सोमवार, 3 जून 2013

असली विकास पीछे लौटने में है !

 
           
  तय हुआ कि शहर को आधुनिक बनाया जाए और लोगों को दकियानूसी । पूरी ताकत से प्रयास किये जाएं तो दोनों लक्ष्य एक साथ हांसिल  किये जा सकते हैं । इसीलिये राजनीति को विज्ञान मानने के बावजूद कला भी कहा जाता हैं ।  राजनीति में आजकल बहुत कुछ करना पड़ता है , यहां तक कि विकास भी । विकास में सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इसमें आगे की ओर देखना और बढ़ना पड़ता है जबकि राजनीति का असली मजा पीछे जाने में है । जो आगे जाने की लत पाले हुए हैं उन्हें नहीं पता कि पीछे शानदार परंपराएं है , रामराज्य है । राम की राजनीति राज्य की यानी सत्ता की राजनीति है । असली विकास पीछे लौटने में है , क्योंकि  पीछे स्वर्ग है और आगे नरक । लेकिन कुछ हैं जो न खुद समझते हैं और न ही किसी और को समझने देते हैं । वैसे ऐसों की परवाह भी किसे है । लेकिन लोकतंत्र में सबसे बड़ी बुराई यह है कि हर पांच साल में चुनाव होते हैं । जनता में  किसीने एक बार विकास का भूत चढ़ा दिया तो आसानी से उतरता नहीं । इधर टीवी-सिनेमा ने लोगों के दिमाग खराब कर रखे हैं । जो देखते हैं वही करना चाहते हैं । समाज में अपराध और विकास की भावना इसीलिये बढ़ रही है । हम तो दोनों के खिलाफ हैं लेकिन मजबूरी है , कार्यकर्ताओं का ख्याल तो रखना ही पड़ता है । जनता अगर यज्ञ-हवन और धर्म-धन्धे से सध जाए तो जरूरत ही क्या है मगजमारी करने की ! अरे भई ‘‘ जाही बिधि राखै राम, ताही बिधि रहिये ...’’ ।


               लेकिन ओखली में सिर दिया तो मूसलबाजों से क्या डरना । निन्दाजीवी शहर की एक नदी के नाम पर रो रहे हैं !! एक नदी थी , नौ लाख पेड़ थे , हरियाली इतनी कि स्वर्ग का भ्रम हो , शुद्ध हवा , दिन में परिन्दे रात में जुगनू , शान्ति-सौहार्द ....... ! क्या नहीं था ?  लेकिन देखिये , जहां इतना सब हो वहां विकास करना मामूली बात नहीं है । पेड़ कटवाने में ही तीन साल लग गए, फिर भी काम अभी पूरा नहीं हुआ । रहा नदी का सवाल तो भाइयों समय बदल रहा है और जरूरत भी । षहर को नदी से ज्यादा ड्रेनेज  की आवश्यकता है । वैसे हमने कुछ नहीं किया । छोटे से शहर में तीस लाख की विशाल जनसंख्या हर सुबह जो बहाती है उसे देख कर नदी बेचारी के प्राण अपने आप सूख गए । लेकिन जो होता है अच्छा ही होता है । सिधार चुकी नदी अपने पीछे तैरने-डूबने की बहुत सारी यादें और बहुमूल्य जमीन छोड़ गई है । यादें बूढों के साथ चलीं जाएंगी और जमीन का उपयोग , यानी व्यावसायिक सदुपयोग हम कर लेंगे  । जल्द ही हम सबको बता देंगे कि नदी के होने से जमीन का होना ज्यादा कीमती है । आधुनिक और विकसित समाज में कीमत सब कुछ है । सभ्य समाज कीमत मिलने पर सभ्यता छोड़ने के लिए तत्पर रहता है ।
हमने देखा है कि सरकारी स्कूलों के पास बहुत जमीनें थीं । उस पर बच्चे फुटबाल-हांकी  जैसे खेल खेला करते थे और प्रायः जख्मी होते थे । पढ़ाई का कीमती समय खेलों में बरबाद हुआ करता था । लेकिन दूरदृष्टि और पक्के इरादे से क्या नहीं हो सकता है । सरकारी स्कूल हमारी शहीद नदी की तरह धीरे धीरे सूखते चले गए और हमारे लिये कीमती जमीनो का उपहार देते गए । बदले में हमने प्रायवेट स्कूल गली गली में खुलवा दिये । दो-तीन कमरों वाले इन स्कूलों में देश  का भविष्य ‘‘ जानी जानी  यस पापा .... ’’ गा रहा है !! खेल का मैदान, पुस्तकालय , शौचालय , खिड़की और प्रकाश  युक्त कमरे हम केवल कागज और कंप्यूटर पर ही देखते हैं । इससे उनका काम भी चलता है  और हमारा भी ।

यही हाल सड़कों को लेकर है , जिसके मन में जो आता है बक देता है । लेकिन देखिये क्या थीं और क्या हो गई सड़कें । पहले कार देखने को नहीं मिलती थी अब शहर कारों से अंटा पड़ रहा है , लोग मजबूरी में कारें दनादन खरीद रहे हैं । बीस साल पहले आदमी कर्ज लेने के लिये बैंकों में हाथ बांधे खड़ा, घिघियाता रहता था । अब बैंक वाले किसी भी रास्ता चलते आदमी के आगे हाथ बांधे घिघियाते रहते हैं कि कर्ज ले लो मांई-बाप !! लोग दुत्तकार के कहते हैं कि नहीं चाहिये पर वे पुचकार कर टिका ही देते हैं । ऐसे में कविता और व्यंग्य-घिस्सू जैसे ऐरे-गैरे भी कार नहीं लें तो क्या करें ? जो भी हो , कार वाले भाइयों के लिये सड़कें चैड़ी होना तो होना ।  यही क्यों , बारातें , रैली , जुलूस , पुतला दहन , प्रदर्शन  वगैरह भी जरूरी हैं । लोकतंत्र में किसी को कह कर देखिये कि भाई बारात मत निकालो , ट्रेफिक  पर रहम करो । आपको तुरंत ही व्यक्तिगत स्वतंत्रता का जायका चख कर अस्पताल प्रस्थान करना पड़ सकता है । जाओगे क्या ?  नहीं ना ? तो फिर आप भी विकास के लिए जरा पीछे चलिए । असली विकास पीछे लौटने में है भियाजी ।

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