बुधवार, 20 जनवरी 2021

सातवाँ दांत हिल रहा है

 




पहली बार दांत में दर्द हुआ था तो डाक्टर ने सबसे पहले अक्कल दाढ निकल दी और कहा अब जब भी तकलीफ हो या न भी हो तो कुछ सोचना मत, सीधे चले आना. डाक्टर के पास सीधे चले जाते रहने से उसका आत्मविश्वास बढ़ता है. अब तक छह दांत निकल चुके हैं. डाक्साब का कहना है कि तम्बाकू तो सारे दांतों ने चबाई है, सो न्याय सबके साथ होगा. दंतशाला  में देर हो सकती है मगर अंधेर नहीं. जैसे जैसे नंबर लगेगा बाकी भी निकाले जायेंगे. जिस दिन वे सोलह या इससे काम रह जायेंगे, दंत-सरकार अल्पमत हो जायेगी तो संसद भंग करके राष्ट्रपति शासन यानी डेन्चर लगा दिया जायेगा. चाहे नकली हों पर सलीकेदार दांतों से मुस्कराने का मजा ही कुछ और होता है. कल तेजी से खर्च हो रहे एक नागरिक के सारे दांत निकालने के बाद उनमें बत्तीसी फिट करते हुए डाक्टर ने कहा कि देखिये अंकल जी, अब आप कितने जवान लग रहे हैं ! जब आप मुस्करायेंगे तो मार्निंग वाक करने वाली लड़कियों के अंदर हूम हूम होने लगेगा.

मैं जनता हूँ डाक्टर यही बात एक दिन मुझे भी कहने वाले हैं. मैं तो तब बाल भी रंग लूँगा. मन तो आँख पर चढे चश्मे को भी निकाल फैंकने का है लेकिन आजकल चश्में वालों के प्रति धारणा बदल गयी है. पुराने ज़माने में तो उनकी शादी मुश्किल से होती थी जिन्हें चश्मा लगता था. लेकिन अब मुझे कौन सी शादी करना है !! इश्क लडाने भर को मिल जाये, बस बहुत हुआ. कोरी ऑक्सीजन के लिए रोज सुबह सुबह उठना वैसे भी किसको अच्छा लगता है. कोई टारगेट हो, यानी दिन की शुरुवात ईश्कियाना हो जाये इससे अच्छी बात क्या होगी, ऑफकोर्स इस उम्र में भी .

छह निकल गए हैं, सांतवे को मैं देखता हूँ, मेरी प्रयास से वो भी हिलने की कोशिश कर रहा है. रामभरोसे को, जिसे सब आरबी कहते है, मैंने बताया.

आरबी का ऐसा मानना है कि वो एक सुलझा हुआ आदमी है. सुलझा हुआ आदमी उसे कहते हैं जिसके आसपास उलझे हुए आदमी होते हैं. जैसे कि इस वक्त मैं हूँ. अगर कोई उलझा हुआ नहीं भी होता है तो ये उसे उलझा कर अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा कर लेता है. उनका मानना है कि दो सुलझे हुए आदमी साथ नहीं रह सकते चाहे वे पति पत्नी ही क्यों न हों. वे बोले –“ देखो गुरु, सिर्फ नई बत्तीसी लगाने और बाल रंगने से काम नहीं चलने वाला है, तुम्हें च्यवनप्राश भी खाना पड़ेगा. तुम्हारे इश्कियाने के अच्छे दिन तभी आयेंगे.

जिस आदमी की अक्कल दाढ डाक्टर की डस्टबिन में पड़ी हो, और बचे हुए दांत कभी मुलायम कभी माया के हो रहे हों और जिसे अच्छे दिनों की तलब भी हो वह क्या कर सकता है ? पिछली बार तो उसने वोट भी दे कर देख लिया था. लोकतंत्र में विकल्प खुले होते है, आदमी प्रयोगधर्मी हो जाता है, वह कुछ भी कर सकता है. च्यवनप्राश खाना कोई बड़ी बात नहीं है. लेकिन आजकल शुद्ध च्यवनप्राश मिलना कठिन है. मैंने आरबी को कहा तो बोला –“ च्यवनप्राश शुद्ध कैसे हो सकता है !! वो तो एक मिलीजुली सरकार है.  दस-पन्द्रह चीजें एक साथ हों तो वे एक ताकत बनती हैं.

