बुधवार, 30 दिसंबर 2020

रॉयल्टी ! ये क्या होता है!?

 




प्रकाशक महोदय पीले प्रकाश में सोने की सीआभा में दमक रहे थे । दो चार तोला असली भी पहने हुए थे । दफ्तर क्या था मंदिर ही समझो । अभी तथास्तु कह दें तो भक्त फेसबुक, वाट्स एप पर 'प्रकाशक-नारायण' की कथा करवाता फिरेगा । लेखक अपनी पाण्डुलिपि के साथ है । उसे लग रहा है कि पन्ना की जमीन से वह हीरा खोज लाया है । बस इसके ठीक ठीक दाम मिल जाएं तो वह घर मिठाई के साथ और दोस्तों के बीच खंबा लेकर लौटे । प्रकाशक ने बिना पूछे लेखक को पानी पिला दिया है । लेखक मना तो कर रहे थे लेकिन आग्रह था ।  दिल्ली की सरकार ने पानी के बिल फिलहाल माफ कर रखे हैं इसी का साइड इफेक्ट था । पांडुलिपि को देखते पलटते  प्रकाशक ने लेखक परिचय पर भी आठ परसेंट गौर किया, और पूछा- कॉफी-टी कुछ लेंगे ?

"अभी लेकर आए हैं । आपसे टी नहीं रॉयल्टी लेंगे " । लेखक बोले । 

"रॉयल्टी !! ये क्या होता है !!"  प्रकाश अपने पाण्डुलिपि पर रखे पेपरवेट को उठाकर किनारे किया।

" रॉयल्टी ... !  वही जो आप किताब छाप कर लेखक को देते हैं । मेहनताना, पारिश्रमिक या उसका हक। जो भी हो । " 

" हम तो नहीं देते हैं "। प्रकाशक ने छाती चौड़ी करके मन की बात कह दी ।

"लेकिन लोग कहते हैं कि आप देते हैं !!  हमारे इधर के संग्राम सिंह की किताब आपने छापी है , वह तो कहते हैं की उन्हें लाखों की रॉयल्टी मिलती है !" 


"दिल्ली में अब प्रदूषण ही प्रदूषण है। रॉयल्टी कहां है ! संग्राम सिंह एक किताब छपाने में दमे का शिकार हो गए, उसी को रॉयल्टी समझते होंगे  । " 

"देखिए साहब रॉयल्टी जरूरी है ।"

" किसके लिए ?"

"लेखक के लिए ।"

"लेखक के लिए रॉयल्टी नहीं है पाठक जरूरी होते हैं ... और आपको पता ही होगा  पाठकों की नस्ल खत्म होती जा रही है । अब पढ़ने का चलन नहीं रहा तो किताब कौन खरीदेगा और क्यों !'


'लेकिन आप छाप तो रहे हैं ।"


"वह तो इसलिए कि आप लोगों का मनोबल बना रहे ।  किताब के पन्नों के बीच सूखे फूल  सा पड़ा लेखक वर्षों तक बना रहता है । आज की तारीख में किताब लेखक के लिए वैक्सीन है । एक छप जाए तो फेफड़ों में जान रहती है ।"


 "कुछ तो दीजिए रॉयल्टी, ऐसा भी क्या । मेरे काफी पाठक हैं , रिश्तेदार भी बहुत हैं , हमारी तो गांव के गांव में रिश्तेदारी है । किताब तो बिक जाएगी आराम से ।"


" कितनी बिक जाएगी ?" 


"मान के चलिए की दो तीन सौ तो मामूली बात है । हाथो हाथ बिकेगी ।"  लेखक ने अपना कांफिडेंस रोका ।


"चलिए तीन सौ आप बेच लेना । मुनाफा भी आप ही रख लेना । ठीक है ?"


"लेकिन तीन सौ की रॉयल्टी भी तो बनेगी ?"


