अभी स्नान
आदि करके तैयार हुए ही थे कि हरगोविंद प्रसाद ‘चकोर’ को पत्नी ने ‘सुप्रभात’ कह
दिया । उन्होंने चौंक कर देखा तो अर्धांगिनी मुस्करा भी दीं । चकोर जी ने अपनी
नब्ज टटोली । नब्ज की तरफ से एनओसी मिली तो उन्होंने अपने को समेट कर पूछा – “क्या बात है देवी ! आज करवा चौथ है
क्या ?”
“अब साल
में दो दो करवा चौथ की उम्मीद तो रखो मत मुझसे । शाम को दोस्तों के साथ बैठकी
जमाना छोड़ दोगे तो उम्र वैसे ही लम्बी हो जाएगी तुम्हारी ।“ देवी ने मौलिकता की और
कदम बढ़ते हुए कहा ।
“बैठकी
जमाते हैं पर पीते नहीं हैं ... मेरा मतलब है कि मैं नहीं पीता हूँ । वो क्या है
ना ये लोग कविता सुन लेते हैं । आदत पड़ गयी है उन्हें पीते समय कविता सुनने की और
मुझे सुनाने की । तुम तो जानती हो आजकल कविता सुनने वाले मिलते कहाँ हैं ।“ चकोर
ने सफाई दी ।
“क्यों !
तुम्हारे वो ‘पुलकित’ जी तो खूब सुनाते हैं ।“
“पगली वो
कचोरी समोसा खिला खिला कर सुनाते हैं । सातवाँ वेतनमान ले रहें हैं, उनकी बात अलग
है । ... तुम तो अपनी बताओ ... आज सुप्रभात कैसे !!”
“मेरी
बायीं आँख फड़क रही है । देख लेना कुछ अच्छा होने वाला है आज ।“ वे फिर मुस्करायीं
।
“क्या
अच्छा हो सकता है । दो चार सुनने वाले मिल जाएँ बस । कोई छपा वापा तो पड़ेगा नहीं
कि फ्रंट पेज पर बिना कविता छप जाएँ और दन्न से फेमस हो जाएँ और चर्चा में भी आ जाएँ
।“
“मैं दही
शक्कर लाती हूँ । शगुन पक्का हो जायेगा । और हाँ ... दोपहर में पूरणपोली खा लोगे
?”
“ !! .. हाँ
हाँ, क्यों नहीं ... दिन अच्छा है, तुम्हारी बायीं आँख फड़क रही है साथ में
सुप्रभात भी है ... खा लूँगा ।“
“शाम को
पिच्चर भी चलेंगे ।“
“शाम तक
फड़केगी क्या ! तब तक तो सुप्रभात भी एक्सपायर हो चुकेगा ।“
“लौटते हुए
धमाका सेल भी होते आएंगे । बड़ा डिस्काउंट चल रहा है ।“ बिना कुछ सुने वे बोलीं ।
“मेरा दिल
धड़क रहा है ....”
“रुको जरा
अभी ... पहले दही शकर खिला देने दो ।“
उन्होंने
दही शकर ला कर चकोर के मुंह में टपका दिया ।
“चकोर जी
हैं क्या ?” बाहर से आवाज आई । देखा ब्रीफकेस के साथ एक निहायत शरीफ, काटन
कुरताधारी पांच फूटी दैन्यमूर्ति सामने है । हाथ जोड़ते हुए वे बोले – “चकोर जी से
मिलना है ।“
“जी मैं ही
हरगोविंद प्रसाद चकोर हूँ । कहिये ?”
“बड़ी ख़ुशी
हुई आपके दर्शन हुए । मैं मेट्रो साहित्य सेवी संस्थान का अध्यक्ष हूँ । प्रवीण
पल्लव, नाम तो सुना ही होगा ?“
“आइये ...
अन्दर आइये । कहिये कैसे आना हुआ ?”
“आपका बड़ा
नाम है जी साहित्य की दुनिया में । लोग भले ही नहीं जानते हों लेकिन मेट्रो
साहित्य सेवी संस्थान को सब पता रहता है कि कौन सच्चा सेवी सक्रियता से काम कर रहा
है । ... दरअसल आपकी कविताओं को कोर्स में लगवाना चाहते हैं हम ।“
“अरे साहब
! किन शब्दों में धन्यवाद दूँ आपको । जरुर लगइये । क्या सेवा करूँ आपकी ... चाय
काफ़ी कुछ ...”
“कुछ नहीं
सर ... पहले आपको मेट्रो साहित्य सेवी संस्थान की और से सम्मानित किया जाएगा ।
निवेदन है कि आप अपनी स्वीकृति प्रदान करें प्लीज ।“
“अरे इसमें
क्या निवेदन ... स्वीकृति है जी ।“
“जी बहुत
अच्छा । पहले आपको मेट्रो साहित्य सेवी संस्थान की सदस्यता लेना होगी । मात्र
ग्यारह सौ ... केवल ।“
“ग्यारह सौ
! ... चलिए ठीक है ।“ रुपये ले कर पल्लवी
जी ने रसीद काटी ।
“सम्मान कब
करोगे ?” चकोर जी से रहा नहीं गया ।
“अभी ...
अभी करेंगे । हाथोहाथ । थोड़ा सा जल मंगवाइये ।“
चकोरी जी जल ले कर आयीं । पल्लव जी ने ब्रीफकेस से कंकू
चावल निकाल कर चकोर जी को तिलक किया । चकोर कुछ समझ पाते इसके पहले उनके हाथ में
श्रीफल था, गले में गोटा लगा दुपट्टा और पूर्व हस्ताक्षरित एक प्रमाणपत्र इस
निर्देश के साथ कि अपना नाम भर लीजियेगा । बोले – “बधाई हो आप सम्मानित हो चुके
हैं । मोबाईल निकालिए और कुछ फोटो ले लीजिये । आपके काम आएंगे ।“
------