वो तो ठीक है, लेकिन कौन सी चीजें मिलायी जाती हैं सवाल यह है. अगर आलू-रतालू मिला दिए तो चन्द्रशेखरप्राश का क्या मतलब है. इसकी सूचि, अनुपात, आधार वगैरह कुछ तो होगा ?

हाँ हाँ , आधार है ना, पहला सांप्रदायिक ताकतों को दूर रखना और दूसरा कमान मिनिमम प्रोग्राम इसका आधार है. एक तीसरा आधार भी है, अपना काम है बन्ता, भाड़ में जाये जन्ता .

भाई साब मैं च्यवनप्राश के बारे में पूछ रहा हूँ !! मैंने आरबी को याद दिलाया.

मै भी तो च्यवनप्राश के बारे में ही बता रहा हूँ. इससे जब सेहतमंद सरकार बन जाती है तो निजी तौर पर आपको भी उम्मीद रखना चाहिए.

रहने ही दो, मुझे सरकार के चक्कर में पप्पू नहीं बनना है भईया. दांत जा रहे हैं, कुछ निजी अच्छे दिन आ जाएँ तो समझो गंगा नहाये.

अच्छे दिन कहाँ से आते हैं ये देखो, जिसे जमाना पप्पू कहता है उस तक को मालूम है कि सरकार बनेगी तब अच्छे दिन आयेंगे. इस बात को समझो कि अच्छे दिनों का मतलब सरकार होता है और सरकार का मतलब अच्छे दिन. बाकि सब मिथ्या है.

तो इसका मतलब हुआ कि जनता के अच्छे दिन कभी नहीं आयेंगे !?

जो सरकार के साथ हैं उनके अच्छे दिन हैं और जो नहीं हैं उनके नहीं हैं. तय हमें और आपको करना है.

आपने तो  उलझा दिया, कुछ समझ में नहीं आ रहा है !

ये तो अच्छी बात है, इसका मतलब हुआ कि आप सरकार के कामों और नीतियों के समर्थक हैं. देखिये संवाद करने से स्थिति कितनी जल्दी स्पष्ट हो जाती है. इसी को सार्थक संवाद कहते हैं. मुझे तो लगता है कि आपके अच्छे दिन आना शुरू हो गए हैं. आप बस जरा सा मुस्कराइए.

कैसे मुस्कराऊँ, अभी मेरे बहुत से पुराने दांत बाकी  हैं.

मुक्ति पाओ, जीतनी जल्दी हो सके मुक्ति पाओ पुरानी  चीजों से. नए से जुडो और नए को जोड़ो, यही विकास है.

मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि संसकृति विरोधी बातें कर रहे हैं आप !

कोई किसी को किसी का विरोधी नहीं बना सकता है. समय आने पर दांत खुद गिरने लगते हैं, अंततः आपके पास नए डेन्चर और च्यवनप्राश के आलावा कोई विकल्प नहीं रहता है. .... क्या सोच रहे हो ?

कुछ नहीं, सातवाँ  दांत हिल रहा है शायद.