" कहा ना रॉयल्टी का चलन खत्म हुए बरसों हो गए हैं , और तीन सौ किताबों के लिए भी आपको पैसे देने होंगे । फिरी में कुछ नहीं होता है दुनिया में, हर चीज और बात की कीमत चुकाना पड़ती है ।"


"यह तो लगता है गलत है । ... लेकिन लेखक हूं , बाजार का गरल पी लूंगा । देश और साहित्य के लिए इतना तो करना ही पड़ेगा । लेखन साधना है, तप है,  हठ है, योग है और त्याग भी है । कबीर ने कहा भी है कि आप ठगाए सुख होए । तो ठीक है ।" 


"कुछ त्याग और करना पड़ेगा आपको। ... साठ हजार अलग से देने होंगे ।"


"वह क्यों !!"


"मुआवजा समझो । आपकी किताब पर हमारे प्रकाशन का नाम जाएगा । मानहानि या क्षतिपूर्ति जो भी मानना चाहो मान लो ।...  देखिए हमारे यहां छपने से आप तो महान हो जाएंगे फटाफट ... हमारा क्या होगा यह भी सोचिए।  जोखिम तो हम उठा रहे हैं ।"


" तो क्या कुछ कमाओगे नहीं इसमें !?" लेखक ने पूछा ।


" कमाएंगे क्यों नहीं ! हम लेखक थोड़ी है।" वे बोले ।


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*जवाहर चौधरी

BH 26 सुखलिया

(भारतमाता मन्दिर के पास)

इंदौर   452 010

मंगलवार, 29 दिसंबर 2020

फोटोफ्रेम में फंसा आदमी

 



इन दिनों अपनी फोटो पर मेरा ध्यान बार-बार जाता है । आजकल हर हाथ में कैमरे वाला फोन है तो फोटो ऐसे खींचे जा रहे हैं मानो संसार में इसी कर्म के लिए भेजा है ईश्वर ने । या फिर सरकार को सालाना रिटर्न के साथ हर बार नए फोटो दिखाना पड़ेंगे । कभी मन होता है कि सेल्फी दर सेल्फी लेते रहें,  शायद कोई पसंद का फोटो मिल जाए ।

 रोज अखबार फोटो में शेष रह गए लोगों की सूचना देता है । कुछ के यहां जाना भी पड़ता है । देखते हैं फोटो बढ़िया है । सारे दाग धब्बे फोटो से गायब हैं ।  आजकल तकनीकी का जमाना है आदमी से बेहतर उसकी फोटो होती है । मेरे माथे पर चेचक और चोट के दो निशान हैं । जब भी फोटो खिंचवाई फोटोग्राफर ने दोनों निशान गायब कर दिए और इसे अपनी कला कहा । इससे थोड़ा बहुत पहचान का संकट बना, पर अच्छा लगा । गालों पर मुहांसों के छोड़े हुए निशान किसको अच्छे लगते हैं ! स्टूडियो वाले इस बात को बहुत अच्छे से जानते हैं । एक बार तो फोटो इतना साफ सुथरा बना दिया कि जरूरी लगने लगा कि नीचे अपना नाम भी लिख दूं । कॉलेज के दिनों में ऐसी एक घटना हुई जो भूलती नहीं है । परिचय पत्र के लिए फोटो चाहिए था । फोटो चिपकाकर प्रिंसिपाल के पास हस्ताक्षर के लिए उपस्थित हुए तो उनका सवाल था कि यह कौन है !?  मतलब फोटो किसकी है , बताया कि मेरी है सर । वे बोले जैसी शक्ल है वैसी फोटो लाओ । इसमें तुम्हें कौन पहचानेगा । मजबूरन बिना टचिंग की फोटो लेकर जाना पड़ा जो पसंद नहीं थी । अच्छी तरह याद है कि मैंने परिचय पत्र हर बार इसी तरह आगे बढ़ाया जैसे फटा नोट चलाने की कोशिश करता है कोई ।

 बहुत समय बाद जब पिता बीमार रहने लगे मैंने फोटो को लेकर उनकी चिंता को महसूस किया । उनके जमाने में फोटो कम उतरते थे । जो थे उनमें ज्यादातर दीवार पर टंगे हुए थे । उनके ही थे लेकिन अब लगता था किसी और के फोटो हैं । समय के साथ शक्ल इतनी बदल जाती है आदमी खुद अपने आप से परायापन महसूस करने लगता है । उन्हें एक नई फोटो चाहिए थी जिसके विस्तार में जाए बिना उनकी पहचान साफ हो । आखिर एक फोटो ऐसी खींची गई जिससे उनकी मनोकामना पूर्ति हो गई । उस फोटो की कई प्रतियां बनी । एक बड़ी सी, जिसे फ्रेम करवाकर ठीक से सामने दीवार पर लगवा दी । अब आगंतुक की प्रतिक्रिया उनकी नई जरूरत बन गई । तब मुझे यह सब ठीक नहीं लगा था ।


