शनिवार, 25 फ़रवरी 2017

अंतर मात्र दोपाये और चौपाये का

कश्मीर से कन्या कुमारी तक भारत एक है और यह बात आदमियों के साथ गधो पर भी लागू  होती है. इधर कुछ गैर राजनितिक जिज्ञासु पूछ रहे हैं कि आदमी और गधे में क्या अंतर है ? इस तरह का सवाल किसी गधे के सामने आये तो उसे भी ज्यादा सोचने की जरुरत नहीं होती, किन्तु गधे टीवी नहीं देखते हैं. प्राइम टाइम पर दनादन दुलात्तियां चल रहीं हैं जिसे बहस नाम दिया गया है. कुछ होते हैं जिन्हें लोग चिन्तक वगैरह कह कर प्रायः ख़ारिज कर दिया करते हैं, वे हर सवाल का जवाब गंभीरता से देते हैं. कायदा यह है कि जो चीज गंभीरता से दी जाये उसे गंभीरता से लिया भी जाना चाहिए. चिन्तक वैसे भी थोड़ा भारी प्राणी होता है, उस पर गंभीरता का गीलापन और आ जुड़े तो वजन बढता ही है. ऐसे ही चिन्तक किस्म के एक जी हैं, बोले - देखिये यह एक बहुत ही सामायिक और गूढ़ प्रश्न है. प्रबुद्ध समाज को यह देखना और समझना होगा कि गधा कौन है. अगर चौपाये और दोपाये से इस अंतर को कर रहे हैं तो निसंदेह हम नासमझ हैं. क्योंकि इतना अंतर तो मूर्ख भी जानते हैं. सो जरुरी है कि देश इस पर गहरे से चिंतन करे.
चिंतन को लेकर आप किसी तरह का खौफ मत खाइए. सामान्य रूप से चिंतन अच्छी चीज है. दरअसल चिंतन एक मज़बूरी होता है और कई बार शौक भी. यह दवा भी है और बीमारी भी. जब कोई चिंतन करने लगे तो उसे रोकना नहीं चाहिए. सुरक्षित यही है कि उसे अच्छी तरह से कर लेने दिया जाये. कई बार इसी से स्वास्थ में सुधार होने लगता है और लोग च्यवनप्राश को श्रेय देने लगते हैं. बड़े लोग जो बहुदा चिंतन में ही वक्त बिताया करते हैं और प्रायः दीर्धायु होते देखे गए हैं. चिंतन अनुलोम-विलोम दोनों प्रकार का होता है. सत्ता के जाते ही चिंतन विलोम होने लगता है. अगर कोई पूरी मेहनत से विलोम कर ले तो उसे अनुलोम का मौका भी मिल सकता है. खैर, इन सब बातों से आपको क्या लेना-देना. इस समय वक्त की दहलीज पर सवाल यह है कि आदमी और गधे में क्या अंतर है ?
सामान्य आदमी का ध्यान आदमी और गधे में उलझ गया है. जबकि मूल प्रश्न यहाँ अंतर है. अंतर समानता का विरोधी है. लेकिन जैसा कि सब जानते हैं कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं. जहाँ लोकतान्त्रिक मूल्यों का महत्त्व होता है वहाँ किसी भी तरह के अंतर को बहुत बुरा माना जाता है. लेकिन इससे अंतर मिटता थोड़ी है , आदमी और आदमी में अंतर होता है, गधे और गधे में भी, चाहे वो किसी एक ही राज्य के क्यों न हों. जब अंतर की ही खोज करते रहेंगे तो अंत में हमें समानता का नामोनिशान नहीं मिलेगा. इसलिए समय की मांग है कि समानता पर ध्यान केंद्रित किया जाये. लेकिन संसार में समान कुछ भी नहीं है. जो समान समझे जाते हैं उनमें भी अंतर होता है. एक माँ-बाप की संतानों में अंतर होता है. और तो और, आदमी जो सुबह था शाम उसमें अंतर होता है. सच पूछो तो समानता एक भ्रम है. हम अंतरों के बीच में से कुछ उठा कर समानता के माथे मार देते हैं. अगर सवाल होता कि आदमी और गधे में समानता क्या है तो बात जटिल हो जाती. भूख प्यास दोनों को लगती है, प्रेम और पैदा दोनों ही करते हैं, जीवन संघर्ष और मृत्यु दोनों के हिस्से में है. फिर भी कुछ है जो उनमें अंतर करता है. अगर भारत को दृष्टि में रखते हुए देंखे तो कह सकते हैं कि आदमी चुनाव लड़ सकता है गधा नहीं. दूसरा यह कि आदमी चुनाव में गधे को मुद्दा बना सकता है लेकिन गधे के लिए आदमी इस लायक भी नहीं है. कल जब चुनाव परिणाम आयेंगे तो कोई आदमी ही जीतेगा और वह अहसान फरामोश गधे का आभारी भी नहीं होगा. किसी ने जगह जगह हाथी बनवा कर अपनी छाती चौड़ी की. कल गधों की प्रतिमा बनवा कर कोई अपना फर्ज पूरा नहीं करेगा. यही अंतर है आदमी और गधे में.