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 *जवाहर चौधरी

BH 26 सुखलिया
(भारतमाता मन्दिर के पास)
इंदौर-452010

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9406701670
9826361533

 

शुक्रवार, 15 जनवरी 2021

अफ़सर की पुश्तैनी दुम

 




अफसरी के दौरान उन्हें दुमें बहुत मिली । दुम समझते हैं ना आप ? वही जिसके जरिए महकमों में काम होता है, राजनीति में सीढ़ियां चढ़ी जाती हैं और घर में शांति बनी रहती है । दुम का ऐसा है कि कभी दिखती है , कभी नहीं भी दिखती है पर होती जरूर है । लोगों का कहना है की आदमियों की दुम नहीं होती है । ठीक है कुछ लोग जीवविज्ञानी होते हैं या फिर उनकी मानसिकता चिड़ियाघर तक सीमित रहती है । देखा जाए तो लोकतंत्र भी है । सब को अभिव्यक्ति का अधिकार है । आधुनिक समाज की खूबसूरती यही है कि कोई जनाब अपने दौलतखाने को गरीबखाना कह सकते हैं और खीर पूरी को दाल रोटी । कहने और होने में बड़ा अंतर होता है । इसीसे सभ्य और शिक्षित आदमी की पहचान होती है ।

खैर बात अफसर की हो रही थी आदमी कि नहीं । दिक्कत यह है कि जब घोड़े की बात करो तो घास का जिक्र आ ही जाता है । बहरहाल अफसर के पास दुमों का खासा स्टॉक हो गया था । अपने जमाने में उन्होंने नोट किया की दुम के कारण उनसे सही-गलत उचित-अनुचित काम सस्ते में हो जाया करते हैं । इससे बचने की नियत से वे काम के बदले में 'कुछ और' के साथ दुम भी लेने लगे । यूँ कहना ज्यादा ठीक होगा की काम के बाद दुमदार से दुम रखवा लिया करते थे । सोचा न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी ।  उन्हें बिश्वास था कि राजधानी में बेदुम-आदमी बेदम-आदमी सिद्ध होगा ।  लेकिन उनका भ्रम जल्द ही टूट गया । जिन की दुम उन्होंने रखवा ली थी वे कुछ दिनों के बाद फिर दुम के साथ हाजिर थे । पता चला कि नई उग आती है इनकी । उन्हें टीवी सीरियल की याद आ गई जिसमें राम रावण का सिर काटते और शीघ्र ही वहां दूसरा सिर उग आता था । लेकिन यह ठहरे खानदानी अफ़सर । बाप-दादा सब अफसर रहे। राजनीति में भले ही इस बात को लेकर निपूते हाय-हाय करते रहें लेकिन अफ़सरी में कोई किसी का बाल बांका नहीं कर सकता है । इन्होंने दुम-दक्षिणा लेना बंद नहीं की । लोगों को मालूम था कि अफ़सर दुम लेते हैं । कोई अगर लेता हो तो राजधानी में देने वाले गटर में भी तैरते मिल जाते हैं । इनका नियम था कि कुर्सी पर बैठते कि पहले अगरबत्ती लगा देते थे । भगवान की तस्वीर पर जब तक अगरबत्ती जलती घीरे धीरे चैरिटी करते हैं । बीस पच्चीस मिनट में अगरबत्ती खत्म होते ही इनकी दुमबाजी शुरू हो जाती है । अफसर के आसपास कटी दुमें छिपकली की दुम की तरह दिनभर हिलती रहती हैं । यह देखने अक्सर जूनियर अफसर जुटे रहते । हर दुम के साथ एक किस्सा भी होता तो महफिल में रंग और जम जाता । अफ़सर को सब दुमवीर कहते तो उसकी छाती पचपन दशमलव पांच इंच की हो जाती ।

