बुधवार, 30 दिसंबर 2020

रॉयल्टी ! ये क्या होता है!?

 




प्रकाशक महोदय पीले प्रकाश में सोने की सीआभा में दमक रहे थे । दो चार तोला असली भी पहने हुए थे । दफ्तर क्या था मंदिर ही समझो । अभी तथास्तु कह दें तो भक्त फेसबुक, वाट्स एप पर 'प्रकाशक-नारायण' की कथा करवाता फिरेगा । लेखक अपनी पाण्डुलिपि के साथ है । उसे लग रहा है कि पन्ना की जमीन से वह हीरा खोज लाया है । बस इसके ठीक ठीक दाम मिल जाएं तो वह घर मिठाई के साथ और दोस्तों के बीच खंबा लेकर लौटे । प्रकाशक ने बिना पूछे लेखक को पानी पिला दिया है । लेखक मना तो कर रहे थे लेकिन आग्रह था ।  दिल्ली की सरकार ने पानी के बिल फिलहाल माफ कर रखे हैं इसी का साइड इफेक्ट था । पांडुलिपि को देखते पलटते  प्रकाशक ने लेखक परिचय पर भी आठ परसेंट गौर किया, और पूछा- कॉफी-टी कुछ लेंगे ?

"अभी लेकर आए हैं । आपसे टी नहीं रॉयल्टी लेंगे " । लेखक बोले । 

"रॉयल्टी !! ये क्या होता है !!"  प्रकाश अपने पाण्डुलिपि पर रखे पेपरवेट को उठाकर किनारे किया।

" रॉयल्टी ... !  वही जो आप किताब छाप कर लेखक को देते हैं । मेहनताना, पारिश्रमिक या उसका हक। जो भी हो । " 

" हम तो नहीं देते हैं "। प्रकाशक ने छाती चौड़ी करके मन की बात कह दी ।

"लेकिन लोग कहते हैं कि आप देते हैं !!  हमारे इधर के संग्राम सिंह की किताब आपने छापी है , वह तो कहते हैं की उन्हें लाखों की रॉयल्टी मिलती है !" 


"दिल्ली में अब प्रदूषण ही प्रदूषण है। रॉयल्टी कहां है ! संग्राम सिंह एक किताब छपाने में दमे का शिकार हो गए, उसी को रॉयल्टी समझते होंगे  । " 

"देखिए साहब रॉयल्टी जरूरी है ।"

" किसके लिए ?"

"लेखक के लिए ।"

"लेखक के लिए रॉयल्टी नहीं है पाठक जरूरी होते हैं ... और आपको पता ही होगा  पाठकों की नस्ल खत्म होती जा रही है । अब पढ़ने का चलन नहीं रहा तो किताब कौन खरीदेगा और क्यों !'


'लेकिन आप छाप तो रहे हैं ।"


"वह तो इसलिए कि आप लोगों का मनोबल बना रहे ।  किताब के पन्नों के बीच सूखे फूल  सा पड़ा लेखक वर्षों तक बना रहता है । आज की तारीख में किताब लेखक के लिए वैक्सीन है । एक छप जाए तो फेफड़ों में जान रहती है ।"


 "कुछ तो दीजिए रॉयल्टी, ऐसा भी क्या । मेरे काफी पाठक हैं , रिश्तेदार भी बहुत हैं , हमारी तो गांव के गांव में रिश्तेदारी है । किताब तो बिक जाएगी आराम से ।"


" कितनी बिक जाएगी ?" 


"मान के चलिए की दो तीन सौ तो मामूली बात है । हाथो हाथ बिकेगी ।"  लेखक ने अपना कांफिडेंस रोका ।


"चलिए तीन सौ आप बेच लेना । मुनाफा भी आप ही रख लेना । ठीक है ?"


"लेकिन तीन सौ की रॉयल्टी भी तो बनेगी ?"


" कहा ना रॉयल्टी का चलन खत्म हुए बरसों हो गए हैं , और तीन सौ किताबों के लिए भी आपको पैसे देने होंगे । फिरी में कुछ नहीं होता है दुनिया में, हर चीज और बात की कीमत चुकाना पड़ती है ।"


"यह तो लगता है गलत है । ... लेकिन लेखक हूं , बाजार का गरल पी लूंगा । देश और साहित्य के लिए इतना तो करना ही पड़ेगा । लेखन साधना है, तप है,  हठ है, योग है और त्याग भी है । कबीर ने कहा भी है कि आप ठगाए सुख होए । तो ठीक है ।" 


"कुछ त्याग और करना पड़ेगा आपको। ... साठ हजार अलग से देने होंगे ।"


"वह क्यों !!"


"मुआवजा समझो । आपकी किताब पर हमारे प्रकाशन का नाम जाएगा । मानहानि या क्षतिपूर्ति जो भी मानना चाहो मान लो ।...  देखिए हमारे यहां छपने से आप तो महान हो जाएंगे फटाफट ... हमारा क्या होगा यह भी सोचिए।  जोखिम तो हम उठा रहे हैं ।"


" तो क्या कुछ कमाओगे नहीं इसमें !?" लेखक ने पूछा ।


" कमाएंगे क्यों नहीं ! हम लेखक थोड़ी है।" वे बोले ।


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*जवाहर चौधरी

BH 26 सुखलिया

(भारतमाता मन्दिर के पास)

इंदौर   452 010

मंगलवार, 29 दिसंबर 2020

फोटोफ्रेम में फंसा आदमी

 



इन दिनों अपनी फोटो पर मेरा ध्यान बार-बार जाता है । आजकल हर हाथ में कैमरे वाला फोन है तो फोटो ऐसे खींचे जा रहे हैं मानो संसार में इसी कर्म के लिए भेजा है ईश्वर ने । या फिर सरकार को सालाना रिटर्न के साथ हर बार नए फोटो दिखाना पड़ेंगे । कभी मन होता है कि सेल्फी दर सेल्फी लेते रहें,  शायद कोई पसंद का फोटो मिल जाए ।

 रोज अखबार फोटो में शेष रह गए लोगों की सूचना देता है । कुछ के यहां जाना भी पड़ता है । देखते हैं फोटो बढ़िया है । सारे दाग धब्बे फोटो से गायब हैं ।  आजकल तकनीकी का जमाना है आदमी से बेहतर उसकी फोटो होती है । मेरे माथे पर चेचक और चोट के दो निशान हैं । जब भी फोटो खिंचवाई फोटोग्राफर ने दोनों निशान गायब कर दिए और इसे अपनी कला कहा । इससे थोड़ा बहुत पहचान का संकट बना, पर अच्छा लगा । गालों पर मुहांसों के छोड़े हुए निशान किसको अच्छे लगते हैं ! स्टूडियो वाले इस बात को बहुत अच्छे से जानते हैं । एक बार तो फोटो इतना साफ सुथरा बना दिया कि जरूरी लगने लगा कि नीचे अपना नाम भी लिख दूं । कॉलेज के दिनों में ऐसी एक घटना हुई जो भूलती नहीं है । परिचय पत्र के लिए फोटो चाहिए था । फोटो चिपकाकर प्रिंसिपाल के पास हस्ताक्षर के लिए उपस्थित हुए तो उनका सवाल था कि यह कौन है !?  मतलब फोटो किसकी है , बताया कि मेरी है सर । वे बोले जैसी शक्ल है वैसी फोटो लाओ । इसमें तुम्हें कौन पहचानेगा । मजबूरन बिना टचिंग की फोटो लेकर जाना पड़ा जो पसंद नहीं थी । अच्छी तरह याद है कि मैंने परिचय पत्र हर बार इसी तरह आगे बढ़ाया जैसे फटा नोट चलाने की कोशिश करता है कोई ।

 बहुत समय बाद जब पिता बीमार रहने लगे मैंने फोटो को लेकर उनकी चिंता को महसूस किया । उनके जमाने में फोटो कम उतरते थे । जो थे उनमें ज्यादातर दीवार पर टंगे हुए थे । उनके ही थे लेकिन अब लगता था किसी और के फोटो हैं । समय के साथ शक्ल इतनी बदल जाती है आदमी खुद अपने आप से परायापन महसूस करने लगता है । उन्हें एक नई फोटो चाहिए थी जिसके विस्तार में जाए बिना उनकी पहचान साफ हो । आखिर एक फोटो ऐसी खींची गई जिससे उनकी मनोकामना पूर्ति हो गई । उस फोटो की कई प्रतियां बनी । एक बड़ी सी, जिसे फ्रेम करवाकर ठीक से सामने दीवार पर लगवा दी । अब आगंतुक की प्रतिक्रिया उनकी नई जरूरत बन गई । तब मुझे यह सब ठीक नहीं लगा था ।


मुझे अपनी एक अच्छी फोटो की जरूरत हर सुबह महसूस होती है । पता नहीं क्यों लगता है कि फोटो अच्छा होगा तो लोगों में अच्छी भावनाएं आएंगी । हो सकता है लोग कहेंआदमी अच्छा था । हालांकि कबीर ने कहा है की ऐसी करनी कर चलो कि हम हंसे जग रोए । अब करनी तो सबकी एक जैसी है । और जैसी भी हो गई उस फाइल को दोबारा खोल नहीं सकता है ।  ज्यादातर मामलों में कर्म छुपाने की चीज होते जा रहे हैं । वह तो अच्छा है कि जा चुके आदमी के बारे में कोई बुरा बोलने की परम्परा नहीं है । सच तो यह है की किसी का बुरा देखो तो वह अपना ज्यादा लगता है । वैसे फुर्सत किसको है अब ! पहले भी नही थी, कहते हैं आज मरे कल दूसरा दिन । अच्छी फोटो सामने है तो फूल चढ़ा दो । बस हो गया असेसमेंट । ऊपर वाले का काम ऊपरवाला जाने । आदमी कर्म ऊपर ले जाता है और बढ़िया सा फोटो नीचे छोड़ जाता है । उस फोटोग्राफर की याद आई जिसने मुझे अपनी कला से आई एस जौहर बना दिया था । पता चला कि वह माला और फ्रेम के बीच फंसे मुस्कुरा रहे हैं । बेटे से पूछा -- आखरी तक ऐसे ही दिखते थे क्या ? 