मुझे अपनी एक अच्छी फोटो की जरूरत हर सुबह महसूस होती है । पता नहीं क्यों लगता है कि फोटो अच्छा होगा तो लोगों में अच्छी भावनाएं आएंगी । हो सकता है लोग कहेंआदमी अच्छा था । हालांकि कबीर ने कहा है की ऐसी करनी कर चलो कि हम हंसे जग रोए । अब करनी तो सबकी एक जैसी है । और जैसी भी हो गई उस फाइल को दोबारा खोल नहीं सकता है ।  ज्यादातर मामलों में कर्म छुपाने की चीज होते जा रहे हैं । वह तो अच्छा है कि जा चुके आदमी के बारे में कोई बुरा बोलने की परम्परा नहीं है । सच तो यह है की किसी का बुरा देखो तो वह अपना ज्यादा लगता है । वैसे फुर्सत किसको है अब ! पहले भी नही थी, कहते हैं आज मरे कल दूसरा दिन । अच्छी फोटो सामने है तो फूल चढ़ा दो । बस हो गया असेसमेंट । ऊपर वाले का काम ऊपरवाला जाने । आदमी कर्म ऊपर ले जाता है और बढ़िया सा फोटो नीचे छोड़ जाता है । उस फोटोग्राफर की याद आई जिसने मुझे अपनी कला से आई एस जौहर बना दिया था । पता चला कि वह माला और फ्रेम के बीच फंसे मुस्कुरा रहे हैं । बेटे से पूछा -- आखरी तक ऐसे ही दिखते थे क्या ? 

लड़का बोला -- दिखने से क्या होता है !!  नील-पासबुक थे । 

उसकी बात समझ कर कहा कि सिकंदर गया तब उसके भी हाथ खाली थे । उसने गौर से देखा जिसे लगभग घूरना भी कहा जा सकता है, बोला -- हाथ खाली थे लेकिन पासबुक यानी खजाने में तो था । पीछे जो रह जाते हैं उनका काम सिर्फ फोटो से चलता है क्या !? महल-बाड़ा ना हो तो शेरवानी में पुरखे फिल्मी पोस्टर से ज्यादा कुछ नजर नहीं आते हैं ।

सोमवार, 28 दिसंबर 2020

दमदमा दमदम

 




यहां दम की बात हो रही है । किसी के लिए बुरा नहीं सोच रहे हैं । हालांकि दम यानी दमें की बीमारी बुरी होती है  । किसी भी बीमार से पूछिए यही कहेगा की 'भगवान यह बीमारी किसी को ना दें, बहुत बुरी होती है' । लेकिन हम अपनी बता रहे हैं वह भी मजे के लिए । कोई डायरेक्ट दिल पर ना लें , वैधानिक चेतावनी जैसा है  , मानना ना मानना आपकी मर्जी, दिल आपका । वैसे दिल का क्या पच्चीसों डेंट तो पहले से ही लगे पड़े होंगे ।


हम देसी लोग जिसे दमा कहते हैं ना उसे ही शहरी लोग अस्थमा कहते हैं । वैसे नाम में क्या रखा है,  गुलाब का हो या बीमारी का या फिर आदमी का ही क्यों ना हो । भारतीय संस्कृति में बीमारियों को भी सम्मानित करने का रिवाज था । सो दमे को राजरोग कहा जाता है । आप यों चाहे फकीरी इंजॉय कर रहे हों, लेकिन दमावान होते ही राजयोगी हो जाते हैं । अगर इस इज्जत अफजाई को तवज्जो दें तो हम भी हो गए । इस बात को संस्कृति समर्थक खासतौर पर नोट करें तो राजरोगी भी अपने को मुख्यधारा में मान कर छाती छप्पन कर ले ।