दिन गुजरते रहे, काजल की कोठरी से अफसर एक दिन बेदाग बाहर आ गए । रिटायर होकर शेष जीवन काटने के लिए उनके पास पेंशन के अलावा दुमें और किस्से भी थे । सुबह शाम मिलने वालों को बताते हैं कि यह दुम फलां की , यह दुम महीना भर तक हिलने वाली भी ।  यह दुम सुनहरी, काम भी टेढ़ा था लेकिन किया भाई साहब । ऐसी सफाई से कि आज तक लोग दांतों तले उंगली दबाते हैं ! मंत्री-संत्री तक को पता नहीं चला कि कब उनकी आंख का काजल चोरी हो गया । अपना तो एक ही सिद्धांत था कि ईश्वर ने मौका दिया है तो उसे निराश नहीं करना चाहिए । भगवान की इच्छा सबसे ऊपर । अगर वो नहीं चाहता तो मौका सामने आता भला !? कबीर भी कह गए हैं-- 'ऐसी अफसरी कर चलो कि आप हंसे जग रोए' । रोज तमाम किस्से होते हैं, होते ही रहते हैं । लेकिन अफसर ने कभी नहीं बताया कि उनके पास भी एक पुश्तैनी दुम है जिसे दादा ने इस्तेमाल किया पिताजी ने वापरा और उन्होंने भी इसी के साथ अफसरी की । एक दिन किसी ने पूछ लिया तो बोले अफ़सर की दुम दुम नहीं परंपरा होती है । और ये देश परंपराओं का सदा से आदर करता चला आ रहा है । बोलो जय हो ।

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*जवाहर चौधरी
BH 26 सुखलिया
(भारतमाता मन्दिर के पास)
इंदौर-452010

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शनिवार, 9 जनवरी 2021

राज्य का सुखविधान

 




जब दुख का पानी सर से ऊपर जाने लगा तो राजा ने राज्य में सुख काल लगाने की घोषणा कर दी । हाथों हाथ एक कानून पास करके राज्य का नाम 'सुखपुरम' रख दिया । इसी कानून में कहा गया कि प्रजा को अब दुखी होने या रहने की आज्ञा नहीं है । दुख अब राज्य के नियंत्रण में रखा जाएगा ।  दुख-मंत्री अपने महकमें और पुलिस की मदद से इस पर सख्त निगाह रखेंगे । जो प्रजाजन बाकायदा यानी आपदा या दुर्घटना के कारण दुखी होंगे उन्हें राज्य की ओर से सांत्वना मिलेगी। लेकिन इसके बाद भी वह दुखी रहे तो सजा का प्रावधान किया गया है । शौकीन दुखियारों, बेवजह दुखियारों  या आदतन दुखीयारों को दुगना टैक्स देना होगा । जो विपक्ष के बहकावे में आकर दुखी होंगे उन पर सरचार्ज भी लगेगा । जो लोग इश्क करके दुखी होंगे उन पर मुकदमा चलेगा और सजा दोनों पार्टी को मिलेगी। किसी परिजन के देहांत पर उसके निकटतम लोगों को तीन दिन दुखी होने की विशेष इजाजत मिल सकेगी  । इसके लिए उन्हें अपनी न्यायसंगत निकटता का उल्लेख करते हुए दुखी होने की लिखित अनुमति थानेदार से लेना होगी । अखबारों की खबर पढ़कर, टीवी देखते हुए दुखी होने पर सुखकाल में पूर्ण प्रतिबंध रहेगा । अखबारों में शोक- समाचार तत्काल प्रभाव से बंद कर दिए गए हैं । निधन का समाचार "प्रभु मिलन गमन" शीर्षक से ही दिया जा सकेगा । प्राकृतिक आपदाओं जैसे बाढ़ भूकंप आदि के संदर्भ में राज्य की रियाया को आधा दिन दुखी होने की इजाजत रहेगी । इन अवसरों पर कारपोरेट जगत भी अगर चाहे तो पांच दस मिनट दुखी होने का प्रस्ताव पास कर सकता है । जो गरीब अपनी गरीबी का बहाना बनाकर दुखी होते रंगे हाथ पकड़े जाएंगे उनके बीपीएल कार्ड तुरंत जब्त कर लिए जाएंगे  । लेखक कवि यदि दुखान्तक रचनाएं लिखेंगे तो उन पर स्वयं दुखी होने और दूसरों को दुख से संक्रमित करने की दो धाराओं के अंतर्गत मुकदमा चलेगा । सजा के तौर पर उन्हें मंच पर बुलाकर सबके सामने संक्रमणश्री या संक्रमणभूषण अपमान से जल्लाद के हाथों अपमानित किया जाएगा।

