बुधवार, 23 जुलाई 2014

सदन में बजेंगी घंटियां


                    भियाजी आप सामने बैठे हो इसलिए नहीं ना बोल रहे हैं, पर सच्चाई येई है कि हो तो आप पक्के-विद्वान टाइप आदमी। पढ़लिख नहीं पाए तो क्या हुआ, उंच-नीच सब देखी है आपने, अच्छा-बुरा सब बराबर समझते हो, इसमें कोई शंका करे वो अपनी टांग तुड़वाए। पढ़ाई लिखाई के भरोसे रहते तो आज कहीं आॅफिस में टेबल के नीचे हाथ पसारे बैठे होते तो अपनी जनता का क्या होता। सही वक्त पर स्कूल से भाग जाने का निर्णय आपकी दूरदृष्टि का सबूत है। जनता के भले के लिए कुछ करना पड़े, वो सब आपने किया है। राजनीति के आप माने हुए कीड़े हैं और अभी तक किसी माई के लाल ने वो पेस्टिसाइड बनाया नहीं जिसका आप पर असर हो। लोग आपको बाणगंगा चैराहे के बड़े पीपल के नीचे बिराजे भैरव बाबा का साक्षात अवतार यूं ही नहीं मानते हैं, कुछ तो होगा ना ! जब से प्रतिभा भाभी को ब्याह के लाए हैं, बाकायदा आप ‘प्रतिभा के धनी’ भी हैं, इसमें भी कोई संदेह करे वो मूरख। देश  क्या दुनिया पे निगाह है आपकी, पांच दफे दुबई और दो दफे अमरिका हो आए हैं। आपसे कोई कुछ छुपाना चाहे तो छुपा ही लेगा, ऐसा कम से कम हमें तो नहीं लगता। अच्छे से जानते हैं ना आपको इसीलिए इज्जत आपोआप दिल में उछालें मारने लगती हैं, वरना कोई किसी को आज फूटी आंख भी देखता है ! नहीं ना ? लेकिन होगा, हमें क्या, हमारे संस्कार कोई आज के हैं ! आपके दद्दा जब मर्डरकेस में फंसे थे तब हमारे दद्दा ने पूरे चौदह साल उनकी जै-जै करी थी, आपको तो पता ही है। पर अब तो खूब तरक्की हो गई है, मर्डरकेस खूब हो रहे हैं पर फंसने का रिवाज खतम हो गया वरना हम भी अपना पुश्तैनी फर्ज अदा करते। तरक्की तो होनई चइये थी, नहीं होती तो आज जो देश  चला रहे हैं उनमें से ज्यादातर कहीं चक्की पीस रहे होते तो अच्छा लगता क्या ? एफडीआई से पूंजी जुटाई जा सकती है, नेता थोड़ी जुटा सकते हैं, वो भी देसी, गुलगुले और मुलायम, सही है ना भियाजी ? राजनीति खेल तो है पर बच्चों का नहीं, कि कोई मम्मी की अंगुली पकड़े आए और अंग-बंग चौक-चंग करने लगे मजे में। जब तक आप जैसा वीर न हो हम जैसों को वोटर से आगे कुछ बनने की सोचना भी खतरे से खाली नहीं है। तो बात ये थी भियाजी कि लोग कड़वी दवाई को लेकर अभी भी अटके पड़े हैं। बजट-वजट तो आया-गया, अभी भी कड़वी दवा जैसा कुछ बाकी है क्या ? बात साफ हो जाए तो बड़ा अच्छा हो।
                     आमतौर पर भियाजी किसी को मूं लगाते नहीं हैं। लेकिन हमारी बात और है ये तो अब तक आप समझ ही गए होंगे। बोले - बात कड़वी दवा की नहीं सुधारों की है। सरकार चाहती है सुधारों का सिलसिला शुरू किया जाए। कांग्रेस को तो सुधार दिया है अच्छी तरह से और उसकी लक्ष्मणरेखा भी तय कर दी है। वामपंथियों ने कांग्रेस के राज में खूब अइंया-बइंया की, अब उनके लिए बियर बार के अलावा कहीं जगह नहीं है। अच्छे दिन हैं, हमारे दक्षिणपंथियों को अपने आंख-कान खोलने की जरूरत नहीं है, क्योंकि वामपंथी ‘गार्निशिंग ’ के लिए भी