लड़का बोला -- दिखने से क्या होता है !!  नील-पासबुक थे । 

उसकी बात समझ कर कहा कि सिकंदर गया तब उसके भी हाथ खाली थे । उसने गौर से देखा जिसे लगभग घूरना भी कहा जा सकता है, बोला -- हाथ खाली थे लेकिन पासबुक यानी खजाने में तो था । पीछे जो रह जाते हैं उनका काम सिर्फ फोटो से चलता है क्या !? महल-बाड़ा ना हो तो शेरवानी में पुरखे फिल्मी पोस्टर से ज्यादा कुछ नजर नहीं आते हैं ।

सोमवार, 28 दिसंबर 2020

दमदमा दमदम

 




यहां दम की बात हो रही है । किसी के लिए बुरा नहीं सोच रहे हैं । हालांकि दम यानी दमें की बीमारी बुरी होती है  । किसी भी बीमार से पूछिए यही कहेगा की 'भगवान यह बीमारी किसी को ना दें, बहुत बुरी होती है' । लेकिन हम अपनी बता रहे हैं वह भी मजे के लिए । कोई डायरेक्ट दिल पर ना लें , वैधानिक चेतावनी जैसा है  , मानना ना मानना आपकी मर्जी, दिल आपका । वैसे दिल का क्या पच्चीसों डेंट तो पहले से ही लगे पड़े होंगे ।


हम देसी लोग जिसे दमा कहते हैं ना उसे ही शहरी लोग अस्थमा कहते हैं । वैसे नाम में क्या रखा है,  गुलाब का हो या बीमारी का या फिर आदमी का ही क्यों ना हो । भारतीय संस्कृति में बीमारियों को भी सम्मानित करने का रिवाज था । सो दमे को राजरोग कहा जाता है । आप यों चाहे फकीरी इंजॉय कर रहे हों, लेकिन दमावान होते ही राजयोगी हो जाते हैं । अगर इस इज्जत अफजाई को तवज्जो दें तो हम भी हो गए । इस बात को संस्कृति समर्थक खासतौर पर नोट करें तो राजरोगी भी अपने को मुख्यधारा में मान कर छाती छप्पन कर ले ।


देखिए हमारी जिम्मेदारी को जरा अलग से महसूस कीजिए। जब संसार सारी रात सोता है,  यहां तक कि भगवान भी, तब देशभर में दमदार जागते हैं । तो  भइया ऐसी ही एक रात की बात है अपनी । दम से हाथापाई करते बहुत देर हो गई थी तो याद किया भगवान को । दमदारों के पास उनकी डायरेक्ट हॉट लाइन होती है । हमने लॉजिक रखा कि देखिए साहब, आत्मा सो परमात्मा, सब जानते हैं ।  इधर आत्मा जो है दम इसे बेदम हुई जा रही है और उधर परमात्मा मजे में स्वर्ग के सुनहरे सपने देखें !! यह नहीं हो सकता । माना की आत्मा जमीनी कार्यकर्ता है और परमात्मा हाईकमान । लेकिन सुनना तो पड़ेगा । परमात्मा के रहते आत्मा को दमे ने दबोच रखा है और सारी ऑक्सीजन कॉंग्रेसी खेंचे जा रहे हैं ! यह तो नहीं चलेगा कुछ कीजिए वरना ....

परमात्मा 'वरना' के झांसे में आ गए और 'फूं' जैसा कुछ किया फटाफट । फौरन दमे ने अपनी पकड़ ढीली कर दी । वे बोले - अब कैसा लग रहा है ?


हमने यानी आत्मा ने कहा -- राहत महसूस हो रही है । धन्यवाद है जी आपका ।

 परमात्मा बोले धन्यवाद से काम नहीं चलेगा । दमे पर कुछ सुनाओ । कोई अच्छा सा  दमदार व्यंग्य । 

आत्मा बोली- अभी बड़े दर्द में हूँ, फिर दामे पर कोई व्यंग्य लिखता है क्या !!


दूसरों का कष्ट सुनने से परमात्मा को भी मजा आता है यह तो चौंकाने वाली बात है ! आत्मा बोली -- अभी कहो तो कविता सुना दूँ,  इन दिनों व्यंग से ज्यादा अच्छी कविताएं छन रही है बाजार में ।

परमात्मा अचानक उठकर खड़े हो गए, बोले -- तुम कविता संक्रमित हो !! 

ओह मैं सैनिटाइजर नहीं लाया ! अगर कविता की चपेट में हो तो चौदह दिनों के लिए क्वारंटाइन हो जाओ, इसी में साहित्य जगत की भलाई है । सोचो अगर  संक्रमण फैला और देश में सवा सौ करोड़ कवि पैदा हो गए तो लोग लॉक डाउन में भी मर जाएंगे । श्रोता नहीं मिले तो कवि जानलेवा हो जाता है । दुनिया पहले ही  आतंकवादी गतिविधियों से  परेशान है । तुम अच्छी आत्मा हो,  मुझे क्षमा करो । कहते हुए परमात्मा चले गए। 


निद्रा एक तरह की अचेतना का समय होता है । ज्ञानी तो यहां तक कहते हैं कि यह एक तरह की स्थाई मृत्यु है । इस तरह प्राणी रोज मरता है और रोज जीता है । कुछ लोग दोपहर में आधा-एक घंटा अतिरिक्त मर लेते हैं । गीता में कहा गया है की आत्मा वस्त्र बदलती है और उन्हें धारण करती है , लेकिन दमदार लोग सोते नहीं हैं इसलिए उसे औपचारिक रूप से जागने की जरूरत भी नहीं पड़ती है । घर में अगर एक खांसते जागते पिताजी पड़े हों तो घर के बाकी लोग चैन की नींद सो सकते हैं ।


ऐसी ही एक रात है और मैं जाग रहा हूँ । मोहल्ले के कुत्ते तक सो गए हैं । बाहर सुई पटक सन्नाटा है । पास लगे हाईवे से ट्रकों की आवाजाही की आवाज नहीं आ रही है । लग रहा है सन्नाटे का हाईवे पसरा पड़ा है दारू पी के । आज तो हवा भी बंद है,  पत्ते तक हिल नहीं रहे हैं । इसलिए अंदर के शोर को साफ-साफ महसूस कर रहा हूँ । सांसो में साएं साएं की आवाज मन की बात की तरह जबरिया सुनाई दे रही है । राहत नहीं मिल रही, शोर बहुत हो रहा है । लग रहा है शरीर में सांस एक आवश्यक बुराई है । सांस का सिस्टम नहीं होता तो आज मुझे दमा भी नहीं होता । लोगों को पता नहीं मछलियों को दमा होता है या नहीं । मस्तिष्क में पूरा संसार घूम रहा है । जो गुजर गया और जो गुजर सकता है वह दृश्य सा आ जा रहा है । एक बार फिर कहा -- कुछ करो परमात्मा,  इधर ले लो या फिर उधर आने दो । डॉक्टर मरने नहीं देते दमा जीने नहीं देता । एलओसी का गांव हो गए हमारे फेफड़े । 


दूसरे दिन बारिश हो रही थी, जोरदार से जरा कम । तीन-चार दिनों तक मौसम रह रह कर सुबकता रहा । किसी की हिम्मत नहीं कि बिना काम बाहर निकलता ।  हिदायतें , सावधानी और दवाओं के अलावा लोगों की दुआओं का भी जोर था कि दमे ने सिर नहीं उठाया । रात को खांसी नहीं  आई ! 

घर वाले ठीक से सो नहीं सके । रात में तीन चार बार नाक के पास हाथ लगाकर चेक किया है --"अभी तो हैं ! सो रहे हैं शायद !"


सुबह मित्रों के फोन आए । कैसा है भाई ? सावधानी रख यार । मौसम जानलेवा है । तेरी ही चिंता लगी रहती है । वैसे डरना मत ... दमे वालों की उम्र लंबी होती है । हालात भले ही खराब रहें पर जिंदा ज्यादा रहते हैं ।


शनिवार, 12 दिसंबर 2020

जो नहीं जानते और नहीं जानते कि नहीं जानते

 



बस्ती में एक सीधासाधा आदमी था जो हमेशा खुश रहता था इसलिए लोग उसे पागल कहते थे । कुछ की राय थी कि वह मूर्ख है वरना आज की डेट में दस प्रतिशत समझदारी वाला आदमी भी खुश नहीं रहता है । जिनके पास जरा भी समझ या ज्ञान है वे बकायदा दुखी हैं । आप कह सकते हैं कि जरा सा ज्ञानी होना भी दुखी होने के लिए काफी है । जो नहीं जानता वही खुश है, जो जनता है वो दुखी है । कबीर कह गए हैं – “सुखिया सब संसार, खावै और सोवै ; दुखिया दास कबीर, जागै और रोवै” । अच्छा राजा वही होता है जो चाहे जो करे पर जनता को कुछ भी जानने न दे । जिस दिन लोग जानने लगेंगे वे दुखी होने लगेंगे । जो नहीं जानते हैं और नहीं जानते हैं कि वो नहीं जानते बस वही सुखी हैं, खुश हैं । जो जानने की कोशिश में लगे रहते हैं वे दरअसल दुखी होने का आत्मघाती प्रयास कर रहे होते हैं । एक विद्वान बोले हैं कि लोकतन्त्र दुखी करने, दुखी होने और दुखी बनाए रखने की व्यवस्था है । व्यावहारिक जीवन में भी कहा गया है कि बंधी मुट्ठी लाख की, खुल गई तो खाक की । राइट टू इन्फर्मेशन यानी सूचना का अधिकार क्या है ! यही ना कि मुट्ठी खोलिए । आप पूछिए, जानिए और दुखी होइए । अगर मीडिया में कुछ जुगाड़ है तो इसे छ्पवा दीजिये, आपका दुख अकेले का दुख नहीं रहेगा । जनहित याचिका लगा दीजिए, देश भी दुखी हो जाएगा । आपको लगेगा कि आप नागरिक अधिकारों का लाभ उठा रहे हैं लेकिन सच ये है कि आप स्वेच्छा से दुखी हो रहे हैं और दूसरों को दुखी कर रहे हैं । मूल रूप से यह काम सरकार की मंशा के खिलाफ है । मुल्क के जिम्मेदारों को जनता के सुख के लिए बहुत सी बातें छुपना पड़ती है, बात बात पर झूठ बोलना पड़ता है । वे मानते हैं कि झूठ बोलना यदि पाप है तो जनता के सुख के लिए वे जिंदगी भर झूठ बोलने के लिए तैयार हैं । याद रखिए संत कह गए हैं कि अगर आपके किसी झूठ से दूसरे को सुख मिलता है तो वह सच से ज्यादा अच्छा है ।

