बुधवार, 30 दिसंबर 2020

रॉयल्टी ! ये क्या होता है!?

 




प्रकाशक महोदय पीले प्रकाश में सोने की सीआभा में दमक रहे थे । दो चार तोला असली भी पहने हुए थे । दफ्तर क्या था मंदिर ही समझो । अभी तथास्तु कह दें तो भक्त फेसबुक, वाट्स एप पर 'प्रकाशक-नारायण' की कथा करवाता फिरेगा । लेखक अपनी पाण्डुलिपि के साथ है । उसे लग रहा है कि पन्ना की जमीन से वह हीरा खोज लाया है । बस इसके ठीक ठीक दाम मिल जाएं तो वह घर मिठाई के साथ और दोस्तों के बीच खंबा लेकर लौटे । प्रकाशक ने बिना पूछे लेखक को पानी पिला दिया है । लेखक मना तो कर रहे थे लेकिन आग्रह था ।  दिल्ली की सरकार ने पानी के बिल फिलहाल माफ कर रखे हैं इसी का साइड इफेक्ट था । पांडुलिपि को देखते पलटते  प्रकाशक ने लेखक परिचय पर भी आठ परसेंट गौर किया, और पूछा- कॉफी-टी कुछ लेंगे ?

"अभी लेकर आए हैं । आपसे टी नहीं रॉयल्टी लेंगे " । लेखक बोले । 

"रॉयल्टी !! ये क्या होता है !!"  प्रकाश अपने पाण्डुलिपि पर रखे पेपरवेट को उठाकर किनारे किया।

" रॉयल्टी ... !  वही जो आप किताब छाप कर लेखक को देते हैं । मेहनताना, पारिश्रमिक या उसका हक। जो भी हो । " 

" हम तो नहीं देते हैं "। प्रकाशक ने छाती चौड़ी करके मन की बात कह दी ।

"लेकिन लोग कहते हैं कि आप देते हैं !!  हमारे इधर के संग्राम सिंह की किताब आपने छापी है , वह तो कहते हैं की उन्हें लाखों की रॉयल्टी मिलती है !" 


"दिल्ली में अब प्रदूषण ही प्रदूषण है। रॉयल्टी कहां है ! संग्राम सिंह एक किताब छपाने में दमे का शिकार हो गए, उसी को रॉयल्टी समझते होंगे  । " 

"देखिए साहब रॉयल्टी जरूरी है ।"

" किसके लिए ?"

"लेखक के लिए ।"

"लेखक के लिए रॉयल्टी नहीं है पाठक जरूरी होते हैं ... और आपको पता ही होगा  पाठकों की नस्ल खत्म होती जा रही है । अब पढ़ने का चलन नहीं रहा तो किताब कौन खरीदेगा और क्यों !'


'लेकिन आप छाप तो रहे हैं ।"


"वह तो इसलिए कि आप लोगों का मनोबल बना रहे ।  किताब के पन्नों के बीच सूखे फूल  सा पड़ा लेखक वर्षों तक बना रहता है । आज की तारीख में किताब लेखक के लिए वैक्सीन है । एक छप जाए तो फेफड़ों में जान रहती है ।"


 "कुछ तो दीजिए रॉयल्टी, ऐसा भी क्या । मेरे काफी पाठक हैं , रिश्तेदार भी बहुत हैं , हमारी तो गांव के गांव में रिश्तेदारी है । किताब तो बिक जाएगी आराम से ।"


" कितनी बिक जाएगी ?" 


"मान के चलिए की दो तीन सौ तो मामूली बात है । हाथो हाथ बिकेगी ।"  लेखक ने अपना कांफिडेंस रोका ।


"चलिए तीन सौ आप बेच लेना । मुनाफा भी आप ही रख लेना । ठीक है ?"


"लेकिन तीन सौ की रॉयल्टी भी तो बनेगी ?"


" कहा ना रॉयल्टी का चलन खत्म हुए बरसों हो गए हैं , और तीन सौ किताबों के लिए भी आपको पैसे देने होंगे । फिरी में कुछ नहीं होता है दुनिया में, हर चीज और बात की कीमत चुकाना पड़ती है ।"


"यह तो लगता है गलत है । ... लेकिन लेखक हूं , बाजार का गरल पी लूंगा । देश और साहित्य के लिए इतना तो करना ही पड़ेगा । लेखन साधना है, तप है,  हठ है, योग है और त्याग भी है । कबीर ने कहा भी है कि आप ठगाए सुख होए । तो ठीक है ।" 


"कुछ त्याग और करना पड़ेगा आपको। ... साठ हजार अलग से देने होंगे ।"


"वह क्यों !!"


"मुआवजा समझो । आपकी किताब पर हमारे प्रकाशन का नाम जाएगा । मानहानि या क्षतिपूर्ति जो भी मानना चाहो मान लो ।...  देखिए हमारे यहां छपने से आप तो महान हो जाएंगे फटाफट ... हमारा क्या होगा यह भी सोचिए।  जोखिम तो हम उठा रहे हैं ।"


" तो क्या कुछ कमाओगे नहीं इसमें !?" लेखक ने पूछा ।


" कमाएंगे क्यों नहीं ! हम लेखक थोड़ी है।" वे बोले ।


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*जवाहर चौधरी

BH 26 सुखलिया

(भारतमाता मन्दिर के पास)

इंदौर   452 010

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