उपलब्ध नहीं हैं। मन में आए जिधर मारिए इंट्र्यिां और संसद में बजेंगी घंटियां। हमारा हर युवा हृदय सम्राट भगवा रेशमी कपड़े में बंधी सुधार की सूचि लिए खम ठोकता डोल रहा है। जैसे ही अमृतसिद्धि योग आएगा सुधार योग का सिलसिला चालू हो जाएगा। सबसे पहले मीडिया को सुधारना पड़ेगा। जनता को भड़काने या मूर्ख बनाने का काम उसका नहीं है। उन्हें राजनीति में  नहीं पड़ना चाहिए। सलमान और शाहरुख अभी गले मिले हैं उस पर चार दिन चर्चा करें हमें आपत्ती नहीं है। लेकिन सरकार को लेकर पूछाताछी करोगे तो बताना पड़ेगा कि तुम्हारा काम क्या है। शिक्षा में सुधार की जरुरत है, लोग पढ़लिख कर बेलगाम हो जाते हैं ये नहीं चलेगा। साधु संत तय करेंगे कि विश्वविद्यालय  में क्या पढ़ाया जाएगा, तय क्या करेंगे वो खुद ही पढ़ाएंगे। इतिहास सुधारना पड़ेगा, हमलावर हमारे इतिहास नहीं हैं, जिन्होंने मुकाबला किया, हमारे जो वीर लड़े वो हमारा इतिहास है। लोगों का, खासकर महिलाओं का लिबास सुधारना जरूरी है। उनका लिबास ऐसा होना चाहिए कि एक बार कोई देख ले तो दूसरी बार देखने की इच्छा ही नहीं हो। और भी बहुत से सुधार होगें, जिनको भी सुधारने की जरूरत समझी जाएगी, सुधारा जाएगा।
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बुधवार, 16 जुलाई 2014

साहित्य में अनामंत्रित

                    भइया किस्से कहानी का जमाना तो अब रहा नहीं। चुटकुलों को इकट्ठा करके सौ करोड क्लब वाली फिल्मों का मसाला तैयार हो जाता है तो कहानी सुने कौन। लेकिन आप ठहरे पक्के कानसेन, कहोगे कि संता-बंता ही सुना दो, तो बाबू वो हमसे बनेगी नहीं। लेकिन आपको ऐसे जाने भी नहीं देंगे, आजकल सुनने वालों और पढ़ने वालों का भारी टोटा है, इतना कि लगता है ये आदमी नहीं गल्फ के कुंओं का तेल हैं। भले ही सबसीड़ी का मलाल हो पर साहित्य की गाड़ी आपके बगैर चले भी तो कैसे। सच पूछो तो आप जैसा हाथ लग जाए तो और चाहिए क्या कलम साधक को। तो भाई साब जब आपने उठा ही लिया है तो समझ लो कि हम आपके कंधे पर हैं। आज आप हुए विक्रम और हम आपके बैताल। आराम से बैठो और सुनो कहानी।
                 एक था दुखिया-गरीब, वक्त का मारा, किस्मत का हारा। जैसे बाढ़ में फंसा आदमी लता पकड़ कर अपने को बचाए रखता है वैसे ही उसने साहित्य की लता को पकड़ लिया था। दीवाना था कथा कहानियों का, शब्द उसके सिपाही। नगर में जब भी कोई लेखक आए, पुस्तक चर्चा हो, पुस्तक लोकार्पण हो उसे लगता कि वहां उपस्थित होना उसकी नैतिक जिम्मेदारी है। इतना कि साहित्य आगे आगे और वो पीछे पीछे, जैसे किसी लड़की का पीछा करता हुआ कोई आवारा छोरा हो। साहित्य प्रेमी तो बहुत होते हैं, पर वो आशिक लेखन का। इतना कि रातदिन किताबें ही सोचता है, किताबें ही पढ़ता है। लेखक उसके दूसरे आराध्य, मिल जाएं तो बिछ बिछ जाए, प्रेम की इतनी कबड्डी कि भक्ति का पाला भी छू ले कभी कभी। भला आदमी इतना कि विश्वास  न हो, न गरीबी से शिकवा, न दुःख की शिकायत। 
