शुक्रवार, 4 जुलाई 2014

जानलेवा अमरबेल

                        जानकारों का कहना है कि भ्रष्टाचार के काले हाथ कानून के सफेद हाथ से लंबे होते हैं। बावजूद इसके दोनों हाथों में  किसी प्रकार की प्रतिस्पर्धा नहीं है। कानून अपना काम करता है और भ्रष्टाचार अपना। कई बार दोनों एक ही काम करते दिखाई दे जाते हैं। कभी कभी लगता है कि कानून काम कर रहा है लेकिन असल में भ्रष्टाचार कर रहा होता है। पूरानी कहानी में गधे शेर की खाल औढ़ कर खेत चरते थे, नई कथाओं में देश  चरने लगे हैं। कहा जाता है कि पब्लिक सब जानती है, शायद इसीलिए कि वो कानून से ज्यादा भ्रष्टाचार पर विश्वास  करती है। लोगों को पता है कि महकमों को कानून का पालन करने की तनख्वाह मिलती है, काम के लिए उनके कुछ अलग नियम और रेट होते हैं। अगर आपको कानून का सम्मान करना या करवाना हो तो हाथ टेबल के उपर रखें और किस्मत पर भरोसा करें। यदि अधिकार पूर्वक काम कारवाना चाहते हैं तो टेबल के नीचे हाथ पर कुछ रखें, सुखी रहें। सलीके और शिष्टाचार से सब हो सकता है। 
                   सरकारें कानून के भरोसे नहीं चलती हैं, न ही कानून के सम्मानार्थ कोई नेता बनता है। इसीलिए कभी किसी विद्वान ने कहा था कि हमें नेता नहीं नागरिक चाहिए। लेकिन किसी ने सुना नहीं और गली गली, मोहल्ले मोहल्ले कौड़ी के पचास युवा-हृदय-सम्राट पैदा हो गए। कानून लोकतंत्र की मांग  का सिन्दूर है। इससे साल में एक दिन कानून का करवा-चौथ मनाया जा सकता है। बाकी दिन मुक्त लेन-देन में कोई बाधा नहीं है। जो राजनीति को दुहना नहीं जानते वही इसे गंदी कहते हैं। और जो जानते हैं वे राजनीति से प्रेम करते हैं, उनके लिए राजनीति ‘पारो’ है और वे उसके देवदास। उल्लुओं से पूछो तो पता चलेगा कि देश  एक नाइट क्लब हो गया लगता है। ज्यादातर आधुनिक और सभ्यजन रात में अंधेरा औढ़ कर निकलते हैं। अंदर जाम और सत्ता की मादक थिरकन वातावरण को स्वर्ग सा बनाती है। क्लब के बाहर एक बोर्ड इस सूचना के साथ लगा है कि ईमानदारों और कुत्तों का प्रवेश  प्रतिबंधित है। ईमानदारों का प्रवेश  और भी कई जगह प्रतिबंधित है। यदि कोई ईमानदार है तो जीवन उसका है, वह कैसे भी बरबाद कर सकता है। कानून नागरिक अधिकारों के बीच बाधा नहीं बनता है।
                बावजूद भ्रष्टाचार की सुलभ सुविधा के बहुत से लोग हैं जो इसे समाप्त करने की इच्छा रखते हैं, बशर्ते उन्हें कानून से पूरी सुरक्षा मिले। सुरक्षा का ऐसा है कि अगर मिल जाए तो कोई भी डेढ़ पसली किसी महाखली या महाबली पर भारी पड़ सकता है। वरना एरिया का हप्तेभर पहले पैदा हुआ युवा-हृदय-सम्राट भी खड़े खड़े हड्डियां गिनवा दे तो आश्चर्य  नहीं। इस समय देश  की मुख्यधारा भ्रष्टाचार के नाम है। कार्य संस्कृति के हक में यह छोटा काम नहीं है। बड़े परिश्रम से देश  की जनसंख्या का बड़ा भाग इस मुख्यधारा से जुड़ पाया है। समाज में वंचित लोग सदा से रहे हैं और उनमें व्यवस्था के प्रति असंतोष भी रहा है। लेकिन इस तरह की दिक्कतों से मुख्यधारा को अरक्षित नहीं छोड़ा जा सकता है। कानून ‘व्यवस्था’ की रक्षा के लिए ही होता है। धीरे धीरे शिक्षा और आधुनिकता के संस्कार उपर से नीचे पहुंचेंगे और उनमें सामाजिक सक्रियता के आवश्यक गुण विकसित होंगे। उस दिन हमारे नेताओं का सपना पूरा होगा कि अपने बच्चों के लिए जैसा भारत वे बनाना चाहते थे एक्जेक्टली वैसा बन गया है। 
                      एक जमाना था जब हम पिछड़े थे, हाट बाजार लगा कर बड़ी मुश्किल से कुछ बेच पाते थे। अब घर घर दुकान है, और सब बिक रहा है। ईमानदारीनुमा कुछ जो नहीं बिकता उसे खादी भंडार में हाथ के बने अचार और घानी वाले तेल के बीच रख दिया जाता है। यहां चीजें बिकती कम हैं, सरकारी प्रोत्साहन ज्यादा पाती हैं । हस्तकलाओं की तरह लुप्त हो रही सच्चाई-नैतिकता वगैरह सरकारी अनुदानों के सहारे डम्प पड़ी हैं और वक्त जरूरत नुमाइश  के काम आ जाती है। आखिर हमारे संग्रहालयों में भी कुछ होना चाहिए दुनिया को दिखाने के लिए। 
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