आलसी
आदमी भी दूसरे तमाम प्राणियों की तरह जिंदा होता है। फर्क केवल उसके जिंदा रहने के
तरीके में देखा जा सकता है। वह जरूरी / गैरजरूरी किसी भी तरह की हलन चलन में
विश्वास नहीं करता है। वह मानता है कि बैठे रहकर या पड़े रहकर भी मस्त जीवन जिया
जा सकता है। आलस्य एक तरह का दिव्य गुण है । शेषनाग पर भगवान भी तो सदा लेटायमान
रहते हैं । आलसी अपने को ईश्वर का सच्चा पुत्र मानता है। काम या परिश्रम करके वह
पालनहार परमपिता की महिमा पर बट्टा नहीं लगाता है। वह आलस्य के आनंद रस में इतना
पगा होता है कि उसे निष्क्रिय जीवन वरदान लगता है । वह अपने को सर्वज्ञानी मानता है
। उसे नया पुराना कुछ भी करने या सीखने की जरूरत महसूस नहीं होती है। असल में वह बंद
गोदाम के आखिरी कोने में पड़ा हुआ बुद्धिजीवी होता है। उसे अच्छी तरह से पता है कि
जीवन ओन्ली चार दिनों का है। ना यहां कुछ लेकर आए थे ना यहां से कुछ लेकर जाएंगे।
यह दुनिया फोकट की एक सराय है जिसमें चतुर लोग खाते, पीते,
आराम करते हैं और चले जाते हैं। 50% दानों पर आलसियों का नाम भी
लिखा होता है । वक्त से पहले और भाग्य से ज्यादा किसी न्यायाधीश को भी नहीं मिलता
है। लीडर करे न चाकरी मंत्री करे ना काम; दास मलूका का कह गए
सबके दाता राम। ऐसे में बिना बात हाड़ तोड़ने का कोई मतलब नहीं है। बैल दिन भर काम
करते हैं और बैल ही बने रहते हैं, घोड़ा नहीं हो जाते हैं।
आलसी मानता है कि हमसे पहले हजारों भोलारम आए और तमाम काम करके चले गए लेकिन कोई
उन्हें नहीं जानता। इसीलिए भगवान कहते हैं कि तू मेरा हो जा और अपनी चिंताएं मुझ
पर छोड़ कर सो जा । बताइए क्या आज के समय में भगवान पर विश्वास करना गलत है!?
नहीं नहीं, बोलिए, गलत है तो कहिये, फिर पता चलेगा। एक बात और, जो लोग काम करते हैं उनसे जाने अनजाने में
कानून टूटता ही है। आलसी कानून के सम्मान के लिए भी काम नहीं करता है। उसे किसी
नेता या सरकार से कोई शिकायत नहीं है। इसलिए वोट देकर विरोध या समर्थन दर्ज कराने की
उसे कभी जरूरत महसूस नहीं हुई। ऐसा नहीं है कि वह कुछ सोचता विचारता नहीं है।
मतदान वाले दिन बस सुबह से सोचता है कि वोट दूं या नहीं दूँ। नहीं दूं या दे ही
दूं। किसी निर्णय पर पहुंचने से पहले शाम हो जाती है और वह भगवान को धन्यवाद कहकर
वापस पड़ जाता है।
जब आप रुचि से इतना पढ़ चुके हैं
तो यह भी जान लीजिए कि आलसी होते कितने प्रकार के हैं। जन्मजात आलसी साउण्ड प्रूफ होते
हैं। लोगों के कहने सुनने को, तानों को एक कान से सुनकर
दूसरे कान से निकाल देते हैं। आप जानते हैं यह कठिन काम है, बड़े नेताओं से ही सधता
है । ऐसा करते हुए वह बोलने वालों को अज्ञानी और मूर्ख समझ कर माफ भी करते रहते
हैं, मतलब दिल बड़ा । कुछ आलसी संत टाइप होते हैं। वे मानते हैं कि न उधो से लेना न
माधो को देना, न काहू से दोस्ती न काहू से बैर । कुछ मौका परस्त आलसी भी होते हैं
जो वक्त जरूरत और अवसर देखकर अलसाते हैं। जैसे आज संडे है तो लस्त पड़े हैं,
कुछ नहीं करेंगे। या फिर काम करने वाली (पत्नी) है आसपास तो वह कुछ नहीं करेंगे। ससुराल में है
तो प्रति घंटा चाय बिस्किट की दर से सोफ़ा तोड़ना उनका अधिकार है। आलसी प्रायः भाग्यवान
होते हैं, कोई काम खुद ही उनके पास नहीं फटकता है । घर-परिवार और आसपास के लोग ही
उन्हें घोर आलसी मानकर उनसे सारी उम्मीद छोड़ देते हैं।
--------