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बुधवार, 22 फ़रवरी 2017

टमाटर मंडी के बाहर कवि

दोनों वरिष्ठ कवि मंडी से टमाटर खरीद कर लौटे थे. एक जमाना था जब वे दो-चार कविताएं सुना कर टमाटर-बैंगन वगैरह इकठ्ठा कर लिया करते थे. उस समय कविता को ले कर लोगों में जबरदस्त संवेदना थी. कवितायें तो उनकी आज भी वैसी ही हैं, टमाटर भी सस्ते हैं लेकिन लोगों ने बर्दास्त करना सीख लिया है.  ज्वाला जी के पास छब्बीस रूपये थे, उन्होंने तेरह किलो टमाटर खरीदे और इस सफलता पर उनके अंदर तक एक शीतलता उतर आई थी. प्याला जी के पास थे तो तीस रुपये लेकिन पच्चीस रुपये तात्कालिक भविष्य के लिए बचा कर उन्होंने मात्र ढाई किलो टमाटर खरीदे. खबरों से पता तो यह चला था कि किसान मंडी के गेट पर टमाटर फैंक कर चले जाते हैं. लेकिन वो कल की बात थी, आज टमाटर का भाव दो रुपये किलो रहा. प्याला जी की जेब अक्सर बदनाम रहती है इसलिए वे स्वभाव के विपरीत स्थाई गंभीर हैं. बोले- कितनी भीड़ थी मंडी में ! सारा शहर ही उमड़ पड़ा टमाटर खरीदने के लिए. इतने लोग नहीं आये होते तो शायद आज भी किसान फैंक कर चले जाते.
ज्वाला जी को अब कोई टेंशन नहीं था. साल भर की चटनी के लिए वे पर्याप्त टमाटर खरीद चुके थे. लिहाजा अब उनका संवेदनशील हो जाना सुरक्षित था, -- वो तो ठीक है, लेकिन किसान की सोचो. उस बेचारे की तो मजदूरी भी नहीं निकली. प्यालाजी नासमझ नहीं हैं, उन्होंने लापरवाही से जवाब दिया किसान की किसान जाने या फिर जाने सरकार. गेंहूँ,चावल,दाल वगैरह सब दो रुपये किलो मिले तो अबकी बार,रिपीट सरकार.
जरा ये तो सोचो, भाव नहीं मिलेंगे तो किसान आत्महत्या करने लगेंगे. ज्वालाजी जन-ज्वाला होने के मूड में आने लगे.
उन्हें आत्महत्या नहीं करना चाहिए. साहित्य की मंडी में हमारी कविता को कभी भाव नहीं मिले तो क्या हमने आत्महत्या की ?! प्यालाजी अपने अनुभव से ठोस तर्क दिया.
ज्वालाजी को लगा कि उन पर ताना कसा गया है, - दूसरों की तो पता नहीं लेकिन मेरी कविता को तो भाव मिलता है.
हां मिलता है, दो रुपये किलो. .... कल मैंने अखबार की रद्दी तीस रुपये में तीन किलो बेची थी. प्यालाजी ने अपना गुस्सा निकला.
दो रुपये ही सही, पर मैं मुफ्त में अपनी कविता फैंकता नहीं हूँ, कभी फेसबुक पर कभी यहाँ वहाँ . ज्वालाजी ने भी आक्रमण किया.
इस मुकाम पर बात बिगड सकती थी लेकिन दोनों ने हमेशा की तरह गम खाया. कुछ देर के लिए दोनों के बीच एक सन्नाटा सा पसर गया. साहित्यकारों का ऐसा है कि जब भी सन्नाटा पड़ता है तो उनमें समझौते की चेतना जागृत हो जाती है. पहल प्यालाजी ने की - अगर किसान खेती करने के साथ कविता भी करने लगें तो उनमें बर्दाश्त करने की क्षमता का विकास होगा. सुन कर ज्वालाजी ने लगभग घूरते हुए उन्हें हिदायत दी- कैसी बातें करते हो आप !! पहले ही बहुत कम्पटीशन है कविता में. जो भी रिटायर हो रहा है सीधे कविता ठोंक रहा है और काफी-डोसा खिला कर सुना रहा है !! और पता है किसानों के पास बुवाई-कटाई के बाद कितना समय होता है ! वो कविता के खेत बोने लगेंगे और आदत के अनुसार यहाँ लाकर ढोलने लगेंगे तो हमारा क्या होगा !? प्यालाजी को अपनी गलती का अहसास हुआ, बोले मुझे क्या, चिंता की शुरुवात तो तुम्हीं ने की थी. तुम्ही बताओ क्या करें ? ज्वाला जी सोच कर बोले- किसान पर कविता लिखो, और किसी गोष्ठी में ढोल आओ. ... बस हो गया फर्ज पूरा.

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