अब गरीबी को ही लीजिए । किसी जमाने में सरकार ने नारा दिया था गरीबी हटाओ । सीधेसाधे गरीबों ने समझा कि हमारी हटाने वाले हैं  । लोगों को नहीं मालूम कि उनसे ज्यादा गरीब वे होते हैं जो अमीर भी दिखते हैं । जिनके पास बहुत होता है उन्हीं को बहुत चाहिए होता है । बरसों तक उनकी गरीबी हटती रही किसी को पता नहीं चला । जानते नहीं थे सो खुश थे । एकदिन जान गए तो सदमे में आ गए । गुस्सा इतना आया कि सत्ता में बैठे लोगों को घर बैठा दिया, पार्टी बदल दी । इतना करके वे खुश थे, नहीं जानते थे कि सरकार गई है तो आई भी सरकार ही है और सरकारें अपने चरित्र में कभी नहीं बदलती । अब गरीबों के कल्याण की योजनाएँ हैं । सस्ता अनाज, सस्ता इलाज के बाद लोग सस्ती मसाज की उम्मीद में घर से निकलना पसंद नहीं करते हैं । टीवी पर सुखदाई खबरे हैं और मोबाइल पर दो जीबी डाटा मुफ्त कैबरे करता है । हफ्ते में दो बार भोजन भंडारे ... और क्या चाहिए गरीब को ।

 

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बुधवार, 9 दिसंबर 2020

जनपथ सो रहा है, ‘डू नॉट डिस्टर्ब’



वे नाराज हुए, उन्हें लगता है कि एक राष्ट्रीय पार्टी को चलाने के लिए नाराज होना बहुत जरूरी है । उनके पिता के नाना जब नाराज होते थे तो पार्टी कसावट में आ जाती थी । दादी नाराज होती थी तब भी ऐसा ही होता था । अब वो नाराज होते हैं तो चुटकुले बनने लगते हैं । विदेश से नाराज होने का क्रेश कोर्स भी किया उन्होने पर बात नहीं बनी । जिम जा कर कसरत की, वजन उठाया, बॉडी बनाई पर पार्टी कमजोर होती गई । वे फिर नाराज हुए और दलदारों को कहा कि सुबह जल्दी उठो, जॉगिंग करो, लेकिन नहीं माने । बोले आप फोकट नाराज होते हो । आपको पता होना चाहिए कि खाने से पार्टी मजबूत होती है कसरत करने से नहीं । अब सवाल ये हैं कि कहाँ खाएं, कैसे खाएं ! खाने को कुछ नहीं होगा तो कितनी भी कसरत करो कोई फायदा नहीं है । और फिर यह भी ध्यान रखिए कि कमजोर आदमी ज्यादा नाराज होता है ।

इस बार वे थोड़ा डरते डरते नाराज हुए । बोले कुछ तो करना होगा । एक एक करके सारे राज्य भारत छोड़ो कहते जा रहे हैं । लगता है जैसे हम पार्टी नहीं आदिवासी हैं और हमें अपने जंगल से खदेड़ा जा रहा है । हमारे लिए जान दे देने वाले वो कम्युनिस्ट अब रहे नहीं । राजनीति में नक्सल होने की कोई परंपरा भी नहीं है । मैं अकेला बैठे बैठे अनुलोम विलोम करता रहूँ तो पार्टी के फेफड़ों में जान आ जाएगी क्या ! आप सब लोग सुख के साथी रहे हो, आज मुसीबत का समय आया है तो घर में बैठे भोजपुरी सिनेमा देख रहे हो ! क्या लगता नहीं कि आपको शरम आना चाहिए ?

“राजनीति में शरम का क्या काम !? ... बाबा आपको ठीक से पढ़ाया नहीं गया है । न आपको खाने का पता है और न ही शरम का ! अपनी कानभरू केबिनेट से कहो कि पहले पार्टी का इतिहास पढे और आपको भी पढ़ाए । बिना परंपरा जाने केवल नाराजी के भरोसे आप पार्टी को चला नहीं सकोगे ।“

 बाबा चौंक पड़े । ये क्या ! पार्टी में पहली बार किसी गांधी को लोग दस का नोट समझ कर बात करने लगे हैं । पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ दिया तो कट चाय की वेल्यू रह गई ! इससे तो अच्छा है कि पहले वे ही झोला उठा कर चल दें । किसी मामले में तो आगे निकालें । कुछ देर कि खामोशी के बाद बोले – आपको पता है परंपरा ? दादी के सामने आप लोग बैठने की हिम्मत नहीं कर पाते थे और लत्ते खींच रहे हो पोते के !! अगर परंपरा नहीं रही तो पार्टी कैसे रहेगी !  कह कर वे कोप के साथ कक्ष में चले गए ।

दूसरे दिन उनका दरवाजा नहीं खुला । लोगों को लगा कि नानी के यहाँ गए होंगे । हप्ता गुजर गया और नौकरों से बात बाहर आई कि वे सो रहे हैं । उठते हैं टीवी पर खबरे देखते हैं और सो जाते हैं । रात को जागते हैं और सुबह सो जाते हैं । सुबह किचन से मुर्गे की बांग होती है और उनके मुंह से गुडनाइट एवरी बडी निकल जाता है । पार्टी खुश नहीं है मुर्गा खुश है । अभी भी उनके कुछ फॉलोवर हैं, वे भी सो रहे हैं । सत्तर साल पार्टी ने काम किया उसकी थकान उनमें उतार आई है । देश के लिए उन्होने एक संदेश छोड़ दिया है, पार्टी सो रही है डू नॉट डिस्टर्ब 

 

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सोमवार, 7 दिसंबर 2020

भाई का जंगल बीमा



वे बीमा एजेंट नहीं हैं लेकिन जीवन रक्षा की गारंटी बने कुर्सी पर बैठे हैं । बिलकुल शांत ... फिलहाल । जैसे गांधी जी के वन एंड ओन्ली फॉलोवर हों । अपने बीमा व्यवसाय के शुरुवाती दिनों में वे चाकू रखते थे ताकि लोगों को समझाया जा सके कि जीवन रक्षा के मायने क्या होते हैं । जब काम बढ़ा तो देसी कट्टा और बाद में पिस्तौल वगैरह बिजनेस टूल बने । अब एरिया के नामी बीमा प्रदाता हैं । खुद की कंपनी है और कई मुलाजिम रखे हुए हैं जिन्हें एजेंट बताया जाता है । नई जगह जाते हैं और बैठ भर जाते हैं बाकी काम के लिए एजेंट यानी टाइगर-टामी दाएँ-बाएँ होते हैं । आज इनके साथ हीरा-हटेला, सलीम-करेला और मोहन-मिर्ची लगे हुए हैं । ऊपर से सब शाकाहारी आइटम हैं लेकिन अंदर से रेडमीट खोर हैं । मौका मिल जाए तो फाड़ खाने में कुत्तों को मात कर दें ।

पता चला कि एक नई पार्टी ने दुकान खोली है एरिया में, तो बकायदा आए हैं ओपनिंग के लिए । एक बार पॉलिसी ठीक से सेट जाए तो प्रीमियम आता रहता है । जिन्हें जीवन की ऊँच-नीच अच्छा-बुरा पता होता है वे जल्दी समझ जाते हैं । दिक्कत अनुभवहीनों के मामलों में होती है । जब तक ऊँच-नीच अच्छा-बुरा अनुभव नहीं कराओ मानते नहीं हैं । बीमे की फील्ड में आजकल मेहनत बहुत करना पड़ती है ।

“दुकान मालिक कौन है ?” मोहन-मिर्ची ने बात शुरू की ।

“मैं ही हूँ, क्या चाहिए आपको ?”

“जान ... जान चाहिए ... देगा क्या ?”

दुकानदार कुछ कुछ समझ गया, हाथ जोड़ कर बोला- “एक जान है भाई साब ... किस किस को दूँ ! धंधा है नहीं ऊपर से पुलिस, नगर पालिका, बैंक-बाज़ार, स्कूल-अस्पताल, लोगों का नगद-उधार और नसीब में बड़बोली सरकार ! मास्क है तो धक रहा है, नहीं होता तो मुंह छुपाने में मुश्किल हो जाती । इस छोटी सी जान के दीवाने हजारों है । रोज लगता है आज गई । ” मुसीबत ताड़ कर उसने अपनी गजल गा दी ।

“ओए ! उमराओ जान ... भाई बैठे हैं सामने । परमिसन ले के जान नहीं लेते हैं । एक मिनिट नहीं लगेगा और तेरी इच्छा पूरी हो जाएगी ।“

“भाई मतलब !! ... अच्छा क्राइम वाले हो !”