देखिए हमारी जिम्मेदारी को जरा अलग से महसूस कीजिए। जब संसार सारी रात सोता है,  यहां तक कि भगवान भी, तब देशभर में दमदार जागते हैं । तो  भइया ऐसी ही एक रात की बात है अपनी । दम से हाथापाई करते बहुत देर हो गई थी तो याद किया भगवान को । दमदारों के पास उनकी डायरेक्ट हॉट लाइन होती है । हमने लॉजिक रखा कि देखिए साहब, आत्मा सो परमात्मा, सब जानते हैं ।  इधर आत्मा जो है दम इसे बेदम हुई जा रही है और उधर परमात्मा मजे में स्वर्ग के सुनहरे सपने देखें !! यह नहीं हो सकता । माना की आत्मा जमीनी कार्यकर्ता है और परमात्मा हाईकमान । लेकिन सुनना तो पड़ेगा । परमात्मा के रहते आत्मा को दमे ने दबोच रखा है और सारी ऑक्सीजन कॉंग्रेसी खेंचे जा रहे हैं ! यह तो नहीं चलेगा कुछ कीजिए वरना ....

परमात्मा 'वरना' के झांसे में आ गए और 'फूं' जैसा कुछ किया फटाफट । फौरन दमे ने अपनी पकड़ ढीली कर दी । वे बोले - अब कैसा लग रहा है ?


हमने यानी आत्मा ने कहा -- राहत महसूस हो रही है । धन्यवाद है जी आपका ।

 परमात्मा बोले धन्यवाद से काम नहीं चलेगा । दमे पर कुछ सुनाओ । कोई अच्छा सा  दमदार व्यंग्य । 

आत्मा बोली- अभी बड़े दर्द में हूँ, फिर दामे पर कोई व्यंग्य लिखता है क्या !!


दूसरों का कष्ट सुनने से परमात्मा को भी मजा आता है यह तो चौंकाने वाली बात है ! आत्मा बोली -- अभी कहो तो कविता सुना दूँ,  इन दिनों व्यंग से ज्यादा अच्छी कविताएं छन रही है बाजार में ।

परमात्मा अचानक उठकर खड़े हो गए, बोले -- तुम कविता संक्रमित हो !! 

ओह मैं सैनिटाइजर नहीं लाया ! अगर कविता की चपेट में हो तो चौदह दिनों के लिए क्वारंटाइन हो जाओ, इसी में साहित्य जगत की भलाई है । सोचो अगर  संक्रमण फैला और देश में सवा सौ करोड़ कवि पैदा हो गए तो लोग लॉक डाउन में भी मर जाएंगे । श्रोता नहीं मिले तो कवि जानलेवा हो जाता है । दुनिया पहले ही  आतंकवादी गतिविधियों से  परेशान है । तुम अच्छी आत्मा हो,  मुझे क्षमा करो । कहते हुए परमात्मा चले गए। 


निद्रा एक तरह की अचेतना का समय होता है । ज्ञानी तो यहां तक कहते हैं कि यह एक तरह की स्थाई मृत्यु है । इस तरह प्राणी रोज मरता है और रोज जीता है । कुछ लोग दोपहर में आधा-एक घंटा अतिरिक्त मर लेते हैं । गीता में कहा गया है की आत्मा वस्त्र बदलती है और उन्हें धारण करती है , लेकिन दमदार लोग सोते नहीं हैं इसलिए उसे औपचारिक रूप से जागने की जरूरत भी नहीं पड़ती है । घर में अगर एक खांसते जागते पिताजी पड़े हों तो घर के बाकी लोग चैन की नींद सो सकते हैं ।


ऐसी ही एक रात है और मैं जाग रहा हूँ । मोहल्ले के कुत्ते तक सो गए हैं । बाहर सुई पटक सन्नाटा है । पास लगे हाईवे से ट्रकों की आवाजाही की आवाज नहीं आ रही है । लग रहा है सन्नाटे का हाईवे पसरा पड़ा है दारू पी के । आज तो हवा भी बंद है,  पत्ते तक हिल नहीं रहे हैं । इसलिए अंदर के शोर को साफ-साफ महसूस कर रहा हूँ । सांसो में साएं साएं की आवाज मन की बात की तरह जबरिया सुनाई दे रही है । राहत नहीं मिल रही, शोर बहुत हो रहा है । लग रहा है शरीर में सांस एक आवश्यक बुराई है । सांस का सिस्टम नहीं होता तो आज मुझे दमा भी नहीं होता । लोगों को पता नहीं मछलियों को दमा होता है या नहीं । मस्तिष्क में पूरा संसार घूम रहा है । जो गुजर गया और जो गुजर सकता है वह दृश्य सा आ जा रहा है । एक बार फिर कहा -- कुछ करो परमात्मा,  इधर ले लो या फिर उधर आने दो । डॉक्टर मरने नहीं देते दमा जीने नहीं देता । एलओसी का गांव हो गए हमारे फेफड़े । 


