सोमवार, 30 दिसंबर 2019

अपनी सरकार के साथ उन्नीस बीस



दो हजार उन्नीस के शुरुवाती दिनों में मेरा वजन नब्बे किलो से कुछ ज्यादा था । आज यानी उन्नीस की बिदाई के समय चार किलो कम है । मामला काबिले गौर है । सरकार गलत बयानी और आंकड़ों की बाजीगिरी में माहिर है । कृपया नोट कर लें कि यहाँ सरकार से आशय घर की सरकार है । वजन में चार किलो की गिरावट को उन्होने स्वास्थ्य के लिए अच्छा संकेत बताया । साथ ही दाहिने हाथ पर बाएँ हाथ की ताली मारते हुए कहा कि सरकार की कोशिशों के अच्छे परिणाम अब दिखने लगे हैं । उन्होने डपटते हुए बधाई भी दी ।
“लेकिन मैडम जी ! मैंने तो ऐसी कोई कोशिश नहीं की जिससे वजन कम हो जाए !” हम चौंके ।
“कोशिश !! ... आम आदमी यानी जनता कब कोशिश करती है !? ... सारा कुछ तो सरकार को ही करना पड़ता है । सरकार की मांग में तुम्हारे नाम का सिंदूर जो भरा पड़ा है । तुम्हारा खाना-पीना, कपड़े-लत्ते, सोना-जगना किसके जिम्मे है ?! तुम्हें चाहे पता न चले पर दिन रात वह खटती तुम्हारे लिए ही है । तुम्हारा घी-तैल कम किया, मीठा-मैदा कम किया , महंगा पेट्रोल बचाने के लिए पैदल चलने की आदत डलवाई  । याद करो धर्म का ध्यान करवा कर सप्ताह में दो उपवास किसने करवाए तुमसे ? साल भर शरीर मंदी का शिकार रहा और तुम्हें पता भी नहीं चला ।“  सरकार ने प्रेसनोट सा उत्तर जारी किया ।
याद आया कि यह सब हुआ तो है । वजन में चार किलो की कटौती इनका लक्ष्य था जो पूरा हुआ । सरकार की योजनाएँ इतनी चमत्कारी होती हैं पता नहीं था । लेकिन माताजी और दोनों बहनें इससे खुश नहीं थी । उन्होने चार किलो वजन कम होने को चिंता की बात बताया । साथ ही यह भी संकेत किया कि सरकार की जनविरोधी नीतियों का गंभीर परिणाम है जो आगे जा कर जानलेवा साबित होगा । जब माँ का राज था तो चन्द्र कलाओं सा बढ़ता गया था शरीर । जिस दिन पता चला था कि मेरा वजन सौ किलो पार हो गया है तो बादाम का हलवा बना कर खिलाया था मम्मी जी ने ।
“क्या सोच रहे हो ? ... तुम खुश नहीं हो !?”  अचानक सरकार ने पॉइंट ऑफ ऑर्डर का पत्थर मारा ।
“वो क्या है ... मम्मी जी और बहनजियों ....”
पूरी बात सुने बगैर वे बोलीं –“विपक्षी गठबंधन का काम ही है कि सरकार की अच्छी योजनाओं में खोट निकाले और तुम्हें भ्रमित करे । जानते हो चार किलो वजन कम होने से तुम सेमी सलमान लगाने लगे हो ।  इस वक्त जरूरत है सिक्स पैक जनता की । उम्मीद तो यह थी कि तुम आभार मानोगे, या फिर कम से कम धन्यवाद तो कहोगे  लेकिन ... गठबंधन की राजनीति ने तुम्हारी सोच का हरण कर लिया है ।“
“ऐसा नहीं है सरकार । मम्मी जी कह रही थीं कि इसी तरह वजन कम होता रहा तो  पहचान का संकट पैदा हो जाएगा । क्या भरोसा तुम ही पहचानने से इंकार कर दो और घर से बाहर निकाल दो । अभी किसी भी पहचान-पत्र में वजन का उल्लेख तो है नहीं !!”
“कैसी बातें करते हो जी !! पहचान-पत्रों में नाम और चेहरा तो होता ही है । कैसे पैदा हो जाएगा पहचान का संकट !?”
“मम्मी कहती है कि अच्छी सरकार वो होती है जिसमें लोगो का वजन बढ़े । अगर चार किलो प्रति वर्ष की दर से वजन कम  होता गया तो सोच लो दो हजार उनतीस तक कितने से रह जाओगे ! सरकार तुम्हें तीन कंधों के लायक बना रही है ।“
“तो क्या चाहते हो तुम ?”
“आज़ादी ।“
“आज़ादी किससे ? ... क्या मुझसे ?”
“ठहरो,  मम्मी जी से पूछ कर बताता हूँ ।“
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गुरुवार, 19 दिसंबर 2019