“ काय का क्राइम ! एं ? क्राइम व्राइम कुछ नहीं, जो होता है वो समाजसेवा होती है । भाई को आगे जाके इलेक्सन लड़ना है । इसलिए इधर किसी के साथ कुछ भी गलत नहीं होता है, एक सिस्टम है पब्लिक के फायदे के वास्ते । सिस्टम समझता है ना ? जैसे पुलिस सिस्टम है जनता की सेवा के लिए है, और जमके सेवा कर देती है, नेता-सरकार सब तुमारी सेवा में हैं वैसे ही हम भी सेवा में हैं । इसमें दिक्कत क्या है ? सब लोग पापी पेट के लिए पाप पुण्य देखे बगैर लगे हैं सेवा में ।  सेवा ही हमारा धरम है, लोकतन्त्र जिंदाबाद है ... है कि नहीं  । कोई नया काम तो कर नहीं रहे हैं जो देश में पहली बार हो रहा है । तुमने कभी अस्पताल से पूछा कि भगवान इत्ता सारा बिल किस बात का !? किसी स्कूल वाले से कहा कि मोटी मोटी फीस लेने के बाद भी कपड़ा-किताब जूता-मोजा में दीमक जैसे लगे क्यों चाट रहे हो !! मॉल में जाते हो तो तीन मोसम्बी का जूस दो सौ में पी मरते हो और कोई आवाज नहीं निकलती है ! ये सब सेवा कर रहे हैं ! और हम जरा सा हप्ता लेके जिंदगी देते हैं तो ततैया काट जाती है कान पे ! अभी हम टांग तोड़ दें तो अस्पताल वालों को मुँह माँगा पैसा दोगे या नहीं ? जब टांग नहीं तोड़ रहे हैं तो तुम्हारा दो लाख बचा रहे हैं या नहीं । इससे ज्यादा तो अस्पताल वालों से कमीशन ले सकते हैं भाई । लेकिन नहीं ले रहे तो कायको ? जनता की सेवा के लिए । मौत का डर दिखा के बीमे वाले भी प्रीमियम ले लेते हैं या नहीं ? इधर हजार पाँच सौ भारी पड़ रहे हैं तेरे को ? अभी जबड़े पे दो ठूँसे मार दें तो मंकी लगेगा ... मंकी समझता है ना ? बंदर ... बंदर केते हें इंडिया वाले । फिर क्या करेगा ... थाने जाएगा रिपोर्ट लिखवाने ?  तो इतना जान ले कि जैसे लोकतन्त्र के चार खंबे होते हैं वैसे ही ठोकतंत्र के भी चार खंबे होते हैं । एक खंबे कि शिकायत दूसरे खंबे से करेगा तो बच पाएगा क्या ?

“तो मेरे लिए क्या आदेश है ... भाई जी ?” दुकानदार ने चुप बैठे भाई की ओर निवेदन फैका । 

“अबे डाइरेक्ट नहीं ... भाई से सीधे बात करने की हिम्मत करता है !! ...इत्ता बड़ा हो गया तू ! इधर हटेला भाई से बात कर । “

“जी हटेला भाई ... मेरे लिए क्या आदेश है ?”

“ फस्ट बार पचास हजार ... बाद में पाँच सौ हफ्ते का । ... और एक लड़के को नौकरी पे रखने का । उसकी तन्खा पाँच हजार महिना ।“

“इतना !! ... कर्ज में हूँ भाई ... धंधा नहीं है ... नहीं दे सकता ।“

“फिर तो जान जाएगी ... सोचले । “

“पंद्रह दिन की मोहलत दोगे क्या भाई ?”

“क्या करेगा पन्द्रा दिन में ?”

“बीमा करवा लूँ फिर मार देना ... घर वालों की थोड़ी मदद हो जाएगी ।“

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बुधवार, 14 अक्तूबर 2020

घर में बहार आई है !

 


 किसी समय मोहल्ले के बीचों बीच तन कर खड़े पुराने मकान की मुंडेर पर पीपल हरियाने लगा था । आज शहर के लोग चौंक सकते हैं कि मुंडेर पर पीपल कैसे उग सकता है !! दरअसल पंछी बीट कर जाते हैं , उसी में बीज भी होते हैं, प्रकृति का कमाल है वरना इतनी ऊपर पीपल आएगा कहाँ से ! थोड़ी हवा-नमी मिली, अनुकूलता हुई तो अंकुरण भी हो गया । मकान पुश्तैनी है, कई पीढ़ियाँ इसमें पलीं, बढ़ीं और चली गईं । वक्त से साथ लापरवाही ने भी अपनी जगह बना ली । जिनके पास ज़िम्मेदारी थी साफ सफाई की उन्होने ध्यान नहीं दिया । पहले सीजन में ही पीपल का हरापन दिखने लगा । दूर से देखने पर लागता जैसे सजावट के लिए गमला रखा गया है । कुछ अनुभवी जरूर बोले कि मुंडेर का पीपल अच्छा नहीं होता है । लेकिन ध्यान नहीं दिया किसी ने, बात आज-कल पर टलती रही । इधर पीपल मिशन पर था, दीवार में जहाँ जहाँ भी दरार थी जड़ें अपना काम करती रहीं ।  पीपल का फैलाव ऊपर इतना नहीं दीख रहा था जितना नीचे यानी जड़ों के जरिए उसने कर लिया ।

गरमी के मौसम में जब तपन बढ़ी हुई थी और आसपास हरा बहुत कम देखने को मिल रहा था तब मुंडेर के इस पीपल को देखना लोगों को अच्छा लगने लगा । जैसे किसी धराधीश की पगड़ी पर लगी कलंगी हो । सबने हरेपन पर ध्यान दिया और जड़ों के कारनामे देखना भूल गए । लोग सोचते कि पीपल की छांह फैलेगी तो घर में शीतलता उतर आएगी । पीपल के मार्फत सुकून और आनंद जैसे सपनों में सीरियल की तरह आने लगे । इस बीच धर्म के जानकार सक्रिय हुए, उन्होने बताया कि पीपल में देवताओं का वास होता है । मुंडेर का यह वृक्ष देवाश्रय है और घर के लिए बड़ा ही शुभ है । पीपल के नीचे दीपक जलाने की परंपरा है । घर के लोगों में भक्ति का भाव जागृत हो गया । जिन्हें मुंडेर और घर बचना था वे पीपल पूजक हो गए । घर की हमेशा लाल साड़ी पहनने वाली छोटी बहू शिक्षित है और वास्तविकता को जानती समझती है । उसने कई बार कहा कि घर की सुरक्षा के लिए इसे उखाड़ फ़ैकना चाहिए । इसके लिए उसने आसपास खूब चर्चा की, माहौल बनाने की कोशिश की लेकिन कहीं से कोई समर्थन नहीं मिला । उल्टे उसकी हर कोशिश भक्तों को ढीठ बनती गई ।  उत्साहीजनों ने तरह तरह से पीपल को सींचने की युक्ति बना ली । वातवरण और माहौल अनुकूल हो गया तो मकान पर पीपल की पकड़ और मजबूत हो गई । उसकी जड़ें तेजी से दरारों में धँसते हुए जमीन की ओर बढ़ने लगीं । पीपल के कारण घर दूर से ही पहचाना जाने लगा । उसे नया नाम भी मिल गया पीपल वाला घर । अब घर खास है । जमीन के साथ भक्तों में भी उसकी जड़ें गहरी उतर गईं, वे छोटी बहू को आँख दिखाने लगे ।  वह जान रही थी कि पीपल के कारण बरसों से खड़ी दीवारें कमजोर और खोखली होती जा रही हैं लेकिन उसने मुंह बंद रखने में ही अपनी भलाई समझी । उसे सुनने समझने वाला कोई नहीं था । गालिब के बोल हवाओं में  थे – “उग रहा है दर-ओ-दीवार से सब्जा गालिब;  हम बियाबाँ में हैं और घर में बहार आई है “ ।  

 

और एक दिन वही हुआ जिसका डर था । जड़ों ने दीवारें फाड़ दीं । यह बारिश का मौसम था । पीपल को जैसे पंख लग गए । जड़ें ऐसे फैलीं कि उन्होने पूरे घर को जकड़ लिया । पीपल में देव बसते हैं सो को उखाड़ने की हिम्मत किसी ने नहीं की । हर तरफ दिया जलाओ, ताली बजाओ की आवाजें आने लगीं । जल्द ही पीपल दीवारों को निगल कर आत्मनिर्भर हो गया । आखिर घर के लोगों को पलायन कर दूसरी जगह शरण लेना पड़ी ।

आज घर में कोई नहीं है । यो कहना चाहिए कि घर ही नहीं है । जगह जगह से फटी पड़ी दीवारें हैं । लोग जानने समझने के बावजूद सुबह शाम दीपक जला रहे हैं  । भक्तों में आस्था की दीवारें मजबूत हैं । कहते हैं देवता आबाद हैं । पीपल के निमित्त एक व्यवस्था कानून की तरह स्वीकृत हो चुकी है । इस बीच छोटी बहू को मायके वाले लिवा ले गए हैं । उसकी लाल साड़ी से बने झंडे पीपल की शाखाओं पर लटके हवा के रुख बता रहे हैं ।

 

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शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