दूसरे दिन बारिश हो रही थी, जोरदार से जरा कम । तीन-चार दिनों तक मौसम रह रह कर सुबकता रहा । किसी की हिम्मत नहीं कि बिना काम बाहर निकलता ।  हिदायतें , सावधानी और दवाओं के अलावा लोगों की दुआओं का भी जोर था कि दमे ने सिर नहीं उठाया । रात को खांसी नहीं  आई ! 

घर वाले ठीक से सो नहीं सके । रात में तीन चार बार नाक के पास हाथ लगाकर चेक किया है --"अभी तो हैं ! सो रहे हैं शायद !"


सुबह मित्रों के फोन आए । कैसा है भाई ? सावधानी रख यार । मौसम जानलेवा है । तेरी ही चिंता लगी रहती है । वैसे डरना मत ... दमे वालों की उम्र लंबी होती है । हालात भले ही खराब रहें पर जिंदा ज्यादा रहते हैं ।


शनिवार, 12 दिसंबर 2020

जो नहीं जानते और नहीं जानते कि नहीं जानते

 



बस्ती में एक सीधासाधा आदमी था जो हमेशा खुश रहता था इसलिए लोग उसे पागल कहते थे । कुछ की राय थी कि वह मूर्ख है वरना आज की डेट में दस प्रतिशत समझदारी वाला आदमी भी खुश नहीं रहता है । जिनके पास जरा भी समझ या ज्ञान है वे बकायदा दुखी हैं । आप कह सकते हैं कि जरा सा ज्ञानी होना भी दुखी होने के लिए काफी है । जो नहीं जानता वही खुश है, जो जनता है वो दुखी है । कबीर कह गए हैं – “सुखिया सब संसार, खावै और सोवै ; दुखिया दास कबीर, जागै और रोवै” । अच्छा राजा वही होता है जो चाहे जो करे पर जनता को कुछ भी जानने न दे । जिस दिन लोग जानने लगेंगे वे दुखी होने लगेंगे । जो नहीं जानते हैं और नहीं जानते हैं कि वो नहीं जानते बस वही सुखी हैं, खुश हैं । जो जानने की कोशिश में लगे रहते हैं वे दरअसल दुखी होने का आत्मघाती प्रयास कर रहे होते हैं । एक विद्वान बोले हैं कि लोकतन्त्र दुखी करने, दुखी होने और दुखी बनाए रखने की व्यवस्था है । व्यावहारिक जीवन में भी कहा गया है कि बंधी मुट्ठी लाख की, खुल गई तो खाक की । राइट टू इन्फर्मेशन यानी सूचना का अधिकार क्या है ! यही ना कि मुट्ठी खोलिए । आप पूछिए, जानिए और दुखी होइए । अगर मीडिया में कुछ जुगाड़ है तो इसे छ्पवा दीजिये, आपका दुख अकेले का दुख नहीं रहेगा । जनहित याचिका लगा दीजिए, देश भी दुखी हो जाएगा । आपको लगेगा कि आप नागरिक अधिकारों का लाभ उठा रहे हैं लेकिन सच ये है कि आप स्वेच्छा से दुखी हो रहे हैं और दूसरों को दुखी कर रहे हैं । मूल रूप से यह काम सरकार की मंशा के खिलाफ है । मुल्क के जिम्मेदारों को जनता के सुख के लिए बहुत सी बातें छुपना पड़ती है, बात बात पर झूठ बोलना पड़ता है । वे मानते हैं कि झूठ बोलना यदि पाप है तो जनता के सुख के लिए वे जिंदगी भर झूठ बोलने के लिए तैयार हैं । याद रखिए संत कह गए हैं कि अगर आपके किसी झूठ से दूसरे को सुख मिलता है तो वह सच से ज्यादा अच्छा है ।

