कश्मीर से
कन्या कुमारी तक भारत एक है और यह बात आदमियों के साथ गधो पर भी लागू होती है. इधर कुछ गैर राजनितिक जिज्ञासु पूछ
रहे हैं कि आदमी और गधे में क्या अंतर है ? इस तरह का सवाल किसी गधे के सामने आये
तो उसे भी ज्यादा सोचने की जरुरत नहीं होती, किन्तु गधे टीवी नहीं देखते हैं. प्राइम
टाइम पर दनादन दुलात्तियां चल रहीं हैं जिसे बहस नाम दिया गया है. कुछ होते हैं
जिन्हें लोग चिन्तक वगैरह कह कर प्रायः ख़ारिज कर दिया करते हैं, वे हर सवाल का
जवाब गंभीरता से देते हैं. कायदा यह है कि जो चीज गंभीरता से दी जाये उसे गंभीरता
से लिया भी जाना चाहिए. चिन्तक वैसे भी थोड़ा भारी प्राणी होता है, उस पर गंभीरता
का गीलापन और आ जुड़े तो वजन बढता ही है. ऐसे ही चिन्तक किस्म के एक ‘जी’ हैं, बोले - “ देखिये यह एक बहुत ही सामायिक और गूढ़ प्रश्न है. प्रबुद्ध समाज को यह
देखना और समझना होगा कि गधा कौन है. अगर चौपाये और दोपाये से इस अंतर को कर रहे
हैं तो निसंदेह हम नासमझ हैं. क्योंकि इतना अंतर तो मूर्ख भी जानते हैं. सो जरुरी
है कि देश इस पर गहरे से चिंतन करे. “
चिंतन को
लेकर आप किसी तरह का खौफ मत खाइए. सामान्य रूप से चिंतन अच्छी चीज है. दरअसल चिंतन
एक मज़बूरी होता है और कई बार शौक भी. यह दवा भी है और बीमारी भी. जब कोई चिंतन
करने लगे तो उसे रोकना नहीं चाहिए. सुरक्षित यही है कि उसे अच्छी तरह से कर लेने
दिया जाये. कई बार इसी से स्वास्थ में सुधार होने लगता है और लोग च्यवनप्राश को
श्रेय देने लगते हैं. बड़े लोग जो बहुदा चिंतन में ही वक्त बिताया करते हैं और प्रायः
दीर्धायु होते देखे गए हैं. चिंतन अनुलोम-विलोम दोनों प्रकार का होता है. सत्ता के
जाते ही चिंतन विलोम होने लगता है. अगर कोई पूरी मेहनत से विलोम कर ले तो उसे
अनुलोम का मौका भी मिल सकता है. खैर, इन सब बातों से आपको क्या लेना-देना. इस समय
वक्त की दहलीज पर सवाल यह है कि आदमी और गधे में क्या अंतर है ?
सामान्य
आदमी का ध्यान आदमी और गधे में उलझ गया है. जबकि मूल प्रश्न यहाँ ‘अंतर’ है. अंतर समानता
का विरोधी है. लेकिन जैसा कि सब जानते हैं कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं.
जहाँ लोकतान्त्रिक मूल्यों का महत्त्व होता है वहाँ किसी भी तरह के अंतर को बहुत बुरा
माना जाता है. लेकिन इससे अंतर मिटता थोड़ी है , आदमी और आदमी में अंतर होता है,
गधे और गधे में भी, चाहे वो किसी एक ही राज्य के क्यों न हों. जब अंतर की ही खोज
करते रहेंगे तो अंत में हमें समानता का नामोनिशान नहीं मिलेगा. इसलिए समय की मांग
है कि समानता पर ध्यान केंद्रित किया जाये. लेकिन संसार में समान कुछ भी नहीं है.
जो समान समझे जाते हैं उनमें भी अंतर होता है. एक माँ-बाप की संतानों में अंतर
होता है. और तो और, आदमी जो सुबह था शाम उसमें अंतर होता है. सच पूछो तो समानता एक
भ्रम है. हम अंतरों के बीच में से कुछ उठा कर समानता के माथे मार देते हैं. अगर
सवाल होता कि आदमी और गधे में समानता क्या है तो बात जटिल हो जाती. भूख प्यास
दोनों को लगती है, प्रेम और पैदा दोनों ही करते हैं, जीवन संघर्ष और मृत्यु दोनों
के हिस्से में है. फिर भी कुछ है जो उनमें अंतर करता है. अगर भारत को दृष्टि में
रखते हुए देंखे तो कह सकते हैं कि आदमी चुनाव लड़ सकता है गधा नहीं. दूसरा यह कि
आदमी चुनाव में गधे को मुद्दा बना सकता है लेकिन गधे के लिए आदमी इस लायक भी नहीं
है. कल जब चुनाव परिणाम आयेंगे तो कोई आदमी ही जीतेगा और वह अहसान फरामोश गधे का
आभारी भी नहीं होगा. किसी ने जगह जगह हाथी बनवा कर अपनी छाती चौड़ी की. कल गधों की
प्रतिमा बनवा कर कोई अपना फर्ज पूरा नहीं करेगा. यही अंतर है आदमी और गधे में.
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