तुस्सी ग्रेट हो पाप्पे




किसी जमाने में हरित क्रांति हुआ करती थी, हर खेत हरा था । अब समय दाढ़ी-क्रांति का है और खेत में खड़े बिजुके तक भी दाढ़ी में नजर आ रहे हैं । लगता है नौजवानों के लिए कोई आदेश सा  निकला हुआ है कि जो असहमत हैं वे भी रखें । नौजवान प्रायः असहमती पर ही सहमत होते हैं इसलिए हर कोई रख रहा है । माँ बाप पसंद नहीं कर रहे हैं सो उनकी मुखालफत के लिए रख रहे हैं । जो चुसे आम एंग्री यंग मेन दिखना चाह रहे वे रख रहे हैं । जो बेरोजगार हैं, बहुत निराश हैं, बावजूद इसके कुछ नया  महसूस करना चाहते हैं वे रखे हुए हैं  । जिन्हें कहीं भी कोई ग्रोथ नहीं दिखाई दे रही है, लेकिन दिल को बहलाने के लिए कुछ बढ़ता हुआ  देखना चाहते हैं वे भी रख रहे हैं । जिन्हें किसी भी कारण से चेहरा छुपाना है उनके लिए तो  दाढ़ी बहुत जरूरी है । मीडिया तक चेहरा पढ़ना चाहे तो दाढ़ी में उलझ कर रह जाता है । जिन्होंने कई भ्रम पाल रखे हों, वे अगर अपने को बड़ा साहित्यकार, महान योद्धा, या इतिहास पुरुष होने का एक भ्रम और पालना चाहें वे भी रख रहे हैं ।  कहते हैं दर्द का हद से बढ़ जाना दवा बन जाता है । जिन्हें तिनकों का डर सताता हो उनके लिए बहुत जरूरी है तीनकों के गुच्छ सी घनी लंबी दाढ़ी । जो असंत होते हुए भी संत, संसारी होते हुए भी बैरागी और काव्य बैरी होते हुए भी कवि दिखना चाहते हों उनके लिए दाढ़ी आसान उपाय है । आज रहीम होते तो कहते – रहिमन दाढ़ी राखिए, बिन दाढ़ी सब सून ; दाढ़ी गए न ऊबरे, नेता, अफसर, प्यून राजनीति में चिकने चेहरों का युग कलयुग की तरह बिदाई की ओर है । अब जो जितना दाढ़ीवान और  नागा होगा, सत्ता के शाहीस्नान का अवसर प्राथमिकता से उसी को मिलेगा ।

दाढ़ी भय मिश्रित ज्ञान का प्रतीक है । जिनको बोध हो जाता है कि सत्ता और संसार मिथ्या है, कोई भाई-बहन नहीं, वोट और सबंध एक भ्रम है । यहाँ मंत्री पद और सरकार सहित कुछ भी स्थाई नहीं है । दोनों वक्त रसायन वसंतकुसमाकर लेने के बावजूद कोई अमर नहीं है, कभी भी हे राम हो सकता है । ढाई सौ बरस जीने वाला कछुए को भी एक दिन  मरना पड़ता है । ऐसी विरक्ति में एक आदमी को क्या चाहिए सिवा दाढ़ी के । आया है सो जाएगा, राजा, रंक, फकीर । तीनों दाढ़ी रखते हैं और झोला उठा कर चल देने की मंशा व्यक्त करते हैं । दाढ़ी का एकांत से गहरा रिश्ता है । पहाड़ों, गुफाओं, कन्दराओं में लोग यों ही नहीं पहुँच जाते हैं । दीन दुनिया से अलग कहीं बैठ कर एकांत में सहलाते रहिए तिनकों को, तसल्ली मिलेगी । आपको लगेगा कि आप अलग हैं और शरीर अलग । आप शरीर से निकल कर आत्मा भी हो सकते हैं, हो जाते हैं । टू इन वन, जैसे आईने के सामने खड़े हों । आत्मा का साथ सबसे अच्छा होता है, वह चाय तक नहीं पीती है । आत्मा सवाल जवाब जरूर करती है लेकिन कभी भी करण थापर नहीं बनती है । आत्मा किसी बात के लिए तैयार न हो तो देख कौन रहा है ! मार दीजिए, मर जाएगी और कहीं जिक्र भी नहीं होगा ।  बहुत से समझदार तो आत्मा को मार कर ही राजनीति में प्रवेश करते हैं । कहते हैं कि ब्रेक निकाल कर गाड़ी चलाने का मजा ही कुछ और है । पालनहार ने पेट दिया है तो खाना भी दे ही देगा ही, जिस भी रास्ते से दे ज़िम्मेदारी उसकी है ।

लेकिन कुछ क्षण ऐसे भी आते हैं जब कहीं कुछ दिखाई नहीं देता है, निराशा चरम पर होने लगती है तब दाढ़ी उम्मीद की किरण बन कर काम आती है । अतिथि आने वाले थे, सोचा था आएंगे और चले जाएंगे जैसी कि परंपरा है । अगर नहीं माने तो दो पटकनी लगा देंगे । कितने ही आए और चले गए, इतिहास में दर्ज है । लेकिन ये जनाब टिक गए और यहाँ की जमीन में पनपने लगे । ताली-थाली बजवाई, दिया-बाती किया तो गलतफहमी में आ गए कि अतिथि-देव का सम्मान हो रहा है । पहले उथले उथले से थे अब घरू हो गए । मजबूरी में तय करना पड़ा कि अतिथि जी के साथ ही रहने की आदत बनानी होगी । किसी ने सुझाया कि अतिथि को दाढ़ी पसंद नहीं है । जहां से आया है वहाँ ज़्यादातर लोग चिकने हैं, दाढ़ी नहीं रखते हैं । दाढ़ी उसे बर्दाश्त नहीं है, अतिथि के लिए दाढ़ी वेक्सीन है । सारे दाढ़ी रखो, आत्मनिर्भर बनो । पहले आह भरते थे तो हो जाते थे बदनाम ; अब कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता !! डबल्यूएचओ को भी एक दिन कहना पड़ेगा कि तुस्सी ग्रेट हो पाप्पे ।


गुरुवार, 24 सितंबर 2020

कुलीन कुत्ता

 







     कुत्ता एक विचार की तरह बहुत समय से कवि के साथ बना हुआ था । किसी जमाने में, यानि युवावस्था में जब उनका झुकाव वामपंथ की ओर था तब   उन्हें भौंकते हुए कुत्ते अच्छे लगते थे । लेकिन अब जब जिंदगी प्लेटफॉर्म पर खड़ी ट्रेन लग रही है उनका रोम रोम दक्षिण दक्षिण लहक रहा है । बाहर जो जो बदल सकते थे बदल चुके हैं । लेकिन भीतर भौंक रहा विचार कमबख्त अपनी टेढ़ी दुम के साथ अभी भी गाहे बगाहे मुश्किल पैदा कर देता है ।

“विचार एकदम से नहीं बदलते चाहे बाहर बहुत कुछ बादल जाए ।“ फ़ेमिली डाक्टर बोले । “आप ऐसा कीजिए भीतर के कुत्ते को बाहर के कुत्ते से रिपलेस कीजिए ।  बाहर का कुत्ता बाहर से बिना दुम का होता है लेकिन भीतर  से खूब दुम हिलाता है ... हो सकता है सफलता मिल जाए ।“

कवि ने बारह हजार में एक दुमहीन कुलीन पिल्ला खरीदा । कुलीन महंगे बिकते हैं यह वे जानते थे । कोशिश करते तो इस कीमत में तीन इंसानी बच्चे मिल जाते ।  जैसे जैसे समाज में सभ्यता का विकास हो रहा है वैसे वैसे मनोकामना-पूर्ति प्रभु के दर्शन मात्र से हो रही है । बिन ब्याही लड़कियों के ओवन-फ्रेश बच्चे ऑफ लाइन मार्केट में मिल रहे हैं । रहा कुलीनता का सवाल तो वह वहीं बची दिख रही है जहाँ धन है शायद । इंसानी कुलीनता तो ड्राइंग रूम में रखा मोर पंख रह गई है । कोई पंख ले कर उसका मोर ढूँढने निकलेगा तो ढूंढते ही रह जाएगा । मोर ज़ेड सिक्यूरिटी में कहाँ शिलाजीत के बिखरे दाने चुग रहा है पता ही नहीं चलेगा । बहरहाल, कुत्ता कवि की गोद में किलोल कर रहा है और बार  बार उनका मुंह चाटने की कोशिश भी । कुत्ते को अपनी कीमत का पता है । हर कुलीन संसार के बारे में कुछ जाने न जाने पर अपनी कीमत के बारे में जरूर जानता है । इस समय वह यानि कुत्ता कवि को मुंह चाटना सीखा रहा है । कुत्ता मंहगा हो और आपने खुद खरीदा हो तो उसके साथ मुंह-मिलन में कोई जान नहीं पता कि कौन किसका चाट रहा है  । महंगा होने के बावजूद वह अदृश्य दुम हिला सकता है तो खरीदने वाले को भी ईगो प्रोब्लेम नहीं होना चाहिए । आखिर उसे भी तो पैसा वसूल करने का अधिकार है ।

कवि की संगत से कुत्ते में संस्कार पैदा हो गए । महीना भर में कुत्ता कविता सुनने लगा । कवि को कदरदान मिला तो अंदर से चौड़ी छाती से हुमक कर जब तब आवाज आने लगी कि अब दुनिया जाए भाड़ में । कवि के साथ श्रोता ! वो भी दुम हिलाता हुआ !! किसके नसीब में होता है । कवि को पद्मश्री दिलाने के लिए एक ही कुत्ता काफी है । बारह हजार में और क्या लोगे !!

अचानक पड़ौसी हीरा भागचंदनी आ गए और कुत्ते को देखते ही बोले - माल अच्छा है, नाम क्या रखा है कुत्ते का ?’

अभी तक कुत्ते का नामकरण नहीं हुआ था, कवि ने पूछा – क्या रखें  ?

“जिनपिग रख दो । ... धंधा चौपट हो गया है सांई । ऐसा वाइरस छोड़ा है कमीने ने कि सारी दुनिया ऑक्सीज़न मांग रही है ।“

कवि ने विचार किया, बोले – जिन रख देते हैं ।  पिग तो ठीक नहीं लगेगा, बारह हजार दिए हैं नगद । कुत्ते कि इज्जत का सवाल है । भागचंदानी को इज्जत कि बात ठीक नहीं लगी तो कुत्ते पर टेढ़ी नजर डालते हुए बोले – इज्जत की बात थी तो देखभाल कर लाते । इसका तो मुंह काला है !