                     नगर में शब्द साधक कम थे, इधर कलम वीरों की संख्या लगातार बढ़ रही थी। जरूरतमंदों को ‘साहित्यिक-महरी’ का काम मिल रहा था। जहां झाडू-पोछा-बरतन तो होता ही है, वहीं चमक दमक बनाए रखने के लिए कुछ किताबें भी ‘करवाने’ में बुराई क्या है। सूत्र वाक्य यह है ही कि ‘आज के युग में पैसे से क्या नहीं हो सकता है’। और यह भी कि ‘हर चीज बिकती है, खरीदने वाला होना चाहिए’। किताबें ऋतु की तरह नियमित आ रही हैं। कद्रदानों के लिए किताब होन्डासिटि का सा सुख देती है। हर महीना एक लोकार्पण की जरूरत पड़ने लगी। 
                 तो राजा विक्रम, किस्सा ये है कि वो शब्दों का आशिक अखबार में पढ़ कर चला आया कार्यक्रम में। अभी वह अंदर आ ही रहा था कि उसे रोक दिया दरवाजे पर, पूछा कि आपको निमंत्रण दिया है किसी ने ? उसने कहा निमंत्रण तो नहीं मिला, अखबार में पढ़ कर आया हूँ । तत्काल बताया गया कि कार्यक्रम आपके लिए नहीं, केवल आमंत्रितों के लिए है। वो दीवाना जिद्दी था, बोला - साहित्य तो सबके लिए होता है। विद्यानिवास मिश्र ने कहा है कि साहित्य वो होता है जो सबका हित करे, सबको साथ ले कर चले। इसलिए मैं हमेशा , हर जगह आता हूं। 
          ‘‘विद्यानिवास मिश्र ! इनके कहने से चले आए ! इनको भी हमने निमंत्रित नहीं किया है।’’ गेट सम्हालने वाले ने निमंत्रण सूचि देखते हुए कहा।
            ‘‘मैं तो ये कह रहा हूं कि उन्होंने ऐसा लिखा है अपने निबंध में।’’
            ‘‘साॅरी, उनके लिखे के लिए हम जिम्मेदार कैसे हो सकते हैं!’’
            ‘‘निराला, दिनकर, रामविलास शर्मा वगैरह को भी मैं पढ़ता हूं ।’’
            ‘‘तो उनकी किताबों का विमोचन हो तब जाना वहां !?’’
          ‘‘अंदर बैठे हुए बहुत से साहित्यकारों को मैं जानता हूं और वे भी मुझे जानते हैं। और जिनकी किताब का लोकार्पण होना है उन्हें भी जानता हूं।’’
            ‘‘माफ करो भाई। अभी संभव नहीं है।’’ उसने दूसरे आने वालों पर जांच करती नजर डाली।
            ‘‘अगर मैं अतिथियों को सुन लूंगा तो इसमें दिक्कत क्या है ?’’
            ‘‘अरे !! कल को तुम किसी किटि पार्टी में घुस जाओगे और बोलोगे कि मैं अंताक्षरी सुन लूंगा तो दिक्कत क्या है ! तो कोई घुसने देगा तुमको ! ध्यान रखो किसी भी पार्टी में बिना बुलाए नहीं जाना चाहिए, ये सभ्य समाज का नियम है।’’
            ‘‘लेकिन ये पार्टी नहीं साहित्यिक कार्यक्रम है।’’
           ‘‘सब तुम्हीं तय कर लोगे ? .... गलती सुधार लो, ये एक पार्टी है और तुम एक पेट हों।’’ गेटकीपर नाराज हुआ।
           ‘‘अंदर जो बैठे हैं क्या वो भी पेट हैं ?’’
          ‘‘हां, वे आमंत्रित पेट हैं। ..... समझो भाई, बजट की प्राबलम है। मंहगाई कितनी बढ़ गई है, तुम्हें तो पता होना चाहिए।’’ उसने उपर से नीचे तक उसकी गरीबी को ताड़ते हुए कहा और हाथ जोड़ दिए। 
वैताल बोला - ‘‘राजा विक्रम तुम बताओ कि एक साहित्यिक कार्यक्रम में एक साहित्यप्रेमी को इस तरह अपमानित करने का कारण क्या था। और क्या तुम भविष्य में ऐसी किसी पार्टी में जाओगे ?’’