स्त्रियों के दुखी होने को राज्य गम्भीरता से लेने जा रहा है और इस पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी गई है । क्योंकि राज्य मानता है कि जहां स्त्रियां सुखी होती हैं वहाँ स्वर्ग का वास होता है । लेकिन राज्य स्त्रियों को उदारता पूर्वक श्रृंगार करने और ईर्ष्या करने का मौलिक अधिकार प्रदान करता है ।

रोजमर्रा की छोटी मोटी बातें जैसे महंगाई, मिलावट , भ्रष्टाचार, रेप,  चोरी, हत्या वगैरह के मामले में जनता को सीधे अपने अपने ईश्वर से शिकायत करने की छूट रहेगी । राज्य जनता और ईश्वर के बीच  किसी भी मामले पर गौर नहीं करेगा । राज्य दृढ़ता पूर्वक मानता है कि ईश्वर जो करता है अच्छा ही करता है । जो लोग मानते हैं कि ईश्वर नहीं है उन्हें मानना होगा कि महंगाई, मिलावट, भ्रष्टाचार आदि भी नहीं है । ऐसे लोग यदि विनम्रतापूर्वक भी अपना असंतोष व्यक्त करते हैं तो सीधे सरकार की निगरानी में लिए जाएंगे और जरूरत समझे जाने पर सख्ती से सुखी किए जाएंगे । राज्य जनहित के अरमान और ख्वाहिशें रखने जा रहा है अतः प्रजा को निजी स्तर पर कोई ख्वाहिश या अरमान रखने की इजाजत नहीं होगी ।  क्योंकि इससे दम निकलता है ।  ग़ालिब कह गए हैं कि "हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले ; बहुत निकले मेरे अरमां लेकिन फिर भी कम निकले" । इसलिए प्रजा समझ जाए और कानून का पालन करे ।

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*जवाहर चौधरी
BH 26 सुखलिया
(भारतमाता मंदिर के पास)
इंदौर- 452010

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गुरुवार, 7 जनवरी 2021

नफ़रत का प्रकाश

 



नफ़रत एक सरल आदमी को राजनीतिबाज बना देती है । मार्गदर्शन की जिम्मेदारी में लगे लोग इस प्रक्रिया को जागरूकता कहते हैं  । उनका मलाल यह की अभी लोगों में जैसी चाहिए वैसी जागरूकता नहीं आई है । देश जनसंख्या, महंगाई, बेकारी,  बेरोजगारी से नहीं जागरूकता की कमी से त्रस्त है। मजबूरन उन्हें शिविर वगैरह लगाकर जागरूकता बढ़ाना पड़ती है । एक बार कोई ठीक है जागरूक हो जाए तो उसे अपने घर घर-परिवार,  यहां तक कि जीवन की परवाह भी नहीं होती है । ऐसे सिद्ध जागरूकों को जल्द ही जातू बना लिया जाता है । मोटामोटी यूं समझिए कि जातूजन कौम के रक्षक होते हैं । रक्षक वही हो सकता है जो कौम को प्रेम करें। सिनेमा देख देख कर युवा वह प्रेम करने लगे हैं जो अश्लील है । कौम से प्रेम में यही सबसे बड़ी बाधा है । दूसरी कौम से नफरत करना अपनी कौम से प्रेम करने की पहली शर्त है । दुनिया की हर कौम, हर धर्म परोक्ष रूप से यही सिखाता है । अपना धर्म अपने विचार अपने लोग और अपनी नफरत यानी अपना प्रेम।