“मुंह पर मत जाइए । कलर देखिए, कितना सुनहरा पीला है !! दूर से सोने का कुत्ता लगता है, जैसे माता सीता को हिरण लगा था सोने का । 

“वो तो ठीक है सांई, पर आदमी तो मुंह देखता है ना , मुंह काला तो सब काला । देसी पिग कहीं का । “

“कैसे पड़ौसी हो जी तुम ! बुराई किए जा रहे हो ! काले मुंह का बड़ा फायदा है । कल को तुम कह नहीं सकोगे कि तुम्हारा कुत्ता मुंह काला करके आया है !”

“इसकी तो दुम भी गायब है ! कुत्ता दुम नहीं हिलाए तो किस बात का कुत्ता !! बारह हजार किस बात के दे दिए आपने !!”

“ देखो भगचंदनी, ये बड़े से बड़े शतीर ब्लेक मार्केटियर को देख कर पहचान सकता है और पुलिस को फोन भी लगा सकता है  मोबाइल से ।“

“ अरे बाबा ! ये पुलिस को फोन कैसे लगा सकता है ! हमको बेवकूफ मत नाओ । “

“कुलीन है ना, इसके सारे रिश्तेदार पुलिस में हैं । एक बार ये फोन पर भौंक भर दे तो पुलिस फाड़ खाए । “

“अरे बाप रे ! कुत्ता है कि वाइरस है बाबा !” कहते हुए हीरा भागचंदानी भाग लिए ।

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शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

ये रात अजब मतवारी है !

 



लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो, उस घोड़े से पूछो जिसके मुंह में लगाम है । कविता की पंक्तियाँ देखते ही शिक्षा मंत्री की त्योरियां  चढ़ गईं । इसलिए नहीं कि उन्हें कविता समझ में आ गई, बल्कि इसलिए कि इसमें हार्स ट्रेडिंग के खुलासे की बू आ रही है । राजनीति में सब कुछ उजागर नहीं होना चाहिए वरना धंधे की इमेज खराब होती है ।  कल को बच्चे इसे पढ़ेंगे तो बगावती होंगे और मांग करेंगे कि मीडिया घोड़ों से लोहे का स्वाद ही नहीं लोहे का भाव भी पूछे । सरकार को पाँच साल आगे देखते हुए चलना पड़ता है । घोड़ों से सिर्फ ट्रेडिंग के समय बात की जाती है वो भी बंद कमरों में । उन्हें पाँच सितारा में बैठा कर इतना पिलाया खिलाया जाता है कि लोकतंत्र के ये अश्व बारात के घोड़े हो जाते हैं । जनता की तरफ से कोई शिकायत नहीं है । जनता समझदार और सहिष्णु है, संत शिक्षा में  रची पगी हुई है उसे चाहे कितनी ही बार ठगो वो कुछ नहीं बोलती है । संत कह गए हैं “कबीरा आप ठगाइए और न ठगिए कोय, आप ठगाय सुख ऊपजे, और ठगै दुःख होय”। इससे सुंदर और क्या बात हो सकती है हमारे लोकतन्त्र में !!  सत्ता किसी की भी हो जनता के सुख में ही सरकार का सुख है । कबीर जन कवि थे तो ज़िम्मेदारी जनता की ही बनती  है कि वो श्रद्धा पूर्वक हर मौसम में सुखी रहे ।

आपको लग रहा होगा कि जनता भोलीभाली लल्लू टाइप है । तो जान लो कि लोग मूर्ख नहीं हैं जो अपने खच्चरों को युद्ध का घोड़ा बना कर भेजते रहे हैं । वे अच्छी तरह जानते हैं कि राजनीति एक युद्ध है और युद्ध में सब जायज होता है, यहाँ तक कि खच्चर भी । अब आगे वालों पर है कि वे वक्त जरूरत के हिसाब से बाजिब कीमत दे कर वे उन्हें गधा या बैल बनाते हैं । ढोने के मामले में गधों की अहमियत कम नहीं है । जब एक शाह ने दिल्ली से दौलतबाद राजधानी शिफ्ट की थी तो किसकी पीठ पर गई थी सरकार !! और दस साल बाद वापस दिल्ली भी उसी विश्वास के साथ किसकी पीठ पर लौटे थे !? इतिहास में बकायदा दर्ज हैं गधे भी, नाम भले ही बादशाह हो ।

        जिम्मेदारों ने शिक्षा मंत्री को पहले ठंडा पानी और बाद में बादाम शर्बत पिलाया । इरादा यह था कि गुस्सा ठंडा हो और बुद्धि को बल मिले यदि हो । कहा – सर इस कविता में सब कुछ सिंबोलीक है यानी प्रतिकात्मक । ये घोड़ा उस तरह का घोड़ा नहीं है जिस तरह का आप सोच रहे हैं । ये घोड़ा है पर नहीं है । जो नहीं है वो घोड़ा है । समझिए घोड़ा बिरादरी में यह पपुवा है । और लगाम भी लगाम नहीं है लोहे के चने हैं जो पपुआ बरसों से चबा रहा है । चबा क्या रहा है हुजूर, सच तो यह है कि आप ही लोग चबवा रहे हैं । कवि जब कह रहा है कि इससे लोहे का स्वाद पूछिए तो असल में आप लोगों की प्रशस्ति गा रहा है । कवि जो है इशारों में अपनी बात कह रहा है । वो एक भजन है ना .... समझने वाले समझ गए ना समझे वो अनाड़ी है ।

            “ये क्या बके जा रहे हो बे !!  हम क्या कोई दूसरे ग्रह से आए हैं !! ... एक तो वो भजन नहीं है । दूसरा उसमें तो वो चाँद खिला वो तारे हँसे, ये रात अजब मतवारी है  था ! उसमें घोड़ा कहाँ था ? याद है हमें अच्छी तरह से । ऐसे ही नहीं बन गए है प्रदेश के शिक्षा मंत्री !! मूरख समझते हो !” शिक्षा मंत्री भड़के ।

           जिम्मेदार हाथ जोड़ कर बोला – “सॉरी सर । हमारी कहाँ औकात समझने कहने की । आपकी कृपा बनी रहे बस, घोड़े को लोहे और स्वाद सहित अभी हाँक दिया जाएगा । आदेश करें हुजूर ।“

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मंगलवार, 11 अगस्त 2020

हवा हवा हवेली

 

बड़े ठाकुर के पास कोई चारा नहीं था । लोगों को बुलवा कर साक्षी बनाने के लिए बहुत डरते डरते निर्णय लिया । अंत समय निकट आ चुका था और जैसा कि परंपरा है अपना सब कुछ पुत्र को सौंपना था । उनकी जान पुश्तैनी हवेली में बसी थी ।  हवेली में बहुत सी कीमती चीजें जड़ी और सजी पड़ीं थीं । बोले- “ सपूतसिंह अंत समय करीब है, मुझे जाना पड़ेगा । इन तमाम रिश्तेदारों, पंचों और गाँव वालों के सामने कसम खा कर कहो कि तुम हवेली की रक्षा करोगे और उसे कभी भी बिकने नहीं दोगे ।“

सपूतसिंह ने ऊंची आवाज में कहा –“ मैं कसम खाता हूँ की चाहे जो भी हो जाए हवेली नहीं बिकने दूंगा । अब आप निश्चिंत हो कर आंखे मूँद लें पिताजी । इस समय मुहूर्त बहुत अच्छा है, हम सब प्रार्थना करते हैं कि आपको स्वर्ग मिले ।“

सपूतसिंह ने अपने विश्वसनीय साथियों की ओर देखा । उन्होने सहमति में आँखें झपकाई । कुछ कागजों पर अंगूठा लगवाना शेष है । लेकिन शव से सहयोग मिल जाएगा इसमें उन्हें संदेह नहीं है ।

न चाहते हुए भी बड़े ठाकुर चल बसे । खबर फैली और लोग जमा होने लगे । पुराने आदमी, पुरानी परम्पराएँ । बैठने के लिए बड़े हाल से फर्नीचर हटाया गया और कुछ बड़ा सामान भी । जो बाद में कहाँ गया पता नहीं चला । ... दिन बीतने लगे और एक एक करके हवेली का समान भी बिकता गया । लोगों को लक्षण अच्छे नहीं लगे तो कुछ ने चिट्ठी लिख कर याद दिलाया कि ठाकुर साहब की इच्छा थी कि तुम हवेली को सम्हालोगे ... लेकिन ... खाली होती जा रही है हवेली !

“आप लोग निश्चिंत रहिए, मैं हवेली को बिकने नहीं दूंगा ।“ सपूतसिंह ने दृढ़ शब्दों में आँखें गोल करते हुए कहा ।

कुछ लोगों ने आपत्ति ली कि - “काफी सारा फर्नीचर दिख नहीं रहा है ! घोड़े-बग्घी बिक गए हैं ! फोन और बिजली भी कटवा दी हैं !!  गौशाला खाली पड़ी है ! .... आखिर माजरा क्या है ? तुमने तो कसम खाई थी .... “

“जो गिना रहे हैं आप लोग, उनके बारे में मैंने कोई कसम नहीं खाई थी । मैंने कहा था हवेली नहीं बिकने दूंगा । वो आज भी कहता हूँ, हवेली नहीं बिकने दूंगा चाहे एक एक चीज बिक जाए । आप बेफिक्र रहें, हवेली हमेशा रहेगी ।“

“अरे !! ... हवेली कैसे रहेगी ! सुना है आपने हवेली के कीमती दरवाजे और  खिड़कियों का भी सौदा कर दिया है ! “

“ हवेली में चोरी जाने जैसा कुछ भी नहीं है तो दरवाजों का क्या काम ?”

“ परदे और झडफानूस गए !?