          ‘‘सुन वैताल, यह मामला सिर्फ पैसों का नहीं है, छोटे दिल का है। असल साहित्यकार संवेदना युक्त होते हैं, वे इंसान को इंसान समझते हैं। जिनके मन में करुणा, प्रेम और इंसानियत नहीं होती है वे बिजूके की तरह होते हैं। जितनी देर वे खेत में होते हैं, अपने को खेत का मालिक समझते हैं। उनका भ्रम एक दिन टूटता है जब परिंदे उनके सिर पर बीट करके उड़ जाते हैं। वैताल मैं ऐसी किसी पार्टी में नहीं जाना चाहूंगा।’’ 
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शनिवार, 12 जुलाई 2014

खुल जा सिम सिम

             
          देखो जी, बात को जरा बारीकी से समझना पड़ेगा, आज की डेट में विपक्ष का काम है कि अच्छे दिनों को आने से रोके। सरकार अच्छे दिन लाने पर आमादा हो रही है। उसकी नियत साफ नहीं है। ये लोग चाहते हैं कि हम भी साठ साल राज करेंगे। हम ये अन्याय कैसे होने दे सकते हैं ! कसम है हमें, हमारा बस चले तो उन्हें साठ हप्ते भी राज नहीं करने दें। आप देखिए, हमें विपक्ष में बैठने की न आदत है और न ही अनुभव। इसीलिए नींद आ जाती है, नींद तो नींद, सपने भी आते हैं। सपने में कोई कुंवारी दिखे तो भी ठीक, पर मुई कुर्सी दिखती रहती है। कुर्सी पकड़ने बढ़ो तो आंख खुल जाती है और कुर्सी पर वो दिखते हैं जिनसे कुर्सी की लड़ाई में कइयों की बुरी गत हो गई। बुरे दिन आए तो ऐसे घुमड़ घुमड़ के आए कि अपनी पार्टी के पूर्व प्रवक्ताओं ने ही कह दिया कि ‘बाबा’ में प्रधानमंत्री मटीरियल नहीं है। जो किसी समय ‘बाबा’ के पाजामें पर प्रेस किया करते थे आज उनका कुर्ता फाड़ने से गुरेज नहीं कर रहे हैं ! ऐसा जता रहे हैं कि वे हाइकमान की गुलामी से मुक्त हुए और उनके अच्छे दिन आ गए। इनका क्या है भई, मौका मिलते ही इस पार्टी से कूद कर उस पार्टी में चले जाएंगे। बाराती इधर उधर हो सकते हैं लेकिन दूल्हे को तो नाक की सीध में ही चलना होता है।
                       अभी बजट आया और देखिए आप सरकार की कलाई खुल गई। पूरे पलटूराम सिद्ध हुए, अपनी जुबान की लाज भी नहीं रखी। जब इन्होंने कहा था कि कडवी दवा देंगे तो देना थी। भारी कर लगाना थे, मंहगाई और बढ़ाते, गरीब का जीना मुहाल करते तो हमारी जान में जान आती। आखिर हमारा भी कुछ हक बनता है। बिना सत्ता  के जीना समझो बिना सांस के जीना है। संख्या इतनी कम हो गई है कि ‘बाबा’ अलीबाबा हो गए लगते हैं। सारे के सारे जब संसद में प्रवेश करते हैं तो मन ही मन ‘खुल जा सिम सिम’ बोलने लगते हैं। लेकिन फायदा कुछ नहीं होता, अंदर जाते ही नींद आने लगती है। मुसीबत ये कि घर में करवटें बदलते रहो पर झपकी भी नहीं लगती। रात रात भर जाग कर अंग्रेजी फिल्में देखो या फिर वीडियो गेम खेलो  .... लेकिन कोई बताए कि कब तक !! कुंभकरण नसीब वाला था, लंबी तान के सो तो लेता था। इधर तो कबीर याद आ रहे हैं- ‘‘सुखिया सब संसार, खावै और सोवै/दुखिया दास कबीर, जागै और रोवै। 
