गार्डन में टहल रहे थे कि गिर गए । वैसे देखा जाये तो पहली बार नहीं गिरे थे, जब भी मौका मिला वे गिर लेते थे । सरकारी नौकरी का ऐसा है कि यहाँ बाकायदा गिरने का रिवाज है । कोई न भी गिरना चाहे तो गिराने वाले नहीं मानते हैं । जो जितना गिरता है उतना उठता है । पहले छः महीने में आदमी गिरे नहीं तो महकमे में खुसुर पुसुर शुरू हो जाती है । लोग शक की निगाह से देखने लगते हैं । उन्हें लगता है हमारे बीच कोई हरिराम नाई तो नहीं आ गया है ! वैसे महकमा बड़ा कोआपरेटिव है । डीएसपी साहब जब  नए नए आये थे और गिरने के मामले में बड़े संकोची थे तब उनकी नथ उतारने की रस्म की गयी थी । बाकायदा यानी पूरे विधिविधान, सफाई और सावधानी के साथ उन्हें पहली बार गिराया गया । इसके बाद वो कहते हैं ना ‘उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा’ । बाद में तो ‘प्रेक्टिस’ इतनी चली कि वे दफ्तर बाद में पहुँचते, गिर पहले लेते । इतना सब आपको इसलिए बताना पड़ रहा है कि आप जान लें कि गिरना कितना रेस्पेक्टफुल है महकमें में ।

अब वे सेवानिवृत्त हो चुके हैं । बिना गिरे एक एक दिन काटना उनके लिए बड़ा मुश्किल होता है । वो तो शुक्र है आज टहलते हुए ठोकर खा गए और औंधे मुंह गिर लिए । पीछे मोहन पिपलपुरे चले आ रहे थे । उन्होंने दौड़ कर मदद के लिए हाथ बढ़ा दिया । गिरने के बाद पहली बार खाली हाथ देख कर डीएसपी साहब को झटका लगा । जो आदमी गिरने के बाद हमेशा खुश होता था आज इतना दुखी हुआ कि जमीन फट जाती तो उसमें समा जाना पसंद करता ।

खैर, गिरने पड़ने के बीच यह यह बताना रह गया कि अपने डीएसपी साब वो डीएसपी नहीं हैं जो पुलिस में होते हैं । दरअसल ये देवी सिंग पटोले हैं । लेकिन शुरू से ही देवी सिंग पोटले के नाम से फेमस हुए । धीरे धीरे लोग इस नाम को भी चुनावी जुमलों की तरह भूल गए और नया नाम आया डीएसपी जो पोटले साब को भी पसंद था । अच्छी गुजरी, लेकिन जिंदगी में ऊंच नीच सब देखना पड़ती है । कुछ समय से नयी नयी गिरावटें सामने आ रही हैं । कमबख्त बाल गिरना शुरू हुए तो डॉलर के मुकाबले रुपये का साथ निभाते चले गए । रोज सुबह बाज़ार खुलते ही यानि पहली कंघी में ही खासी गिरावट दर्ज हो जाती है । पिछले महीने दो दांत क्या गिरे बाकी ने भी चलूँ चलूँ की जिद पकड़ ली । मन में घोर क्लासिक बंगाली उदासी छ गयी, जो मन कभी ममता की तरह बमकता था अब छुइमुई हो गया । लोग झूठ कहते हैं कि बुढ़ापे में रूपया काम आता है । क्या खाक काम आता है ! इधर चमड़ी कांग्रेस की तरह ढीली होती जा रही है, आईने के सामने जाओ तो पंचर-टॉय दीखता है । जाने ‘चौकीदार’ लोग क्या खाते हैं, कैसे खाते हैं, जब देखो तक हवा फुल-टाईट भरी दिखती है !

पिपलपुरे जी ने डीएसपी को पास लगी बैंच पर बैठाया । पूछा ठीक लग रहा है आपको ? कोई दिक्कत तो नहीं है ? डीएसपी रुआंसे हो कर बोले – “गिर गए !”

“शुक्र है हड्डी नहीं टूटी ।“ पिपलपुरे जी ने पीठ पर हाथ फेरते हुए तसल्ली दी ।

“दो दांत गिर गए ... वो पड़े हैं पत्थर के पास ।“ डीएसपी बोले ।

पिपलपुरे ने देखा, लगा पत्थर मुस्करा रहा है ।

----x----