सोमवार, 3 जून 2013

चिंतन बड़ी एबली चीज होती है !!



बैठक कहो, अधिवेशन कहो, मंथन या शिविर बोलो बात कमोबेश एक ही है , चिंतन । चिंतन का ऐसा है सिरिमानजी कि इसको खुद ही करना पड़ता है । और करने का ऐसा है कि ये हर किसी के बस की बात नहीं है । राजनीति में यही ऐसा काम है जिसमें सबसे ज्यादा जोखिम है । नहीं करो तो खतरा और करो तो उससे भी बड़ा खतरा । अगर चिंतन करने वालों ने निष्कासित होने के बाद अपनी पार्टी बनाई होती तो कइयों ने बना ली होती । बनाना चाहे तो लोग बिना चिंतन के भी पार्टी बना लेते हैं । लेकिन सिरिमानजी चिंतन बड़ी एबली चीज होती है । एक बार किसीको चिंतन की लत पड़ जाए तो किसी ‘चिंतन-मुक्ति शिविर’ से भी लाभ नहीं होता । पार्टी की मजबूती के लिए कइयों को मना किया जाता है कि आप कृपया अपना दिमाग नहीं चलाएं, किन्तु वो अपना दिमाग दौड़ाए जाते हैं । परिणाम यह होता है कि पार्टी उन्हें दौड़ा दौड़ा कर .... अंत में खदेड़ देती है । नतीजे में बस ये चर्चा रह जाती है सिरिमानजी, कि चिंतन से बचो और पार्टी में बने रहो ।
घटना का सांप सफलता पूर्वक निकल जाए, तो रह गई लकीर को पीटना चिंतन करना कहलाता है । यह एक तरह का ‘सेफ-चिंतन’ होता है । कुछ लोग इसे राजनीतिक चिंतन भी कहते पाए जाते हैं । अभी आपको बताया कि चिंतन बड़ी एबली चीज होती है । करो चाहे नहीं करो परंतु लोगों को मालूम चलना चाहिये कि पार्टी चिंतनशुदा है । राजनीति में चिंतन मांग का सिंदूर होता है , और सिंदूर से न मेडिकल जांच होती है न चरित्र का प्रमाण-पत्र बनता है । लेकिन लोकतंत्र में चिंतन की साख होती है । कुछ परंपरावादी वोट साख के कारण भी मिलते देखे गए हैं ।
ग्रंथों-पुराणों से पता चलता है कि हमारी विभूतियां जंगलों में , गुफाओं में , कंदराओं में बैठ कर चिंतन किया करतीं थी । लेकिन जंगल में मोर नाचा किसने देखा ! आजकल मीडिया का जमाना है , उन्हें मैनेज करने की भारी कीमत चुकाना पड़ती है । चिंतन हुआ लेकिन चर्चा नहीं हुई तो फायदा ही क्या ! और फिर गलती से विकास बहुत हो गया है । जंगल कट गए हैं , विभूतियां भी पांच सितारा जीवन जीने लगी हैं । चिंतन के लिये गुंजाइश नहीं  के बराबर बची है । वो तो अच्छा है कि अनेक विभूतियों को कब्ज की षिकायत है और कमोड़ पर बैठे वे दिनभर का आवश्यक चिंतन इस दौरान कर लेते हैं वरना विचार की भूमि पूरी तरह से बंजर हो जाती । किन्तु ऐसा नहीं है कि प्रयास किये जाएं और किसी समस्या का हल न मिले । गुफाएं-कंदराएं न मिलें तो कई बार तंबू में चिंतन कर लेने का रिवाज हो गया है । तंबू-चिंतन में सुविधा ज्यादा होती है और समय भी कम लगता है । वैज्ञानिक शोधों ने बताया है कि चिंतन तंबुओ में सुरक्षित होता है । दरअसल तंबुओं के कान नहीं होते, दीवारों के होते हैं । राजनीति में गोपनियता बहुत जरुरी है ।
एक बात और है सिरिमानजी, आप देखिये कि देश इस समय आलोचना के संकट से भी गुजर रहा है । वैसे गुजरने को तो दाल, चावल, तेल, शकर, गेंहू, बिजली, गैस जैसी अनेक चीजों के संकट से भी गुजर रहा है । लेकिन चिंतन-शो  में लगाए रखो तो जनता धैर्य रखती है और संकट बेशरमी से अपने आप गुजर जाता है और अगर नहीं गुजरता तो जनता को उस संकट की आदत पड़ जाती है । पैंसठ सालों में देश को गरीबी, बेरोजगारी, मंहगाई, आतंकवाद, दंगे, सड़क दुर्घटनाएं, अपराध, भ्रष्टाचार, जैसी अनेक बुराइयों की आदत पड़ गई है । देश के सामने अपने समय के सर्वाधिक महत्वपूर्ण संकट आए और गुजर गए और लौट के समझदार चिंतन शिविर में आए ।
चिंता चिंतन से बड़ी चीज होती है । देश की चिंता एक अलग मामला है उसके लिये बुद्धिजीवीनुमा काफी सारे लोग हैं जो प्रायः बिना कब्ज की शिकायत के भी चिंतन करते हैं । इसीलिये राजनीतिक दल बुद्धिजीवियों से, कुछ श्री-सम्मान वगैरह दे-दिलाकर, सुरक्षात्मक और आवश्यक दूरी बनाए रखते हैं । चिंतन बड़ी एबली चीज होती है सिरिमानजी, देश को लगना चाहिये कि चिंतन देश के लिये किया जा रहा है , फिर चाहे कमोड-साधना के लिए किया गया चिंतन ही क्यों न हो । शिविरों में सामूहिक चिंतन होता है ।
सर्कस या मेले में आपने मौत का कुंआ देखा होगा , उसमें आदमी मोटर सायकल चलाता है । सिरिमानजी हमने पूछा उससे कि आप इतनी तेज मोटर सायकल कैसे चला लेते हैं !! तो वह बोला कि मौत के कुंए में ट्रेफिक-सिगनल नहीं होता है , और आप चाहे जितना भी तेज चलिये कुंए से बाहर नहीं निकलते है , देखने वालों के रोंगटे भले ही खड़े हो जाएं । शिविरों का भी यही महत्व है सिरिमानजी, रोंगटे खड़े करना । चिंतनिये इतनी जोर का चिंतन करें कि जनता के रोंगटे खड़े हो जाएं तो चिंतन सफल हुआ समझो । चिंतन के कुंए में मोटरसायकल दौड़ाई तिरिभिन्नाट और रहे वहीं के वहीं । इधर शिविर में चिंतन भी हुआ तिरिभिन्नाट और रहे वहीं के वहीं ।  इसीलिये तो कहा है सिरिमानजी कि चिंतन बड़ी एबली चीज होती है ।
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