बुधवार, 16 जुलाई 2014

साहित्य में अनामंत्रित

                    भइया किस्से कहानी का जमाना तो अब रहा नहीं। चुटकुलों को इकट्ठा करके सौ करोड क्लब वाली फिल्मों का मसाला तैयार हो जाता है तो कहानी सुने कौन। लेकिन आप ठहरे पक्के कानसेन, कहोगे कि संता-बंता ही सुना दो, तो बाबू वो हमसे बनेगी नहीं। लेकिन आपको ऐसे जाने भी नहीं देंगे, आजकल सुनने वालों और पढ़ने वालों का भारी टोटा है, इतना कि लगता है ये आदमी नहीं गल्फ के कुंओं का तेल हैं। भले ही सबसीड़ी का मलाल हो पर साहित्य की गाड़ी आपके बगैर चले भी तो कैसे। सच पूछो तो आप जैसा हाथ लग जाए तो और चाहिए क्या कलम साधक को। तो भाई साब जब आपने उठा ही लिया है तो समझ लो कि हम आपके कंधे पर हैं। आज आप हुए विक्रम और हम आपके बैताल। आराम से बैठो और सुनो कहानी।
                 एक था दुखिया-गरीब, वक्त का मारा, किस्मत का हारा। जैसे बाढ़ में फंसा आदमी लता पकड़ कर अपने को बचाए रखता है वैसे ही उसने साहित्य की लता को पकड़ लिया था। दीवाना था कथा कहानियों का, शब्द उसके सिपाही। नगर में जब भी कोई लेखक आए, पुस्तक चर्चा हो, पुस्तक लोकार्पण हो उसे लगता कि वहां उपस्थित होना उसकी नैतिक जिम्मेदारी है। इतना कि साहित्य आगे आगे और वो पीछे पीछे, जैसे किसी लड़की का पीछा करता हुआ कोई आवारा छोरा हो। साहित्य प्रेमी तो बहुत होते हैं, पर वो आशिक लेखन का। इतना कि रातदिन किताबें ही सोचता है, किताबें ही पढ़ता है। लेखक उसके दूसरे आराध्य, मिल जाएं तो बिछ बिछ जाए, प्रेम की इतनी कबड्डी कि भक्ति का पाला भी छू ले कभी कभी। भला आदमी इतना कि विश्वास  न हो, न गरीबी से शिकवा, न दुःख की शिकायत। 
                     नगर में शब्द साधक कम थे, इधर कलम वीरों की संख्या लगातार बढ़ रही थी। जरूरतमंदों को ‘साहित्यिक-महरी’ का काम मिल रहा था। जहां झाडू-पोछा-बरतन तो होता ही है, वहीं चमक दमक बनाए रखने के लिए कुछ किताबें भी ‘करवाने’ में बुराई क्या है। सूत्र वाक्य यह है ही कि ‘आज के युग में पैसे से क्या नहीं हो सकता है’। और यह भी कि ‘हर चीज बिकती है, खरीदने वाला होना चाहिए’। किताबें ऋतु की तरह नियमित आ रही हैं। कद्रदानों के लिए किताब होन्डासिटि का सा सुख देती है। हर महीना एक लोकार्पण की जरूरत पड़ने लगी। 
                 तो राजा विक्रम, किस्सा ये है कि वो शब्दों का आशिक अखबार में पढ़ कर चला आया कार्यक्रम में। अभी वह अंदर आ ही रहा था कि उसे रोक दिया दरवाजे पर, पूछा कि आपको निमंत्रण दिया है किसी ने ? उसने कहा निमंत्रण तो नहीं मिला, अखबार में पढ़ कर आया हूँ । तत्काल बताया गया कि कार्यक्रम आपके लिए नहीं, केवल आमंत्रितों के लिए है। वो दीवाना जिद्दी था, बोला - साहित्य तो सबके लिए होता है। विद्यानिवास मिश्र ने कहा है कि साहित्य वो होता है जो सबका हित करे, सबको साथ ले कर चले। इसलिए मैं हमेशा , हर जगह आता हूं। 
          ‘‘विद्यानिवास मिश्र ! इनके कहने से चले आए ! इनको भी हमने निमंत्रित नहीं किया है।’’ गेट सम्हालने वाले ने निमंत्रण सूचि देखते हुए कहा।
            ‘‘मैं तो ये कह रहा हूं कि उन्होंने ऐसा लिखा है अपने निबंध में।’’
            ‘‘साॅरी, उनके लिखे के लिए हम जिम्मेदार कैसे हो सकते हैं!’’
            ‘‘निराला, दिनकर, रामविलास शर्मा वगैरह को भी मैं पढ़ता हूं ।’’
            ‘‘तो उनकी किताबों का विमोचन हो तब जाना वहां !?’’
          ‘‘अंदर बैठे हुए बहुत से साहित्यकारों को मैं जानता हूं और वे भी मुझे जानते हैं। और जिनकी किताब का लोकार्पण होना है उन्हें भी जानता हूं।’’
            ‘‘माफ करो भाई। अभी संभव नहीं है।’’ उसने दूसरे आने वालों पर जांच करती नजर डाली।
            ‘‘अगर मैं अतिथियों को सुन लूंगा तो इसमें दिक्कत क्या है ?’’
            ‘‘अरे !! कल को तुम किसी किटि पार्टी में घुस जाओगे और बोलोगे कि मैं अंताक्षरी सुन लूंगा तो दिक्कत क्या है ! तो कोई घुसने देगा तुमको ! ध्यान रखो किसी भी पार्टी में बिना बुलाए नहीं जाना चाहिए, ये सभ्य समाज का नियम है।’’
            ‘‘लेकिन ये पार्टी नहीं साहित्यिक कार्यक्रम है।’’
           ‘‘सब तुम्हीं तय कर लोगे ? .... गलती सुधार लो, ये एक पार्टी है और तुम एक पेट हों।’’ गेटकीपर नाराज हुआ।
           ‘‘अंदर जो बैठे हैं क्या वो भी पेट हैं ?’’
          ‘‘हां, वे आमंत्रित पेट हैं। ..... समझो भाई, बजट की प्राबलम है। मंहगाई कितनी बढ़ गई है, तुम्हें तो पता होना चाहिए।’’ उसने उपर से नीचे तक उसकी गरीबी को ताड़ते हुए कहा और हाथ जोड़ दिए। 
वैताल बोला - ‘‘राजा विक्रम तुम बताओ कि एक साहित्यिक कार्यक्रम में एक साहित्यप्रेमी को इस तरह अपमानित करने का कारण क्या था। और क्या तुम भविष्य में ऐसी किसी पार्टी में जाओगे ?’’
          ‘‘सुन वैताल, यह मामला सिर्फ पैसों का नहीं है, छोटे दिल का है। असल साहित्यकार संवेदना युक्त होते हैं, वे इंसान को इंसान समझते हैं। जिनके मन में करुणा, प्रेम और इंसानियत नहीं होती है वे बिजूके की तरह होते हैं। जितनी देर वे खेत में होते हैं, अपने को खेत का मालिक समझते हैं। उनका भ्रम एक दिन टूटता है जब परिंदे उनके सिर पर बीट करके उड़ जाते हैं। वैताल मैं ऐसी किसी पार्टी में नहीं जाना चाहूंगा।’’ 
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