“हाँ .... कालीन और फर्श भी । .... तो ?” सपूतसिंह गुर्राया ।

“तो ...  हवेली में बचेगा क्या ?! “

“हवेली में कुछ नहीं बचेगा तब भी क्या वो हवेली नहीं रहेगी । हवेली हमारा इतिहास है जो हमेशा रहेगा, हवेली हमारी संस्कृति,  हमारी भौगोलिक पहचान है । वो हमेशा कायम रहेगी । बाकी चीजें तो आनी जानी हैं, आती रहेंगी जाती रहेंगी ।“

स्वतन्त्रता दिवस के दिन लोगों ने देखा कि हर साल की तरह इस बार भी हवेली पर ध्वज फहरा रहा है ।  नीचे अपने लोगों में घिरे सपूतसिंह तमाम इंचों वाली छाती चौड़ी किए बता रहे हैं कि - लोग चाहे जो कहें कहते रहें, मैं हवेली नहीं बिकने दूंगा ।

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खुशी एक हवा


गुप्तचरों ने सूचना दी कि जनाधार घट रहा है । सुन कर धराधीश बोले – “लोकतन्त्र में जनाधार एक भ्रम है,  और उससे भी बड़ा भ्रम है दल । जिन्हें शासन करना आता है वे जनाधार और दलों की परवाह नहीं करते । फिर भी आत्मसंतोष के लिए जरूरी है कि राज्य का हर आदमी खुश हो ।“ 

उन्होने प्रचार माध्यमों से प्रजा को संदेश दिया कि “हम प्रजा को खुश देखना चाहते हैं इसलिए जिनके घर में कोई गमी हुई हो उनको छोड़ कर बाकी लोग आगामी आदेश तक खुश रहें ।“  इतना सुनते ही तमाम लोगों में खुश होने की होड लग गई ।  लड्डू बंटे , कुछ ढ़ोल पर नाचे, जुलूस निकले, नारे लगे । खुशी चरम पर पहुंची तो कुछ ने पत्थर फ़ेंके और कुछ ने आग लगाई । दिन गुजरा तो रात में सोते हुए भी खुश हुए । दो चार दिनों में ही उनका ध्यान इस बात पर गया कि कौन लोग खुश नहीं हुए । नाखुश लोग राज्य का माहौल बिगड़ सकते हैं । कार्यकर्ताओं ने मोहल्ला स्तर पर सूची बनाई । पता लगा कि ज़्यादातर लोग खुश नहीं हैं । पहले भी जो खुश नहीं थे उनके यहाँ छापे पड़े थे । लेकिन ये आम लोग हैं इनके यहाँ छापे पड़े भी तो छुपने छुपाने की जगह से छिपकली-काकरोच ही बरामद होंगे । इसलिए सिफ़ारिश हुई कि खुशी का कानून बनाने के अलावा कोई रास्ता नहीं है । हालांकि धराधीश ने कहा था कि विकास करेंगे ताकि लोग खुश हों । मीडिया वालों ने बात समझे बगैर इसको चला दिया । दरअसल उनका मतलब था कि लोग खुश हों ताकि वे विकास कर सकें । लेकिन कोई बात नहीं, भूलें होती ही हैं सुधार करने के लिए ।  

सख्ती हुई तो अब हर कोई खुश है । जिसने खुश न रहने की कसम खा रखी थी वो भी बकायदा खुश है । खुशी एक हवा है जो सबसे ऊपर चल रही है । उससे नीचे, यानी थोड़ा नीचे कोरोना चल रहा है । थोड़ा और नीचे चलें तो पता चलेगा कि मंदी भी चल रही है । उसी के साथ साथ बेरोजगारी भी चल रही है । और नीचे मत उतरियेगा, भुखमरी और आत्महत्याएँ वगैरह भी चल रही हैं, लेकिन वो आपसे देखी नहीं जाएंगी । आप तो ऊपर देखिए, ऊपर कि हवा देखिए, खुशी देखिए । तबीयत जो है हाथों हाथ मस्त हो जाएगी । हवा ही सब कुछ है । हवा को प्राण वायु कहा गया है । धराधीश भी यही मानते हैं, प्रजा को भी मानना चाहिये । अपने अंदर झाँकने की जरूरत नहीं है । कबीर कह गए हैं – बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय ; जो मन देखा आपना, मुझसे बुरा न कोय । मतलब ये कि जितनी भी बुराई है, अपने अंदर है । बाहर हवा है खुशी की । उसके साथ चलो । खुशी के बिना जीवन मृत्यु के समान है । लोग गा-गा कर कह गए हैं कि अपने लिये जिये तो क्या जिये; तू जी ए दिल, जमाने के लिए । इसी तरह दूसरों के लिये खुश होना असली खुशी है । धराधीश के लिये खुश होना सच्ची देशभक्ति है । जो खुश नहीं हो सकते उनके जीने का कोई अर्थ नहीं है । समझ रहे हैं ना आप लोग । धरती माँ है और माँ के ऊपर जो भी बोझ हो उसे कम कर देना सुपुत्रों का कर्तव्य है । कोई दिक्कत हो तो अभी बताएं । खुश होना सीखना पड़ता है, सिखा देंगे । ये अपने आप खुश होने वाली खुशी से अलग है । इसमें खुश दिखने का महत्व है । हर समय रुदन का दास केपिटल लिए फलफूल रही खुशी में खलल डालना देशद्रोह है । जितनी जल्दी सीखोगे उतनी जल्दी देशभक्त बनोगे । जय हो ।

 

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बुधवार, 29 जुलाई 2020

सोच बदलें और आगे बढ़ें

देखो रे, एक बात साफ साफ समझ लो ... क्राइम व्राइम कुछ नहीं होता है, जो होता है वो समाज सेवा होती है । पुलिस जनता की सेवा के लिए है, नेता और सरकार भी सब लोगों की सेवा के लिए हैं तो अपुन भी जनता की सेवा के लिए हैं । इसमें कोई पर्सनल दिक्कत क्या  ?  अगर हो तो बताओ अब्बी ठीक कर देते हैं । सब मीडिया वालों का टीआरपी का चक्कर है और कुछ नहीं । अपोजीशन का फैलाया भ्रम है कि क्राइम से जनता परेशान है । जनता का कुछ मत पूछो, वो तो वोट दे के भी परेशान है । सच्ची बात ये है कि क्राइम को बदनाम कर रखा है । आप लोग डिक्शनरी के अर्थ पे मत जाओ, प्रिंटिंग मिस्टेक हो जाती है । अबकी डिक्शनरी वाले हाथ लग गए तो करेक्ट करवा देंगे । दरअसल क्राइम भी एक तरह का प्रोफेशन है । अपनी सोच बदलो और आगे बढ़ो । जिसने क्राइम के साथ जीना लिया समझो विकास कर लिया । वो लंबी रेस का घोड़ा है । जो सोच में पिछड़ गया वो गया काम से ।

लोकतन्त्र के नाम पे सब लोग छाती चौड़ी करते हैं पर सोचा कभी कि हम नहीं होंगे तो क्या होगा । चुनाव कौन करवाता है, नेता किसके दम  पे हूल मारते हैं ! नींव का पत्थर हैं अपन तो काय के लिए ! ... समाज सेवा के लिए ही ना । अभी आप एनकाउंटर के बारे में सोच रहे होगे, ...  तो होता है, समाज सेवा में जोखिम होतई है । महान लोग को अपने काम में हमेशा खतरा रहता है । गांधी जी को भी जान से इसकी कीमत चुकानी पड़ी तो अपन क्या चीज हैं । सब लोग जनता के लिए पाप पुण्य देखे बगैर लगे हैं सेवा में तो हम भी लगे हैं । कोई नया काम तो कर नहीं रहे, बस तरीका थोड़ा अलग है । आपने किसी अस्पताल से पूछा कि भईया इत्ता सारा बिल किस लूट का हिस्सा है !? किसी स्कूल वाले से पूछा कि मोटी फीस लेने के बाद भी किताब-कपड़ा जूता-मोजा के अंदर दीमक से लगे क्यों चाट रहे हो हमें !? मॉल में जाते हो और तीन मोसम्बी का ज्यूस दो सौ में पी कर जेब कटवाते हो और वो भी राजी खुशी ! तब कोई आवाज नहीं निकलती है !! ये सब लोग सेवा कर रहे हैं ! और हमने जरा सा हप्ता मांग लिया तो ततैया काट गई कान पे !! अभी समझो हम टांग तोड़ दें तुम्हारी तो हमारा कुछ बिगड़ेगा ? सरकार या देश का कुछ बिगड़ेगा ? बीवी बच्चों के अलावा कोई नोटिस लेगा ? नहीं ना । तुम अस्पताल जाओगे और वहाँ पैसा दोगे या नहीं दोगे ? तुम्हारी टांग नहीं तोड़ रहे हैं तो तुम्हारे दो लाख बचा रहे हैं । और मांग क्या रहे हैं हफ्ते का हजार ! हजार भारी पड़ रहा है तुमको ! तुमने बीमा करा रखा है ना ? सोचते हो पैसा मिल जाएगा, ... नहीं मिलेगा । बीमा वाले बीमारी के इलाज का पैसा देते हैं । वो भी क्राइम को बीमारी नहीं मानते हैं । क्राइम को बीमारी कोई नहीं मानता है । क्राइम संस्कृति के अंतर्गत आता है । परंपरा है हमारी । लोग रिपोर्ट लिखवाते हैं थाने में । लिखवाना ही चाहिए, इससे क्राइम लाइम लाइट में आता है । सेवक की फोटू छ्पती है फ्रंट पेज पर । लोग अपने सेवक को पहचानने लगते हैं । एक जरूरी मेसेज जाता है लोगों में कि सोच बदलें और आगे बढ़ें । तुम भी चलो, हम भी चलें, चलती रहे जिंदगी । ... तो अपनी जेब में खुद हाथ डालोगे या फिर ये काम भी सेवक को करना पड़ेगा ?

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शनिवार, 4 जुलाई 2020

वैक्सीन आ रहा है !