अब गरीबी को ही लीजिए । किसी जमाने में सरकार ने नारा दिया था गरीबी हटाओ । सीधेसाधे गरीबों ने समझा कि हमारी हटाने वाले हैं  । लोगों को नहीं मालूम कि उनसे ज्यादा गरीब वे होते हैं जो अमीर भी दिखते हैं । जिनके पास बहुत होता है उन्हीं को बहुत चाहिए होता है । बरसों तक उनकी गरीबी हटती रही किसी को पता नहीं चला । जानते नहीं थे सो खुश थे । एकदिन जान गए तो सदमे में आ गए । गुस्सा इतना आया कि सत्ता में बैठे लोगों को घर बैठा दिया, पार्टी बदल दी । इतना करके वे खुश थे, नहीं जानते थे कि सरकार गई है तो आई भी सरकार ही है और सरकारें अपने चरित्र में कभी नहीं बदलती । अब गरीबों के कल्याण की योजनाएँ हैं । सस्ता अनाज, सस्ता इलाज के बाद लोग सस्ती मसाज की उम्मीद में घर से निकलना पसंद नहीं करते हैं । टीवी पर सुखदाई खबरे हैं और मोबाइल पर दो जीबी डाटा मुफ्त कैबरे करता है । हफ्ते में दो बार भोजन भंडारे ... और क्या चाहिए गरीब को ।

 

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बुधवार, 9 दिसंबर 2020

जनपथ सो रहा है, ‘डू नॉट डिस्टर्ब’



वे नाराज हुए, उन्हें लगता है कि एक राष्ट्रीय पार्टी को चलाने के लिए नाराज होना बहुत जरूरी है । उनके पिता के नाना जब नाराज होते थे तो पार्टी कसावट में आ जाती थी । दादी नाराज होती थी तब भी ऐसा ही होता था । अब वो नाराज होते हैं तो चुटकुले बनने लगते हैं । विदेश से नाराज होने का क्रेश कोर्स भी किया उन्होने पर बात नहीं बनी । जिम जा कर कसरत की, वजन उठाया, बॉडी बनाई पर पार्टी कमजोर होती गई । वे फिर नाराज हुए और दलदारों को कहा कि सुबह जल्दी उठो, जॉगिंग करो, लेकिन नहीं माने । बोले आप फोकट नाराज होते हो । आपको पता होना चाहिए कि खाने से पार्टी मजबूत होती है कसरत करने से नहीं । अब सवाल ये हैं कि कहाँ खाएं, कैसे खाएं ! खाने को कुछ नहीं होगा तो कितनी भी कसरत करो कोई फायदा नहीं है । और फिर यह भी ध्यान रखिए कि कमजोर आदमी ज्यादा नाराज होता है ।

इस बार वे थोड़ा डरते डरते नाराज हुए । बोले कुछ तो करना होगा । एक एक करके सारे राज्य भारत छोड़ो कहते जा रहे हैं । लगता है जैसे हम पार्टी नहीं आदिवासी हैं और हमें अपने जंगल से खदेड़ा जा रहा है । हमारे लिए जान दे देने वाले वो कम्युनिस्ट अब रहे नहीं । राजनीति में नक्सल होने की कोई परंपरा भी नहीं है । मैं अकेला बैठे बैठे अनुलोम विलोम करता रहूँ तो पार्टी के फेफड़ों में जान आ जाएगी क्या ! आप सब लोग सुख के साथी रहे हो, आज मुसीबत का समय आया है तो घर में बैठे भोजपुरी सिनेमा देख रहे हो ! क्या लगता नहीं कि आपको शरम आना चाहिए ?

