शुक्रवार, 15 जनवरी 2021

अफ़सर की पुश्तैनी दुम

 




अफसरी के दौरान उन्हें दुमें बहुत मिली । दुम समझते हैं ना आप ? वही जिसके जरिए महकमों में काम होता है, राजनीति में सीढ़ियां चढ़ी जाती हैं और घर में शांति बनी रहती है । दुम का ऐसा है कि कभी दिखती है , कभी नहीं भी दिखती है पर होती जरूर है । लोगों का कहना है की आदमियों की दुम नहीं होती है । ठीक है कुछ लोग जीवविज्ञानी होते हैं या फिर उनकी मानसिकता चिड़ियाघर तक सीमित रहती है । देखा जाए तो लोकतंत्र भी है । सब को अभिव्यक्ति का अधिकार है । आधुनिक समाज की खूबसूरती यही है कि कोई जनाब अपने दौलतखाने को गरीबखाना कह सकते हैं और खीर पूरी को दाल रोटी । कहने और होने में बड़ा अंतर होता है । इसीसे सभ्य और शिक्षित आदमी की पहचान होती है ।

खैर बात अफसर की हो रही थी आदमी कि नहीं । दिक्कत यह है कि जब घोड़े की बात करो तो घास का जिक्र आ ही जाता है । बहरहाल अफसर के पास दुमों का खासा स्टॉक हो गया था । अपने जमाने में उन्होंने नोट किया की दुम के कारण उनसे सही-गलत उचित-अनुचित काम सस्ते में हो जाया करते हैं । इससे बचने की नियत से वे काम के बदले में 'कुछ और' के साथ दुम भी लेने लगे । यूँ कहना ज्यादा ठीक होगा की काम के बाद दुमदार से दुम रखवा लिया करते थे । सोचा न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी ।  उन्हें बिश्वास था कि राजधानी में बेदुम-आदमी बेदम-आदमी सिद्ध होगा ।  लेकिन उनका भ्रम जल्द ही टूट गया । जिन की दुम उन्होंने रखवा ली थी वे कुछ दिनों के बाद फिर दुम के साथ हाजिर थे । पता चला कि नई उग आती है इनकी । उन्हें टीवी सीरियल की याद आ गई जिसमें राम रावण का सिर काटते और शीघ्र ही वहां दूसरा सिर उग आता था । लेकिन यह ठहरे खानदानी अफ़सर । बाप-दादा सब अफसर रहे। राजनीति में भले ही इस बात को लेकर निपूते हाय-हाय करते रहें लेकिन अफ़सरी में कोई किसी का बाल बांका नहीं कर सकता है । इन्होंने दुम-दक्षिणा लेना बंद नहीं की । लोगों को मालूम था कि अफ़सर दुम लेते हैं । कोई अगर लेता हो तो राजधानी में देने वाले गटर में भी तैरते मिल जाते हैं । इनका नियम था कि कुर्सी पर बैठते कि पहले अगरबत्ती लगा देते थे । भगवान की तस्वीर पर जब तक अगरबत्ती जलती घीरे धीरे चैरिटी करते हैं । बीस पच्चीस मिनट में अगरबत्ती खत्म होते ही इनकी दुमबाजी शुरू हो जाती है । अफसर के आसपास कटी दुमें छिपकली की दुम की तरह दिनभर हिलती रहती हैं । यह देखने अक्सर जूनियर अफसर जुटे रहते । हर दुम के साथ एक किस्सा भी होता तो महफिल में रंग और जम जाता । अफ़सर को सब दुमवीर कहते तो उसकी छाती पचपन दशमलव पांच इंच की हो जाती ।

दिन गुजरते रहे, काजल की कोठरी से अफसर एक दिन बेदाग बाहर आ गए । रिटायर होकर शेष जीवन काटने के लिए उनके पास पेंशन के अलावा दुमें और किस्से भी थे । सुबह शाम मिलने वालों को बताते हैं कि यह दुम फलां की , यह दुम महीना भर तक हिलने वाली भी ।  यह दुम सुनहरी, काम भी टेढ़ा था लेकिन किया भाई साहब । ऐसी सफाई से कि आज तक लोग दांतों तले उंगली दबाते हैं ! मंत्री-संत्री तक को पता नहीं चला कि कब उनकी आंख का काजल चोरी हो गया । अपना तो एक ही सिद्धांत था कि ईश्वर ने मौका दिया है तो उसे निराश नहीं करना चाहिए । भगवान की इच्छा सबसे ऊपर । अगर वो नहीं चाहता तो मौका सामने आता भला !? कबीर भी कह गए हैं-- 'ऐसी अफसरी कर चलो कि आप हंसे जग रोए' । रोज तमाम किस्से होते हैं, होते ही रहते हैं । लेकिन अफसर ने कभी नहीं बताया कि उनके पास भी एक पुश्तैनी दुम है जिसे दादा ने इस्तेमाल किया पिताजी ने वापरा और उन्होंने भी इसी के साथ अफसरी की । एक दिन किसी ने पूछ लिया तो बोले अफ़सर की दुम दुम नहीं परंपरा होती है । और ये देश परंपराओं का सदा से आदर करता चला आ रहा है । बोलो जय हो ।

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*जवाहर चौधरी
BH 26 सुखलिया
(भारतमाता मन्दिर के पास)
इंदौर-452010

फोन-
9406701670
9826361533

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