                     सरकार ढ़ोल पीटती है कि वो सवा सौ करोड़ लोगों के दुःख तकलीफ के लिए जिम्मेदार है। तो भइया, विपक्ष सवा सौ करोड़ से बाहर है क्या !? हमारे दुःख तकलीफ के लिए कोई मीठी दवा नहीं है तुम्हारे पास ? थोड़ी तो नजरें इनायत इधर भी करो। कम से कम मान्यता प्राप्त विपक्ष ही बना दो। भागे हुए भूत की लंगोटी लेने के लिए यहां वहां गुहार लगाना पड़ रही है। रही सही कसर एफएम रेडियो वाले पूरी कर देते हैं, बार बार यही गाना बजा रहे हैं - ‘‘रहते थे कभी जिनके दिल में हम जान से भी प्यारों की तरह, बैठे हैं उन्हीं के कूचे में हम आज गुनहगारों की तरह।’’

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शुक्रवार, 4 जुलाई 2014

जानलेवा अमरबेल

                        जानकारों का कहना है कि भ्रष्टाचार के काले हाथ कानून के सफेद हाथ से लंबे होते हैं। बावजूद इसके दोनों हाथों में  किसी प्रकार की प्रतिस्पर्धा नहीं है। कानून अपना काम करता है और भ्रष्टाचार अपना। कई बार दोनों एक ही काम करते दिखाई दे जाते हैं। कभी कभी लगता है कि कानून काम कर रहा है लेकिन असल में भ्रष्टाचार कर रहा होता है। पूरानी कहानी में गधे शेर की खाल औढ़ कर खेत चरते थे, नई कथाओं में देश  चरने लगे हैं। कहा जाता है कि पब्लिक सब जानती है, शायद इसीलिए कि वो कानून से ज्यादा भ्रष्टाचार पर विश्वास  करती है। लोगों को पता है कि महकमों को कानून का पालन करने की तनख्वाह मिलती है, काम के लिए उनके कुछ अलग नियम और रेट होते हैं। अगर आपको कानून का सम्मान करना या करवाना हो तो हाथ टेबल के उपर रखें और किस्मत पर भरोसा करें। यदि अधिकार पूर्वक काम कारवाना चाहते हैं तो टेबल के नीचे हाथ पर कुछ रखें, सुखी रहें। सलीके और शिष्टाचार से सब हो सकता है। 
                   सरकारें कानून के भरोसे नहीं चलती हैं, न ही कानून के सम्मानार्थ कोई नेता बनता है। इसीलिए कभी किसी विद्वान ने कहा था कि हमें नेता नहीं नागरिक चाहिए। लेकिन किसी ने सुना नहीं और गली गली, मोहल्ले मोहल्ले कौड़ी के पचास युवा-हृदय-सम्राट पैदा हो गए। कानून लोकतंत्र की मांग  का सिन्दूर है। इससे साल में एक दिन कानून का करवा-चौथ मनाया जा सकता है। बाकी दिन मुक्त लेन-देन में कोई बाधा नहीं है। जो राजनीति को दुहना नहीं जानते वही इसे गंदी कहते हैं। और जो जानते हैं वे राजनीति से प्रेम करते हैं, उनके लिए राजनीति ‘पारो’ है और वे उसके देवदास। उल्लुओं से पूछो तो पता चलेगा कि देश  एक नाइट क्लब हो गया लगता है। ज्यादातर आधुनिक और सभ्यजन रात में अंधेरा औढ़ कर निकलते हैं। अंदर जाम और सत्ता की मादक थिरकन वातावरण को स्वर्ग सा बनाती है। क्लब के बाहर एक बोर्ड इस सूचना के साथ लगा है कि ईमानदारों और कुत्तों का प्रवेश  प्रतिबंधित है। ईमानदारों का प्रवेश  और भी कई जगह प्रतिबंधित है। यदि कोई ईमानदार है तो जीवन उसका है, वह कैसे भी बरबाद कर सकता है। कानून नागरिक अधिकारों के बीच बाधा नहीं बनता है।
