बुधवार, 5 जून 2013

‘एल.ओ.सी’ की चिंता में मैडम दुशाला दास


          
आज का फैशन सफलता की ऊंचाइयों को स्पर्श करते हुए कमर की अंतिम नीचाइयों पर चमत्कारिक रूप से टिका हुआ है । कट-रीनाओं से लेकर मल्ल-लिकाओं तक की कमर के अंतिम छोर पर एक रेखा होती है जिसे सिनेमाई शहर में ‘एलओसीकहा जाता है । जैसे गरीबी की रेखा होती है लेकिन दिखाई नहीं देती वैसे ही फैशन की भी रेखा होती है जो कितनी भी आंखें फाड़ लो, दिखाई नहीं देती है । एलओसी एक आभासी रेखा होती है सुधिजन जिसकी कल्पना करते पाए जाते हैं । मैडम दुशाला दास का टेंशन इसी एलओसी से शुरू होता है । 
            दुशाला जी को चिंता तो तभी होने लगी थी जब सुंदरियां मात्र डेढ़ मीटर कपड़े का ब्लाउज पहनने लगीं थीं और आसार अच्छे नहीं थे । लेकिन अब डेढ़ मीटर कपड़े में दस ब्लाउज बन रहे हैं तो वे टीवी खोलते ही तमतमाने लगती हैं । उस पर दास बाबू का दीदे फाड़ कर टीवी टूंगना उनकी बरदाश्त  के बाहर हो जाता है । पता नहीं फैशन करतीं हैं या जादू !! मुए मर्द हय-हय, अश-अश करते बस बेहोश ही नहीं हो रहे हैं । जी चहता है कि बेवफाओं को दीवार में जिंदा चुनवा कर अनारकली की वफा का हिसाब बराबर कर लें नामुरादों से । लेकिन मजबूरी ये कि बस नहीं चलता किसी पर ।
पिछले दिनों कट-रीनाओं ने असंभव होने के बावजूद जब एलओसी को नीचे की ओर जरा विस्तार दे दिया तो मैडम दुशाला को मेडिकल चेकअप के लिए ले जाना पड़ा । डाक्टर ने आदतन सवाल किया कि ‘‘आपको किस बात का टेंशन है ?’’ जवाब में उनके टेंशन का लावा बह निकला - ‘‘ हवा-पानी के असर से कभी कभी पहाड़ भी भरभरा कर गिर जाते हैं । किसी दिन लगातार जीरो साइज होती जा रही कमर घोखा दे गई तो टीवी वाले हप्तों तक, बल्कि तब तक दिखाते रहेंगे तब तक कि देश की पूरी एक सौ इक्कीस करोड़ जनसंख्या की दो सौ बयालीस करोड़ आंखें तृप्त नहीं हो जातीं । हमारी सरकार किसी एलओसीकी रक्षा नहीं कर पा रही है !! क्या होगा देश का ?’’
पंद्रह दिनों के बेडरेस्ट और टीवी न देखने की हिदायत के साथ वे लौटीं ।
               हप्ता भी नहीं गुजरा था कि एक दिन दास बाबू रात दो बजे फैशन-टीवी का पारायण करते हुए बरामद हुए । वहां भरभरा कर गिरने के लिए कुछ था ही नहीं । एलओसीमात्र एक रक्षा-चैकी में बदल गई थी । खुद दास बाबू इतने विभारे थे कि जान ही नहीं पाए कि मैडम दुशाला ने दबिश डाल कर उन्हें गिरी हुई अवस्था में जब्त कर लिया है । सुबह तक दुशालाजी की पाठशाला चली किन्तु वे इस प्रश्न का उत्तर नहीं पा सकीं कि दास बाबू उसमें देख क्या रहे थे और इससे उन्हें क्या मिल रहा था !!
           दरअसल दास बाबू को टीवी में जो दिख रहा था उससे ज्यादा उत्सुक हो कर वे संभावनादेख रहे थे । संभावना हमेशा  बड़ी ही होती है । चैनल भी बार बार ब्रेक से अपना बैंक बैलेंस ठीक करते हुए टीआरपी को कैश कर रहा था और कमिंग-अपकी पट्टी लगा कर संभावनाएं बनाए हुए था । हर ब्रेक के बाद संभावनाबढ़ रही थी और दास बाबू को दास बनाती जा रही थी । वे सारांश पर आए कि संभावना से आदमी को ऊर्जा मिलती है ।
            दुशालाजी दुःखी इस बात से हैं कि टीवी वाले पत्रकार इतना खोद-खोद कर पूछते हैं कि जवाब देने वाला लगातार गड्ढ़े में घंसता चला जाता है, लेकिन इन देवियों से नहीं पूछते कि कमर को पासपोर्ट की तरह इस्तेमाल करना आखिर कब बंद करेंगी ?! संयोगवश एक दिन उनकी यह तमन्ना पूरी हो गई । टीवी के बहस और चिंताकार्यक्रम में वे सवाल पूछ रहीं थीं कि आपको डर नहीं लगता अगर कहीं सारा फैशन भरभरा कर गिर पड़े तो ?
         उपस्थित कट-रीनाओं में से एक ने जवाब दिया - ‘‘ काश ...! .... हालांकि गिरने की संभावना फैशन का सबसे बड़ा कारण है , लेकिन अब तक गिरा तो नहीं । ’’
         ‘‘ लेकिन डर तो बना रहता है, ऐसा फैशन आखिर किस लिए !!? ’’ वे बोलीं ।
           ‘‘ जिसे आप डर कह रही है दरअसल वो संभावना है । फैशन का काम ही संभावना पैदा करना है । दुशाला-दासहोने में आज की दुनिया कोई संभावना नहीं देखती है । और जिसमें संभावनानहीं होती वो भगवान के भरोसे होता है । ’’
        दुशालाजी को जैसे डाक्टर से जवाब मिल गया । आगे का समय वे ईश्वर की इच्छा पर निकालेंगी । एक नए टेंशन के साथ वे लौट रही हैं ।


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