“राजनीति में शरम का क्या काम !? ... बाबा आपको ठीक से पढ़ाया नहीं गया है । न आपको खाने का पता है और न ही शरम का ! अपनी कानभरू केबिनेट से कहो कि पहले पार्टी का इतिहास पढे और आपको भी पढ़ाए । बिना परंपरा जाने केवल नाराजी के भरोसे आप पार्टी को चला नहीं सकोगे ।“

 बाबा चौंक पड़े । ये क्या ! पार्टी में पहली बार किसी गांधी को लोग दस का नोट समझ कर बात करने लगे हैं । पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ दिया तो कट चाय की वेल्यू रह गई ! इससे तो अच्छा है कि पहले वे ही झोला उठा कर चल दें । किसी मामले में तो आगे निकालें । कुछ देर कि खामोशी के बाद बोले – आपको पता है परंपरा ? दादी के सामने आप लोग बैठने की हिम्मत नहीं कर पाते थे और लत्ते खींच रहे हो पोते के !! अगर परंपरा नहीं रही तो पार्टी कैसे रहेगी !  कह कर वे कोप के साथ कक्ष में चले गए ।

दूसरे दिन उनका दरवाजा नहीं खुला । लोगों को लगा कि नानी के यहाँ गए होंगे । हप्ता गुजर गया और नौकरों से बात बाहर आई कि वे सो रहे हैं । उठते हैं टीवी पर खबरे देखते हैं और सो जाते हैं । रात को जागते हैं और सुबह सो जाते हैं । सुबह किचन से मुर्गे की बांग होती है और उनके मुंह से गुडनाइट एवरी बडी निकल जाता है । पार्टी खुश नहीं है मुर्गा खुश है । अभी भी उनके कुछ फॉलोवर हैं, वे भी सो रहे हैं । सत्तर साल पार्टी ने काम किया उसकी थकान उनमें उतार आई है । देश के लिए उन्होने एक संदेश छोड़ दिया है, पार्टी सो रही है डू नॉट डिस्टर्ब 

 

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सोमवार, 7 दिसंबर 2020

भाई का जंगल बीमा



वे बीमा एजेंट नहीं हैं लेकिन जीवन रक्षा की गारंटी बने कुर्सी पर बैठे हैं । बिलकुल शांत ... फिलहाल । जैसे गांधी जी के वन एंड ओन्ली फॉलोवर हों । अपने बीमा व्यवसाय के शुरुवाती दिनों में वे चाकू रखते थे ताकि लोगों को समझाया जा सके कि जीवन रक्षा के मायने क्या होते हैं । जब काम बढ़ा तो देसी कट्टा और बाद में पिस्तौल वगैरह बिजनेस टूल बने । अब एरिया के नामी बीमा प्रदाता हैं । खुद की कंपनी है और कई मुलाजिम रखे हुए हैं जिन्हें एजेंट बताया जाता है । नई जगह जाते हैं और बैठ भर जाते हैं बाकी काम के लिए एजेंट यानी टाइगर-टामी दाएँ-बाएँ होते हैं । आज इनके साथ हीरा-हटेला, सलीम-करेला और मोहन-मिर्ची लगे हुए हैं । ऊपर से सब शाकाहारी आइटम हैं लेकिन अंदर से रेडमीट खोर हैं । मौका मिल जाए तो फाड़ खाने में कुत्तों को मात कर दें ।

पता चला कि एक नई पार्टी ने दुकान खोली है एरिया में, तो बकायदा आए हैं ओपनिंग के लिए । एक बार पॉलिसी ठीक से सेट जाए तो प्रीमियम आता रहता है । जिन्हें जीवन की ऊँच-नीच अच्छा-बुरा पता होता है वे जल्दी समझ जाते हैं । दिक्कत अनुभवहीनों के मामलों में होती है । जब तक ऊँच-नीच अच्छा-बुरा अनुभव नहीं कराओ मानते नहीं हैं । बीमे की फील्ड में आजकल मेहनत बहुत करना पड़ती है ।

“दुकान मालिक कौन है ?” मोहन-मिर्ची ने बात शुरू की ।

“मैं ही हूँ, क्या चाहिए आपको ?”

“जान ... जान चाहिए ... देगा क्या ?”

दुकानदार कुछ कुछ समझ गया, हाथ जोड़ कर बोला- “एक जान है भाई साब ... किस किस को दूँ ! धंधा है नहीं ऊपर से पुलिस, नगर पालिका, बैंक-बाज़ार, स्कूल-अस्पताल, लोगों का नगद-उधार और नसीब में बड़बोली सरकार ! मास्क है तो धक रहा है, नहीं होता तो मुंह छुपाने में मुश्किल हो जाती । इस छोटी सी जान के दीवाने हजारों है । रोज लगता है आज गई । ” मुसीबत ताड़ कर उसने अपनी गजल गा दी ।

“ओए ! उमराओ जान ... भाई बैठे हैं सामने । परमिसन ले के जान नहीं लेते हैं । एक मिनिट नहीं लगेगा और तेरी इच्छा पूरी हो जाएगी ।“

“भाई मतलब !! ... अच्छा क्राइम वाले हो !”