                बावजूद भ्रष्टाचार की सुलभ सुविधा के बहुत से लोग हैं जो इसे समाप्त करने की इच्छा रखते हैं, बशर्ते उन्हें कानून से पूरी सुरक्षा मिले। सुरक्षा का ऐसा है कि अगर मिल जाए तो कोई भी डेढ़ पसली किसी महाखली या महाबली पर भारी पड़ सकता है। वरना एरिया का हप्तेभर पहले पैदा हुआ युवा-हृदय-सम्राट भी खड़े खड़े हड्डियां गिनवा दे तो आश्चर्य  नहीं। इस समय देश  की मुख्यधारा भ्रष्टाचार के नाम है। कार्य संस्कृति के हक में यह छोटा काम नहीं है। बड़े परिश्रम से देश  की जनसंख्या का बड़ा भाग इस मुख्यधारा से जुड़ पाया है। समाज में वंचित लोग सदा से रहे हैं और उनमें व्यवस्था के प्रति असंतोष भी रहा है। लेकिन इस तरह की दिक्कतों से मुख्यधारा को अरक्षित नहीं छोड़ा जा सकता है। कानून ‘व्यवस्था’ की रक्षा के लिए ही होता है। धीरे धीरे शिक्षा और आधुनिकता के संस्कार उपर से नीचे पहुंचेंगे और उनमें सामाजिक सक्रियता के आवश्यक गुण विकसित होंगे। उस दिन हमारे नेताओं का सपना पूरा होगा कि अपने बच्चों के लिए जैसा भारत वे बनाना चाहते थे एक्जेक्टली वैसा बन गया है। 
                      एक जमाना था जब हम पिछड़े थे, हाट बाजार लगा कर बड़ी मुश्किल से कुछ बेच पाते थे। अब घर घर दुकान है, और सब बिक रहा है। ईमानदारीनुमा कुछ जो नहीं बिकता उसे खादी भंडार में हाथ के बने अचार और घानी वाले तेल के बीच रख दिया जाता है। यहां चीजें बिकती कम हैं, सरकारी प्रोत्साहन ज्यादा पाती हैं । हस्तकलाओं की तरह लुप्त हो रही सच्चाई-नैतिकता वगैरह सरकारी अनुदानों के सहारे डम्प पड़ी हैं और वक्त जरूरत नुमाइश  के काम आ जाती है। आखिर हमारे संग्रहालयों में भी कुछ होना चाहिए दुनिया को दिखाने के लिए। 
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मंगलवार, 1 जुलाई 2014

घोड़ा , घास और दोस्ती

                    वोट मांगते समय जो घासफूस जैसे जन का 'प्रतिनिधि’ होता है वो चुनाव जीतने के बाद बड़े आराम से व्यवस्था का प्रतिनिधि हो जाता है। मतपेटियां सत्ता देती हैं, सत्ता का पहला स्नान उसे शासक बना देती है। शासक के पास विकल्प नहीं होते हैं, जैसे गाड़ी में जोते गए घोड़े पास नहीं होते हैं। देखा जाए तो गाड़ी के पास भी विकल्प नहीं होता है, उसे भी हमेशा एक घोड़े की ही जरूरत होती है। घोड़ा अंततः घोड़ा होता है, वह घास से दोस्ती नहीं करता है, गाड़ी से कर लेता है। गाड़ी में नगरसेठ बैठता है, शहरकोतवाल बैठता है, महल-पुरोहित और साथ में कहीं नगरवधु भी बैठती है। घोड़े का सीना घोषित नाप से दो इंच और चौड़ा हो जाता है, जैसा कि तीसरी कसम वाले हीरामन का हुआ था जब उसे पता चला कि उसकी गाड़ी में नौटंकी वाली बाईजी बैठीं हैं। घोड़े को लगता है कि गाड़ी उसी की है, गाड़ी वाले मानते हैं कि घोड़ा उनका है। सवार अनुभवी होते हैं, वे घोड़े से ज्यादा लगाम पर हाथ फेरते हैं। लगाम लंबी होती है, नापो तो स्विस बैंक तक जाती है। घोड़ा गाड़ी से परे मात्र घोड़ा है, लेकिन गाड़ी से जुड़ कर वह शाही सवारी हो जाता है। सड़क पर जब निकलते हैं तो सिपाही डंडा फटकारता है कि लोग-लुगाई एक तरफ, हिन्दू-मुसलिम-ईसाई एक तरफ.... घोड़ागाड़ी से दूर, शाही सवारी में हुजूर। 