पीठ खुजाइए सरकार


अपने नए स्टाफ के साथ वे पहुंचे, -“आपके समर्थन की वजह से सरकार बन गई है । अब हमारी कोशिश है कि कामकाज अच्छे से हो । बताइये कि सबसे पहले सरकार क्या करे ?” उन्होने फूलों का गुच्छा हाथ में पकड़ाया और उतनी मुस्कान खेंची जितनी कि उनके खनदान में किसी ने नहीं खेंची थी ।
“जरा मेरी पीठ खुजाइए तो । बड़ी खुजली चल रही है । सुना है आपके नाखून बहुत तेज हैं ।“ पार्टी प्रमुख ने पीठ उनकी ओर करते हुए कहा ।
“पीठ तो आप अपने किसी चपरासी से खुजवा लीजिए ना । हमसे क्यों ! ... हम सरकार हैं !!”
“आप सरकार हैं ... क्योंकि हम हैं । ... इतना मत सोचिए सरकार, पीठ खुजाइए ।“
वे सोचने लगे कि राजनीति में सब करना पड़ता है यह तो सुना था लेकिन पीठ खुजाने के बारे में पहली बार पता चल रहा हैं ! डर मीडिया वालों का बहुत है ।  पता नहीं कहाँ कहाँ से देख लेते हैं ! कल अगर हेड लाइन बन गई कि सरकार ने समर्थन के बदले पीठ खुजाई तो प्रतिष्ठित नाखून बदनाम हो जाएंगे । बहुत सोच कर सरकार घिघियाए, -- “देखिए ... मैं अपने पीए को कह देता हूँ वो आपकी पीठ खुजा देगा । अगर हमने खुजाई तो एक समर्थक दल और है । उसको भी खुजली चलने में देर नहीं लगेगी । ... आखिर सरकार को दूसरे काम भी करना हैं ।“
“पीए तो हमारे पास भी हैं जी । उसी से पीठ खुजवाना होती तो आपको समर्थन क्यों देते !!”
“लेकिन जरा सोचिए, जनता के बीच मैसेज क्या जाएगा !”
“हम खुजवा रहे हैं तो मैसेज हमारे हक में जाएगा । लोगों को पता तो चले कि हमारी हैसियत क्या है, वरना सरकार तो आप हैं , जैकारे आपके लगते हैं । “
“तो ऐसा कराते हैं ... यहाँ नहीं ... अकेले में खुजवा लें ... दूसरी पार्टी को पता चलेगा तो वो भी ... “
“दूसरी पार्टी वाले पीठ नहीं खुजवाएंगे । उनका इरादा तो डायपर बदलवाने का है । ... उनके यहाँ गुड्डू, पप्पू, छोटू  वगैरह हैं ... राजनीति में आदमी को बहुत कुछ करना पड़ता है । खुजाने और डायपर बदलने पर सरकार चलती है तो सौदा सस्ता है ।“
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शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

