गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

ठीकरे मांग रहे सिर

                 
हारने के बाद हार का ठीकरा सामने आता है। हार जितनी बड़ी होती है ठीकरा भी उतना बड़ा होता है। परंपरा ये है कि जितनी जल्दी हो किसी के सिर पर ठीकरे को फोड़ देना जरूरी है। आदर्श राजनीति में चाकू पीठ में ही घोंपा जाता है, उसी तरह ठीकरा सिर के अलावा और कहीं नहीं फोड़ा जा सकता है। ठीकरा कोई तिजोरी में रखने की चीज नहीं है, न ही पार्टी कार्यालय में मोमेंटो यानी स्मृति चिन्ह की तरह सजाया जा सकता है। लेकिन दिक्कत यह है कि ठीकरा चाहे जहां फोड़ा भी नहीं जा सकता है। उसके लिए बाकायदा एक सिर लगता है, यानी एक बाजिब सिर। ये नहीं कि किसी रास्ते चलते को पकड़ लिया और उसके सिर पर फोड़ दिया दन्न से। पुराने जमाने में अघ्यक्ष के सर को यह सम्मान दिया जाता था, जिस पर नारियल से ले कर ठीकरा तक, सब कुछ फोड़ा जा सकता था। लेकिन हाल के बरसों में कुछ गलतफहमियों ने जड़े जमा लीं। अध्यक्ष के गले में पड़ने वाली मालाओं का ध्यान रहा, ठीकरों को भूल गए। अगर दूरदृष्टि से जोखिम का ध्यान रखा होता तो न सही अध्यक्ष, कम से कम उपाध्यक्ष तो किसी शोषित-पीड़ित बेनाम कार्यकर्ता को बनाया होता तो आज आराम से काम आ गया होता। जिसने दस साल से अपने सिर पर सब कुछ लिया, अगर उसी को जरा सा श्रेय देते तो वह ठीकरे भी अपने सिर पर फुड़वा लेता। अब क्या हो सकता है, गलती हो गई। ठीकरे हर राज्य से थोक में चले आ रहे हैं। पार्टी कार्यालय का पिछवाड़ा गोदाम की तरह ठीकरों से भर गया है। जो अपनी गरदन तक भेजने का दावा कर रहे थे अब ठीकरे भेज रहे हैं। इधर जिन्होंने सारी शक्तियां एक जगह केन्द्रित करके रखी हुई थी उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि ठीकरों का विकेन्द्रीकरण कैसे हो! लेकिन अब कुछ हो नहीं सकता। ठीकरे मुंडेर पर उगे पीपल की तरह रोज बढ़ते जा रहे हैं। समस्या ये है कि यदि समय रहते इन्हें किसी सिर पर नहीं फोड़ा गया तो ये ईंट ईंट बिखेर देंगे।
पार्टी के कुछ उपेक्षित जनों ने विज्ञापननुमा बयान दिये हैं कि वे ठीकरे फुड़वाने के लिए अपना सिर प्रस्तुत करते हैं। लेकिन ठीकरों की तुलना में उनके सिर बहुत छोटे हैं। अगर फोड़ने की कोशिश की गई तो सिर के मुआवजे उपर से गले पड़ जाएगें। फिर इसमें त्याग और बलिदान की बू आ रही है। वे जानते हैं कि इस वक्त कोई ठीकरे फुड़वा लेगा तो कल उसके गले में उन्हें खुद माला डालना पड़ेगी, इज्जत का एक आसन देना पड़ेगा, बावजूद इसके क्या गैरंटी कि कल वंश परंपरा के दावों को भी वह स्वीकार कर लेगा।
कहने को पार्टी में जगह जगह हार के कारणों पर चिंतन बैठक चल रही है। किन्तु वास्तव में उनकी चिंता उपयुक्त सिर की तलाश है। बच्चों को जोखिम में नहीं डाल सकते, उन्होंने तो अभी अभी सिर उठाना सीखा है। अभी तो उन्हें ठीकरों का मतलब भी मालूम नहीं है। यह भी नहीं पता कि वे फूटते कैसे हैं। पता चलेगा तो शायद वे राजनीति से दूर ही रहना
चाहें। अगर कहीं ऐसा हो गया तो भी दिक्कत होगी।
पार्टी जिन्हें अपना चाणक्य कहती आई है, उन्हें बुलाया गया। पूछा कि – आप ही रास्ता बताइये .... कि ठीकरे भी फूट जाएं और शीर्षस्थ
सिर भी बच जाएं।
बहुत विचार के बाद वे बोले – हमें इतिहास में से कोई सिर ढूंढ़ना चाहिए। हमारा इतिहास महत्वपूर्ण सिरों से भरा पड़ा है। ठीकरों की तुलना में ये सिर बड़े भी हैं। समय समय पर हमने उन्हें श्रेय दिया है, उनके माथे पर पगड़ी बांधी है, गले में माला पहनाई है। आज समय
आया है कि वे बुरे वक्त में पार्टी के काम आएं।
‘‘ ये नहीं हो सकता। इतिहास में तो वंश है। उचित व्यक्ति ने
आपत्ती की।
‘‘ वंश  के अलावा भी हैं इतिहास में ।
‘‘ वो पार्टी का इतिहास नहीं है। बाकी किसी को हम इतिहास नहीं
मानते। आप कोई और रास्ता बताइये।
‘‘ मीडिया के सिर फोड़ दीजिए। चाणक्य बोले।
दुकान बंद नहीं कर रहे हैं हम। उचित व्यक्ति ने नाराजी से कहा।
फिर तो एक ही तरकीब है, जनता के सिर फोड़ दो। आम आदमी
हर समय काम आते हैं।
‘‘ ठीक, आम आदमी का सिर सही रहेगा। एक पत्थर से दो
शिकार। ....

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