             जनता के साथ पार्टी के कार्यकर्ता भी अपने को ठगा सा महसूस करते हैं। कबीर जनता को कह गए हैं कि आप ठगाइये और न ठगिये कोय, और ठगे दुःख उपजे आप ठगाए सुख होय। देश  की राजनीति कबीर की आभारी है, सूझ पड़ गई तो अगली बार सरकार भारतरत्न दे देगी। ठगाई जनता सुखी है यह तय है, फ्रेश  होने के लिए थोड़ा रो-धो लेती है ये बात अलग है। हुजूर जानते हैं कि सवा सौ करोड़ जनता मन में कुछ नहीं रखती, बकबका कर हल्का हो लेना उसकी आदर्श  परंपरा है। मीडिया इस काम में उनकी मदद करके सरकार को मजबूत बनाता है। 
                इसके अलावा मेनेजमेंट के तहत जनता का तनाव कम करने के लिए तमाम योगगुरू भी मैदान में छोड़ दिए गए हैं। जिनको तकलीफ है वे सुबह उठते ही अनुलोम-विलोम में लग जाएं तो मंहगाई का असर कम महसूस होता है। ताजी हवा में मुंह या नाक से लंबी लंबी सांस लो और कहीं से भी लंबी लंबी सांस छोड़ो तो चित्त को बहुत लाभ होता है। ठीक इसी वक्त पेट अच्छे से साफ हो जाए तो मान लीजिए कि अच्छा दिन भी आ गया है। स्पष्ट है कि अच्छे दिन चाहिए तो सबको कुछ न कुछ करना पड़ेगा। यह बात भूल जाइये कि कुछ करने के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है। जनता भली है, किसी को दोष  नहीं देती है सिवा अपने पापी पेट के। बहुत हुआ तो भाग्य के नाम पर अपना सिर पीट लेगी। उसके बाद ‘जाही बिधि राखै राम ताही बिधि रहिए’ कहते हुए अगली ठगाई के लिए उपलब्ध हो जाएगी। 
                गांधीजी बोल के गए हैं कि कोई एक गाल पे थप्पड़ मारे तो तुरंत दूसरा गाल आगे कर दो। हुजूर इस बात को समझते हैं और ‘कोई’ की भूमिका निबाहने में विश्वास  करते हुए पहले थप्पड़ में रेल किराया बढ़ा दिया है। वे निश्चिन्त  हैं क्योंकि देश  में ढ़ाई सौ करोड़ गाल हैं। पांच साल खत्म हो जाएंगे लेकिन गाल बाकी रहेंगे। 
                इधर सिनेमा की एक सुन्दरी ने भी सूत्र-संदेश  दिया है कि ‘थप्पड़ से डर नहीं लगता साहब, प्यार से लगता है’। हुजूर को भी प्यार करने की आदत नहीं है। जब भी लगाएंगे थप्पड़ ही लगाएंगे। लोकतंत्र में जनता थप्पड़ खाने के लिए पैदा होती है, जैसे बकरे अंततः हांडी में पकने के लिए होते हैं। जनता के पास बकरे की अम्मा की तरह कोई अम्मा भी नहीं होती है जो खैैर मना ले।  जनता के नसीब में दो पार्टियां हैं, एक पीटे तो दूसरी अम्मा का नाटक कर देती है और दूसरी पीटे तो पहली। अच्छे दिन अभी अंगूर हैं, तके जाओ। गालिब याद आ रहे हैं, - ‘‘ हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन, दिल के बहलाने को गालिब खयाल अच्छा है’’ । 
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इलाज और बीमारी के बीच कूदफांद

