मंगलवार, 21 मई 2019

पछताइये कि इंसान हैं आप


पछताना मनुष्य होने का प्रमाण है । यह बात मुझे बचपन में तब पता चली जब पिताश्री ने किसी मसले पर पहले हाथ साफ किये और बाद में गला । बोले –“ तुम्हें अपने किये पर जरा भी पछतावा नहीं है !! तुम इंसान हो या ढोर !?” यहाँ नये जमाने वालों को बता दूँ कि चौपाये और प्रायः पूंछवान प्राणियों को ढ़ोर कहा जाता है । कहीं कहीं ढोर के साथ डांगर बोलने का विवेकपूर्ण चलन भी दिखाई देता है ।  ढोर-डांगर एक साथ बोलने से अगले को साफ हो जाता है कि बात वाकई चौपायों के बारे में है । सभ्य समूह में सिर्फ ढोर कहने से सन्देश जाता है कि बात किसी दोपाये की हो रही है जो इस समय यहाँ अनुपस्थित है ।  खैर, ठुकाई-पिटाई से किसी प्रतिभाशाली बच्चे को कोई दिक्कत नहीं होती है, मुझे भी नहीं हुई थी । लेकिन प्रतिदिन ढोर घोषित होना उसका ही नहीं ईश्वर का भी अपमान है । वह भी सिर्फ इसलिए कि वह पछताया नहीं !! देश की भावी पीढ़ी को मवेशी दर्ज किया जाने लगेगा तो चारा खाना मौलिक अधिकार हो जायेगा ! यह सोचा है किसी ने कि इससे कानून व्यवस्था को कितनी दिक्कत का सामना करना पड़ेगा !!

लेकिन ज़माने का क्या करो, उसे तो अपने दस्तूर की पड़ी है । लिहाज़ा पछताना इंसानीसिफ़त के लिए जरुरी फ़र्ज हुआ । आदमी घोषित रूप से गलतियों का पुतला हो और पछताए नहीं ! ये कैसे हो सकता है । ऊपर वाले ने आला दिमाग दिया है तो इसलिए कि वक्त जरुरत इस्तेमाल कर लिया जाये ।  अच्छी बात ये है कि इस पर जीएसटी भी नहीं लगता है, और क्या चाहिए भाइयो-बहनों । पछताता हुआ आदमी हर किसी को अच्छा लगता है । देवालय में जा कर बन्दा धुटने टेक ठीक से पछता ले तो ईश्वर भी उसकी कोई फ़ाइल पेंडिंग न रखे । नादां आदमी के हाथ में जाम हो तो उसे जन्नत की फ़िक्र और जब जन्नत की तलबगारी सर चढ़े तो जाम की कसक जोर मारे ।  इस बहाली में एक पछतावा ही है जो आदमी को इन्सान बनता है । किसी शायर ने कहा है- “रात को पी, सुबह तौबा कर ली ।  रिंद के रिंद रहे, जन्नत भी नहीं गई । ”

लेकिन हर किसीको जन्नत-पकड़ तौबा की जरुरत नहीं है । मध्यवर्गीय, संस्कारवान और भले किस्म के दोपाये दर्जनभर केले या एक किलो लौकी ले कर भी अच्छी तरह पछता सकते हैं कि मंहगी ले ली । आप यों मानिये कि पछताना एक किस्म का पैदाइशी हुनर है । लेखकों की पत्नियाँ अक्सर सूर्योदय तक किसी भी बात पर माथा ठोंक कर कह देतीं हैं कि “मेरी किस्मत फूटी थी कि .....” . बस ! अब दिन भर के लिए वे इंसान हैं और लेखक बेचारा खांमखां जानवर । वो कवि, छिपकली को देख कर भी सौन्दर्यबोध जगा लेने वाला, दिन भर सोचता रहता है कि आखिर पछताए तो किस बात पर!!

निराश होने से पहले आप चाहें तो लोकतंत्र की सराहना कर सकते हैं । जो व्यवस्था पछताने के अधिक अवसर देती है । लोग वोट किसे भी दें पछताते जरूर हैं । सुनते आ रहे हैं कि देश में सवा सौ करोड़ भाई-बहन हैं । इस समय सारे इस या उस कारण से पछता कर दोहरे हुए जा रहे हैं । गिनिस बुक वालों के पास अवसर है, वे चाहें तो एक साथ सवा सौ लोगों के पछताने का वर्ल्ड रिकार्ड दर्ज कर सकते हैं ।
------