“ काय का क्राइम ! एं ? क्राइम व्राइम कुछ नहीं, जो होता है वो समाजसेवा होती है । भाई को आगे जाके इलेक्सन लड़ना है । इसलिए इधर किसी के साथ कुछ भी गलत नहीं होता है, एक सिस्टम है पब्लिक के फायदे के वास्ते । सिस्टम समझता है ना ? जैसे पुलिस सिस्टम है जनता की सेवा के लिए है, और जमके सेवा कर देती है, नेता-सरकार सब तुमारी सेवा में हैं वैसे ही हम भी सेवा में हैं । इसमें दिक्कत क्या है ? सब लोग पापी पेट के लिए पाप पुण्य देखे बगैर लगे हैं सेवा में ।  सेवा ही हमारा धरम है, लोकतन्त्र जिंदाबाद है ... है कि नहीं  । कोई नया काम तो कर नहीं रहे हैं जो देश में पहली बार हो रहा है । तुमने कभी अस्पताल से पूछा कि भगवान इत्ता सारा बिल किस बात का !? किसी स्कूल वाले से कहा कि मोटी मोटी फीस लेने के बाद भी कपड़ा-किताब जूता-मोजा में दीमक जैसे लगे क्यों चाट रहे हो !! मॉल में जाते हो तो तीन मोसम्बी का जूस दो सौ में पी मरते हो और कोई आवाज नहीं निकलती है ! ये सब सेवा कर रहे हैं ! और हम जरा सा हप्ता लेके जिंदगी देते हैं तो ततैया काट जाती है कान पे ! अभी हम टांग तोड़ दें तो अस्पताल वालों को मुँह माँगा पैसा दोगे या नहीं ? जब टांग नहीं तोड़ रहे हैं तो तुम्हारा दो लाख बचा रहे हैं या नहीं । इससे ज्यादा तो अस्पताल वालों से कमीशन ले सकते हैं भाई । लेकिन नहीं ले रहे तो कायको ? जनता की सेवा के लिए । मौत का डर दिखा के बीमे वाले भी प्रीमियम ले लेते हैं या नहीं ? इधर हजार पाँच सौ भारी पड़ रहे हैं तेरे को ? अभी जबड़े पे दो ठूँसे मार दें तो मंकी लगेगा ... मंकी समझता है ना ? बंदर ... बंदर केते हें इंडिया वाले । फिर क्या करेगा ... थाने जाएगा रिपोर्ट लिखवाने ?  तो इतना जान ले कि जैसे लोकतन्त्र के चार खंबे होते हैं वैसे ही ठोकतंत्र के भी चार खंबे होते हैं । एक खंबे कि शिकायत दूसरे खंबे से करेगा तो बच पाएगा क्या ?

“तो मेरे लिए क्या आदेश है ... भाई जी ?” दुकानदार ने चुप बैठे भाई की ओर निवेदन फैका । 

“अबे डाइरेक्ट नहीं ... भाई से सीधे बात करने की हिम्मत करता है !! ...इत्ता बड़ा हो गया तू ! इधर हटेला भाई से बात कर । “

“जी हटेला भाई ... मेरे लिए क्या आदेश है ?”

“ फस्ट बार पचास हजार ... बाद में पाँच सौ हफ्ते का । ... और एक लड़के को नौकरी पे रखने का । उसकी तन्खा पाँच हजार महिना ।“

“इतना !! ... कर्ज में हूँ भाई ... धंधा नहीं है ... नहीं दे सकता ।“

“फिर तो जान जाएगी ... सोचले । “

“पंद्रह दिन की मोहलत दोगे क्या भाई ?”

“क्या करेगा पन्द्रा दिन में ?”

“बीमा करवा लूँ फिर मार देना ... घर वालों की थोड़ी मदद हो जाएगी ।“

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