शेर के नाखूनों पर नेलपॉलिश


“आप ठीक कह रहे हैं ... आप जंगल के राजा हैं । सरकार आपकी ही होना चाहिए । इसके लिए पहले पाँव आगे कीजिए .... नेलपॉलिश लगा दें आपको । “ कहते हुए दादू ने पंजे पकड़ कर नाखून रंग दिए । फिर बोले – “देखिए शेर साहब, लाल लाल चमकते नाखून कितने सुंदर लगते हैं । अब चलते फिरते ध्यान रखिएगा कि पॉलिश खराब न हो । और हाँ , किसी पर हमला नहीं करना है । नाखूनो का ध्यान रखो न रखो पॉलिश का ध्यान रखना जरूरी है ।“
समय के साथ हरेक को बदलना पड़ता है । शेर समय से बड़ा नहीं होता है । आज मौका है, और मौका समय की देन है । कुछ देर नाखूनों को देखने के बाद शेर ने अपना सिर झटका और खुद को समझाया कि मान लो कि पॉलिश अच्छी लग रही है ।  इसके बाद मौन सहमति के संकेत दिए ।
दादू नाखून पकड़ कर दांत पकड़ने में माहिर है । उसने कहा – “हे राजन, लोकतन्त्र में शेर वही होता है जो दहाड़ते रहने के बजाए मुस्कराता रहता है और हमला करने के अवसरों पर हाथ जोड़ता है ।“
“ये मुझसे नहीं होगा .... आप कुछ ज्यादा ही उम्मीद कर रहे हैं मुझसे ....” शेर नाराज हुआ ।
“सरकार बनानी है या नहीं ? ... जंगल आपके हाथ से निकाल जाएगा .... शेर के लिए सरकार होना जरूरी है वरना महकमों में आधार कार्ड दिखाने पर ही इंट्री मिलेगी ।“
शेर ने अपने को संयत किया । पूछ “क्या करना होगा !”
“कुछ नहीं ... आप मुसकराना सीखिए, हम लिपिस्टिक लगा देते हैं ।“ कहते हुए दादू ने शेर के होठ रंग दिए ।
लाल नाखून और लाल होठ देख कर शेर का दिमाग राउंड राउंड होने लगा, - “दादू !! कितना गलत मैसेज जाएगा जंगल में ! लोग कहेंगे कि शेर कामरेड हो रहा है ! क्या मुझे अपने ही खिलाफ धरने प्रदर्शन करने होंगे !?”
“राजन ... राजनीति में मैसेज का नहीं .... मैसेज में राजनीति का महत्व होता है । आप अगर शेर के अलावा कुछ समझे गए तो सीटें बढ़ेंगी । ... सीटों के चक्कर में ही हमें एक और पार्टी का समर्थन लेना पड़ रहा है .... उनकी भी कुछ मामूली शर्तें हैं ।“ दादू अगले मुद्दे पर आए ।
“सरकार बननी चाहिए ... शर्तें अगर मामूली हैं तो हमें दिक्कत नहीं है, बताइये ।“
“उनका कहना है कि आपको डायपर पहनना होगा और खादी भी ।“ दादू बोले ।
“ खादी पहनी नहीं हमने आजतक ... वैसे भी खादी पहनना हमारे उसूलों के खिलाफ है । और डायपर क्यों !?  हमारे अपना जंगल है ... हमारी अपनी मर्जी है ...
“नंगा शेर अच्छा नहीं लगता है ... विकास का प्रतीक है डायपर । और अभी भी करोड़ों लोग खादी को देख कर ही वोट देते हैं ।“
“लेकिन दादू, अगर खादी पहनेंगे तो हमारी पहचान खो जाएगी ।“
“शेर की पहचान सत्ता से होती है ... सूरत का इस्तेमाल तो सिर्फ बच्चों की पिक्चर बुक में होता है ।“
“चलो ठीक है, पहन लूँगा । ... अब सरकार बनवाइए फटाफट ।“
“अब तो बन ही जाएगी, कोई दिक्कत नहीं है । समझिए कि हाथी निकाल गया है बस पूंछ  बाकी है ।“
“अभी भी पूंछ बाकी है !! “ शेर चौंका ।
“ कभी कभी मैडम हाथ में रिंग ले कर दिखाएंगी । बस आपको उसमें से कूदते रहना है । ... कोई बहुत बड़ा काम नहीं है । एक दो बार कुछ लगेगा फिर आदत पड़ जाएगी । बाद में तो मजा भी आने लगेगा । ... सोचिए सरकार बनाने जा रहे हैं आप ।“
“ठीक है, यह भी कर लेंगे । ... अब तो सरकार बनाने में कोई बाधा नहीं है ?” शेर ने नेलपॉलिश देखते हुए पूछा ।
“अब भला क्या बाधा हो सकती है ! इतना कर लेंगे तो दुम अपने आप हिलने लगेगी । हो गया काम, बनेगी सरकार, ... बल्कि यों समझिए कि बन गई सरकार ।.... अपना सब कुछ को सरकार में और सरकार को सब कुछ में बदलने की कला का नाम ही राजनीति है । जय महाजंगल । “
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सोमवार, 2 दिसंबर 2019

बाज़ार ठंडा है !