                        जो कभी बीमारी घोषित थे, सत्ता में आने के बाद अब इलाज हैं । जिससे बचने का ढोल पीटा जा रहा था अब वो शिलाजीत है, देश को मर्द बनाने की दवा। साम, दाम, दण्ड, भेद के आगे कोई कुछ बोल भी नहीं सकता है। वरना जिसके भाग्य में जितनी साँस  लिखी होगी रामजी उससे ज्यादा किसी को नहीं देंगे। जहां तक राम का सवाल है, सबसे पहले वही लपेटे में आए हैं। ऐसे में जो लोग महूरत निकाल कर काम नहीं करते राज्य में उनके लिए कोई गैरंटी नहीं होगी। प्रातः बिस्तर से उठते हुए पहले दांया पैर जमीन पर नहीं रखने वालों का दिन खराब होगा, गुण्डे गोली मार दें या घर में चोरी हो जाए तो इसमें प्रशासन की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी। धंधा उसी का चलेगा जो चैघड़िया देख कर दुकान का ताला खोलेगा। लड़कियां भी वही सुरक्षित होंगी जो पूरी ढंकी होंगी या फिर जिन पर कलयुगी रावण कृपा करेंगे। विकास का दावा है, तो पक्के तौर पर होगा। लेकिन अपने ज्ञानचक्षु खोलिए, विकास आगे नहीं, पांच हजार वर्ष पीछे है। इधर जनता के पास कोई विकल्प नहीं है। अतीत में दुःख, भविष्य में डर, वह मान लेती है कि ‘दर्द का हद से गुजर जाना अपने आप दवा बन जाएगा’। जानकार कहते हैं कि इलाज से बचाव बेहतर है। किन्तु बचाव हो कैसे, जिस हवा में  सांस लेते हैं उसी मेें बेक्टेरिया तैरते रहते हैं। आंकडे उठा कर देखें तो देश में जितने बीमारी से मरते हैं उससे ज्यादा इलाज से मरते हैं । हरेक को आजादी है, वो चाहे तो शांतिपूर्वक बीमारी से मर सकता है या उतावला हो कर इलाज से। 
‘‘ भाभीजी सुना है भाई साब बीमार हैं, क्या हो गया ?’’ पडौसन ने पूछा।
‘‘ क्या बताउं, हप्ताभर से उछल रहे हैं, ‘युवा- हृदय-सम्राट’ हो गया है।’’
‘‘ नेतागिरी के मच्छर ने काटा होगा। मैं तो हमेषा ‘गेटआउट’ लगा के रखती हूं।’’
‘‘ घर में तो गेटआउट हम भी लगाते हैं, पर ये बाहर मच्छर-मख्खी के बीच ही रहते हैं और तला-गला, गंदा-बासी सब खाते हैं ना।’’
‘‘ अरे ब्बाप रे ! तब तो तगड़ा इन्फेकशन  होगा !! .... इलाज चल रहा है ?’’
‘‘ दिखवाया तो है, डाक्टर बोले अच्छा हुआ समय पर ले आए वरना केस बिगड़ कर ‘थर्ड स्टेज लीडरी’ का हो जाता।’’
‘‘ क्या होता है थर्ड स्टेज लीडरी में ?!’’
‘‘ चमड़ी मोटी हो जाती है, दिखाई-सुनाई कम पड़ता है, खून में ईमानदारी के प्लेटलेट्स बहुत कम हो जाते हैं, लाज-शरम खत्म हो जाती है, दिनरात खाने की सूझती है, पेट हमेशा  खाली महसूस होता है.....। 
‘‘ जांच करवाई ? कुछ निकला ?’’
‘‘ जांच हुई, पर अभी तक निकला कुछ नहीं। निकलेगा कहां से! अभी तक कोई मौका ही नहीं मिला है।’’ 
                   जनता को समझ में नहीं आ रहा है कि हमारे हृदय-सम्राट इलाज हैं या बीमारी। अभी तक का अनुभव ठीक नहीं रहा है, इलाज समझ कर जिनका हाथ थामा वे बीमारी निकले। एक जमाने में कहा जाता था कि घी-मख्खन खाओ, अब डाक्टर बोलते हैं कि ये बीमारी का घर हैं, इनसे बचो। मौसम ऐसा चल रहा है जिसमें हर पार्टी खुद को इलाज और दूसरी को असाध्य बीमारी बता रही है। यही वजह है कि खासी कूदफांद चल रही है। कुछ बीमारी से कूद कर इलाज में आ रहे हैं, कुछ इलाज से बीमारी में जा रहे हैं। 
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