आजकल दैनिक जीवन में जागरूकता इतनी हावी है कि अक्सर बाप-बेटे पति- पत्नी के बीच भी 'कूटनीति युक्त' संबंध देखे जा सकते हैं । अगर आप व्यावहारिक जीवन में सक्रिय हैं तो आपको इतनी राजनीतिक समझ होना चाहिए कि दूसरों को मूर्ख बना सकें, झूठ बोल सकें और अपने हित को जनहित सिद्ध कर सकें ।  जैसे यह भाई साहब हैं, इनका नाम है मकरंद रोजधुले । पक्के जागरूक हैं और जातू भी । कहते हैं कि राजनीति में इनकी जड़ें इतनी गहरी हैं कि आदमी कम 'जड़' अधिक लगते हैं । रोजधुले साहब की फिलॉसफी है कि नफरत एक तरह का प्रकाश है जिसे फैलाया जाना चाहिए और प्रेम जो है अंधेरे में किया जाना चाहिए । अपने हिस्से का प्रकाश वे व्हाट्सएप के जरिए फैलाते रहते हैं । मैनेजमेंट गुरु कहते हैं कि काम कैसा भी हो अगर उसे बाँट दिया जाए तो अपेक्षित सफलता मिल जाती है । हफ्ते में दो-तीन प्रकाश युक्त मैसेज वे भेज देते हैं, जिसका सार होता है कि जागो-जागो यानी तुम जागो ।
आज उनका फोन आया, बोले - कैसा लगा ?
"अभी देखा नहीं ।" मैंने टालना चाहा । "परसों भेजा था वह देखा  ?"
" हां वह देख लिया था ।"
"कैसा था ?"
"आंख फाड़ जागरूकता वाला था ।" "कितने लोगों को फॉरवर्ड किया ?" "फारवर्ड तो नहीं किया ।"
"नहीं किया  !! लगता है आप जागरूकता के मामले में एनीमिक हो ! इससे शंका होती है कि आप अपनी कौम को प्रेम नहीं करते हैं । क्यों नहीं तुम्हें राजद्रोही समझा जाए !"
"ऐसी बात नहीं है, मैं करता हूं कौम को प्रेम ।"
" बिना जागरूकता के कौम से प्रेम करना कैसे संभव है !?"  इस बार आपत्ति लेते हुए और कुछ डपटते हुए वे बोले तो मुझे भी कहना पड़ा - "आपकी यह बात समझ में नहीं आई भाई साहब ! आप खुद जब दूसरी कौम वालों के सामने पड़ते हैं तो खुशी जाहिर करते हैं, हाथ मिलाते हैं, गले भी मिल लेते हैं !! इसका क्या मतलब है !?"
"इसका मतलब है मैं मनुष्य से प्रेम करता हूं , इंसान में मैं ईश्वर देखता हूं ।"
"और जागरूकता ? कौम से प्रेम !?"
"ठेके से ... ठेका समझते हो ना ? काम दूसरों से करवाओ तो बड़े पैमाने पर हो जाता है और अपना ही कहलाता है ।  काम मजदूर करते हैं लेकिन भवन तो बनवाने वाले का होता है । ये इनर व्हील की जागरूकता है ।

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*जवाहर चौधरी
BH-26, सुखलिया,
(भारतमाता मन्दिर के पास)
इंदौर- 452 010

फोन- 9406701670

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शनिवार, 2 जनवरी 2021

मीठा कितना रखोगे ?

 