यह खबर सुनते ही कि कोविड-19 का वैक्सीन दरवाजे पर दस्तक देने वाला है देशभर के अमीरों ने आश्वस्ति की अंगड़ाई ली । आने दो,  किसी भी भाव में मिलेगा लगवा लेंगे । सस्ता हुआ तो दो दो लगवा लेंगे और मौका मिला तो स्टाक भी कर लेंगे । हो सकता है सरकार महाराष्ट्र, केरल, बंगाल और छ्त्तीसगढ़ जैसे राज्यों को वैक्सीन-ड्राय मान ले तो सप्लाय का मौका मिलेगा । दवाओं के धंधे में यह अच्छा है कि मुनाफा लागत के हिसाब से नहीं मौके के हिसाब से तय होता है । इधर अच्छा यह है कि जनता भी मानती हैं कि मौके पे जो काम आ जाए वो भगवान होता है मुनाफाखोर नहीं । मुनाफे के साथ भगवान होने का सुख इतना दिव्य होता है कि लगता है अपन विष्णु हैं और स्वयं लक्ष्मी चरण दबा रही है ।

इधर लड्डू फूट कर बिखर रहे थे और उधर तमाम बाहुबली फोन पर उँगलियाँ नचा रहे थे कि स्टाटिंग में पहले भाई लोग को वैक्सीन होना । भाई बचेंगे तोई सब बचेंगे नई तो कोविड से पहले भाई माड्डलेंगे सबको तो क्या कल्लोगे । भाई के बाद भाई के शूटर लोग को भी वैक्सीन होना एकदम ताजा, बोले तो गरम गरम । बिकौज उन लोगों को फील्ड में रेना पड़ता है, झोपड़ पट्टी में ऐसी वैसी जगो में छुपना पड़ता है । सरकार की मॉरल ड्यूटी है कि भाई लोगो की जित्ती भी कंपनी है, ए बी सी डी ई एफ जी, सबको प्रोयरटी पे रखे । बिकौज कंपनी रहेगी तोई सरकार रहेगी । भाई ने जिस किसी भी नेतु को भिडू बोल दिया फिर उसको हमेशा भिडू समझा । बरोबर टाइम पे पर्सेंटेज दिया, टुकड़ा डाला । इसलिए अपुन का हक्क बनाता है पहले वैक्सीन लेने का । इज्जत का सवाल है, पहले भाई लोग उसके बाद पिच्छू से भिडू लोग । और देख लो रे समझ लो अच्छी तरा से कि पब्लिक को परसाद की तरा वैक्सीन नहीं बाँट देने का । एक पालीसी बनाने का बढ़िया सी । जिनके तीन से ज्यादा बच्चे हैं उनको वैक्सीन नहीं । जिनकी एक से ज्यादा ब्याहता हों उनको भी नहीं । वैक्सीन पहले उधर जिधर चुनाव सिर पर हैं । बंगाल में दीदी लंबे समय से नेगेटिव चल रही है । उधर वैक्सीन नहीं भेजा जाएगा जब तक कि वो पॉज़िटिव नहीं हो जाती । ज्यादा सोचने का नहीं, सबको पता है कि जंग, मोहब्बत और सियासत में सब जायज है ।

चर्चा है कि संगठन ने सीधे कान में फुसफुसा दिया है कि कोई कितना ही बड़ा वीआईपी क्यों न हो वह ये न सोचे कि उसे तुरंत वैक्सीन मिल जाएगा । पहले संगठन वालों को लगेगा, यहाँ तक कि उसे भी पहले लगेगा जो बांसुरी और ड्रम बजाने के काम में लगे हुए हैं । चिंता नहीं करें, पार्टी के सभी लोगों को वैक्सीन लगेगा । लेकिन जो कांग्रेसी झुंड के रूप में यानि अपने टिड्डी दल के साथ आ रहे हैं उन्हें हमेशा की तरह प्राथमिकता दी जाएगी । उनको इंजेक्शन लगेगा पर उसमें वैक्सीन नहीं विटामिन बी भरा जाएगा । सरकार तजुर्बे से चलती है । पिछले दिनों फ्री राशन खूब बांटाना पड़ा । अब सावधानी रखें, हर घर में पहले कमाने वाले को वैक्सीन दें और आराम से अपने हाथ ऊंचे कर दें । स्वस्थ रहो और कमाओ खाओ मजे में । जो काम नहीं करेगा उसे कोरोना के साथ जीना पड़ेगा । इस काम को करते हुए बहुत सावधानी और पड़ताल करना होगी । क्योंकि वोटर पट्ठे बहुत चालक हो गए हैं । हरमी साड़ी बोतल लेने के बाद भी वोट नहीं देते हैं । सरकार को चाहिए कि जल्द से जल्द भ्रष्टाचार का वैक्सीन बनाए और सबसे पहले इन साड़ी बोतल वाले कमीनों को लगवाए । सुधरें तो सही ये भ्रष्ट, बेईमान, कलंक कहीं के ।

और हाँ , सबसे महत्वपूर्ण बात तो रह ही गई । कम्युनिस्टों को वैक्सीन नहीं लगाया जाएगा । क्योंकि उन्हें कोविड 19 का खतरा बिलकुल नहीं है । वे वर्षों से आलरेडी कोरंटाइन चल रहे हैं । देश के लोग भूल गए हैं कि कम्युनिस्ट कौन कौन है !! कम्युनिस्ट भी भूल गए होंगे कि वे किस देश में हैं । अगर कोविड हुआ भी तो उन्हें अपना अपना सा लगेगा । उसे एक बार लाल सलाम बोल देंगे तो रात को वह भी चीयर्स करने लगेगा । .... सो, टेक केयर .... वैक्सीन आ रहा है ।

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शुक्रवार, 3 जुलाई 2020

कृपा-कारोबार और राम मोहन रास्तेवाला

इस मार्केट में कृपा को लेकर बड़ी ले-दे मची हुई है । मंत्री-वंत्री को छोड़िए कृपा के मामले में चपरासी भी हाथ तंग किये घूम रहे हैं । कृपा ऐसे नहीं मिलती जैसे बाज़ार में ठंडा पानी मिलता है । दस/बीस का नोट फेंका और फट्ट से ढक्कन खोल कर गट्ट से पी गए । कुछ का मानना है कि कृपा का दिव्य मोल होता है । बाज़ार भाव से लो तो हर चीज मिल सकती है । ज्यादा मोलभाव करने वालों को वैसे भी नरक की एक्सपायरी डेटेड सीट मिलती है । कृपादाता कोई भोले शंकर नहीं हैं कि एक लोटा जल चढ़ा कर घंटा ठोंक दिया और हो गए प्रभु प्रसन्न । कारोबार में यह सब नहीं चलता है । कृपा का बाज़ार बहुत बड़ा है । मंडियाँ लगती हैं और दलाल भी भिड़े रहते हैं । दुनिया में यही एक ऐसी मंडी है जो होती है पर दिखाई नहीं देती है । जो मार्ग जानता है उसे ही प्रभु मिलते हैं । जो नहीं जानता वह कृपा की कुंजी दीवार पर लटके केलेण्डर में ढूँढता है, लेकिन नहीं मिलती है । केलेण्डर सिर्फ कृपा का विज्ञापन होते हैं कृपा नहीं ।

कृपा-कारोबार भारतीय संस्कृति का पारंपरिक उद्यम है । कहते हैं कि तथास्तु की कुंजी से इसका द्वार खुलता है । इस कुंजी को प्राप्त करने के लिए दीनहीन जनों की बड़ी फजीहत हुआ करती है । उन्हें प्रायः बहुत कठिन तप और परिश्रम से गुजरना पड़ता है । कहते हैं कि चप्पलें घिसनी पड़ती हैं । तथास्तु अक्सर भगवान या उनके प्रतिनिधि बोला करते हैं । जैसे जैसे जनसंख्या संक्रामण की तरह फैलने लगी भगवान ज़िम्मेदारी से बचने लगे । पहले ज़िम्मेदारी ले लेना, फिर उससे बच निकालना भक्तों के सामने भी धर्मसंकट खड़ा कर देती है । ये तो अच्छा है कि भक्तों के पास भगवान का कोई विकल्प नहीं है और न ही उनके पास अन्य कोई रोजगार है । इसलिए  कीर्तन में बराबर बने रहना उनकी ऐसी मजबूरी है जिसे लोग श्रद्धा के नाम से ज्यादा जानते हैं । कीर्तन की खासियत यह है कि यह भगवान और भक्त दोनों की जरूरत है । कीर्तन के कारण ही भगवान भगवान हैं और भक्त भक्त । आप पूछ सकते हैं कि पहले कौन आया ?  भगवान, भक्त या फिर कीर्तन ? तो मैं कहूँगा कीर्तन । कीर्तन ने ही पहले आ कर भगवान और भक्त बनाए । अगर लोग आपका कीर्तन करने लगें तो भगवान बनाने में आपको देर नहीं लगेगी । और अगर लोगों के साथ मैं कीर्तन करूँ तो भक्त हुआ ही । भक्त और भगवान का रिश्ता कीर्तन के कच्चे सूत से बंधा होता है । दोनों में से कोई भी इस रिश्ते से खींचतान नहीं कर सकता है ।

राम मोहन रास्तेवाला बरसों कृपा के चक्कर में रहा । कहीं कृपा नहीं मिली इसलिए आजतक कुँवारा है । लेकिन हठयोगी है, उसने किसी से नहीं मानने की कसम खा रखी है । एक की कृपा नहीं मिली तो हजार की लेंगे । कोई टिकिट नहीं देगा तो निर्दलीय लड़ेंगे । कहते हैं जिसका कोई नहीं होता उसका भगवान होता है । और जिसका भगवान होता है वो कुछ भी हो हमेशा पहलवान ही  होता है । आज राम मोहन रास्तेवाला बड़े नेता हैं और खुद कृपा के सुपर स्टाकिस्ट भी । कृपा कारोबार बढ़ गया है, और लोग देने वाले को श्रीभगवान मानते हैं । दाता एक .... भिखारी सारी दुनिया । जय हो ।

 

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