मैनेजमेंट सही हो तो किसी को सम्मानित करना भी फायदे का काम है । करते-करते बैल भी सीख जाता है । साल भर होने को आया अब उनके कर कमलों में फड़कन शुरू हो गई है । सम्मान के लायक कोई ढंग का आदमी सपड़ नहीं रहा है । दिक्कत यह है कि किसी ऐरे गैरे को सम्मानित कर दो तो लोग लंबे समय तक लत्ते लेते रहते हैं । इधर बूढ़ों को जान की पड़ी है । जिस से बात करो वह हाथ जोड़कर कोविड-कोविड करने लगता है । एक जमाना था जब जान से ज्यादा सम्मान की कदर थी । जान छूट जाती है पर सम्मान दीवार पर फोटो के साथ टंगा  गरिमा बनाए रखता है । जीवन के रहस्य को समझते थे लोग । कुछ को याद दिलाया कि समाजसेवी हो आप , मौका दे रहे हैं, काम आ जाओ समाज के । लेकिन उनकी गूंगी हिम्मत जवाब नहीं देती है । वैसे जो मजा फेमस आदमी का सम्मान करने में है वैसा दूसरे में नहीं है। दो साल पहले एक फिल्मी एक्टरेस सपड़ गई थी । क्या शानदार फोटू आई !  ओ हो !! ... साहब मजा आ गया, क्या बताएं आपको । आज भी देखो तो लगता है वरमाला का सीन चल रहा है। फूल-फूल पंखुड़ी-पंखुड़ी तक वसूल हो गई। सम्मान के मार्केट में माइलस्टोन था वह कार्यक्रम । लोग टूटे पड़ रहे थे , हाल सेमी खचाखच भरा था । इधर हाथ में माला और सामने साक्षात स्वप्न-सुंदरी ! हर दिल में एक ही बात थी कि 'हाय हम ना हुए' ।  दूसरे दिन अखबारों में वो गजब चर्चा, वो सानदार फोटू कि पूछो मती । आज भी एलबम देख लो तो रात बिना ड्राइवर की ट्रेन सी निकल जाती है सट्ट से । 

अब कुछ बदल छंट रहे हैं । 2020 पर नजर डालो तो पता चलता है कि कवियों के अलावा साहित्य के मार्केट में कोई सक्रिय नहीं रहा है । लॉकडाउन से लोगों ने बहुत कुछ सीखा है । बंद घरों में लोग बीमार कम हुए कवि ज्यादा हो गए ।  घर-घर कवि, भर-भर कविता । जिन्होंने कभी नहीं लिखी वे भी तीन-तीन पांडुलिपियां थामें प्रकाशक पकड़ने के लिए दिल्ली-तालाब की ओर बंसी डाले बैठे हैं । बीवियां जमाने की भले ही सुन ले अपने मियां की कभी नहीं सुनती, खासकर तब तो कतई नहीं जब वह कविताओं से संक्रमित बैठा हो । खुद क़वारन्टीन होने के बजाए अगर सुन लेतीं और अपने कोप का रेमडेसीवीर ठोक देतीं तो फेसबुक आभारी हो जाता उनका । हम कोई अतिशयोक्ति में ये नहीं कह रहे हैं । यह ग्राउंड रिपोर्ट है । और फर्स्ट, सेकंड, थर्ड फ्लोर की भी यही रिपोर्ट है । अब सवाल यह कि सम्मान करने की हूक का क्या करें । सौ-पचास को इकट्ठा  सम्मानित कर दें ?  दर्जन से कोई चीज लो तो सस्ती पड़ती है, मतलब माला, शाल वगैरा । हो तो जाता है लेकिन मजा नहीं आता । यूनो सम्मान ऐसा होना चाहिए जिसमें मजा आ जाए वरना मतलब क्या है मगजमारी का । एक सम्मान को लोग आज भी याद करते हैं जिसमें मेनका बिहारी का डांस प्रोग्राम भी रखा था । लेकिन उसमें बजट गड़बड़ा गया था । जब से राजनीति वाले चंदा वसूलने लगे हैं लोग सम्मान सेवकों को दूर से ही टरका देते हैं । फिर इस बार तो कोविड ने किसी को चंदा देने लायक छोड़ा ही नहीं । वैसे तो फूल माला सम्मान का भी चलन खूब है । लेकिन फीका सम्मान डायबिटीज वालों को भी पसंद नहीं आता है, जिससे भी बात करो पहले पूछता है 'मीठा कितना रखोगे ?'
सुन रहे हैं कि जनजीवन सामान्य हो रहा है तो विभूतियां भी पटरी पर आ जाएंगी । आज नहीं तो कल कोई न कोई सपड़ जाएगा । आप आइयेगा जरूर ।

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*जवाहर चौधरी
BH 26 सुखलिया
(भारतमाता मन्दिर के पास)
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