                     
                    जब से बाज़ार ठंडा हुआ है आफ़रों के अलाव जल गए हैं । इधर दिन भर फोन आ रहे हैं, कार ले लो साहब । कीमत में छूट देंगे, सोने का असली सिक्का भी देंगे, एक्सेसरिज फ्री दे देंगे, नगद नहीं हो तो उधार देंगे, लोन फटाफट देंगे, ईएमआई बाटम से भी नीचे वाला लगा लेंगे । बैंक की पहली किश्त आप मत देना हम दे देंगे, पाँच लीटर पेट्रोल भर के देंगे । सरकार ने करोड़ों खर्च करके सीमेंट वाली सड़कें बनवाई हैं तो उससे चिपक के चलो । और क्या चइए आपको !? सोचो मत, हमने सोच लिया है । आप तो आधार आईडी लाओ और हथोहाथ कार ले जाओ । आज की देत में किराने वाला उधार  नहीं दे रहा किसीको, आपके लिए नई कार उधार है । जमाने के लिए मंदी है, आप साहब के लिए 
उपहार है ।

                  चारों तरफ चर्चा है कि बाज़ार ठंडा है । ठंडा होता है बाज़ार लेकिन गरमी कारोबारियों के अंदर बढ़ जाती है । वो पसीना पसीना  हो रहे थे । पूछा तो लाचारी से कहने लगे – बुरे हल हैं । क्या करें ! पूरा बाज़ार ठंडा हो गया है ।  कायदे से बाज़ार अगर ठंडा है तो स्वेटर पहनो । लेकिन नहीं, बाज़ार की ठंड स्वेटर से नहीं भागती है । और न ही एसी की ठंडक से दूकानदारों का पसीना सूखता है । उस पर टीवी का हँगामा कि पड़ौसियों को नानी याद दिला देंगे । मंदी के जलों पर पाकिस्तानी सेंधा नमक अलग से । कोई हाय हाय करना चाहे तो देशद्रोही कहा जाए । कहते हैं दूध देने वाली गाय की लात भी खाना पड़ती है । लेकिन इधर दूध-मलाई  देने वाले बाज़ार की कोई सुन ही नहीं रहा है । गइया मइया और देशभक्ति वगैरह के चलते बाज़ार की क्या औकात ! भैया, दादा, बाउजी बोलते चिल्लाते गला सूख जाता है ।  कल ही बाज़ार ने के. के. महाकाले से पूछा कि इस बार तो दीवारों पर रंग करवाओगे ना ? महाकाले ने साफ माना कर दिया - कोई गुंजाइश नहीं है भाई । हाथ तंग है , उम्मीद भंग है , जिम्मेदारियों का लश्कर संग है , चितकबरे के साथ दीवारें अभी मस्त है, बैंक अकाउंट पस्त है ।
लोग नरपति के पास पहुंचे तो सुन कर वे भी गरम हो गए । बाज़ार कमबख्त बाज़ार है वरना एकाध माबलिचिंग करवा देते तो सहम जाता । नरपति गरम हो तो पूरे दरबार को गरम होना जरूरी है । लेकिन दरबार की गरमी से भी बाज़ार की ठंड दूर नहीं हुई । मीडिया मुँह में घुसने लगा तो बोले मंदी हो या ठंडापन, सब नाटक है विपक्ष का । विकास को देखोगे तब दिखेगा ना । चप्पल वाले लोग भी अब हवाई सफर करने लगे हैं, डेढ़ जीबी डाटा खर्च करने वालों को अब दो जीबी भी कम पड़ने लगा है, हर हफ्ते दो नई फिल्में लग रहीं हैं और हाउसफुल हो रही हैं तो कहाँ है बाज़ार में ठंडापन !? इसी बाज़ार में अपने मुकेश भाई नहीं है क्या ? उसका तो बढ़िया चल रहा है । दुनिया के टॉप टेन में शामिल हुए हैं । जिनके भाग्य खोटे हैं उनके लिए दरबार कुछ नहीं कर सकता है । लोग धर्म से दूर होंगे और दोष बाज़ार को देंगे तो यह नहीं चलेगा ।
“सर, जनता कष्ट में है दुख का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है । इसका कुछ कीजिए । “
“ग्राफ बढ़ रहा है तो इसमे बुरी बात क्या है !!  बढ़ने दो, हम दुख का नाम बादल कर सुख कर देते हैं । .... सुख का ग्राफ बढ़ेगा तो किसी को दिक्कत होगी क्या ?
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शनिवार, 30 नवंबर 2019

जबरन जुमला


             

बिना नाम लिए उन्होने फिर किसी को देशभक्त कहा और हँगामा हो गया । टीवी से ले कर अखबारों तक में मचमच हो गई । हर तरफ एक ही बात है कि “हाय-हाय देशभक्त कह दिया “ । चर्चित होने के लिए, मीडिया में छा जाने के लिए लोगों को क्या क्या पापड़ नहीं बेलना पड़ते हैं । अगर कोई दो जुमले बोल कर पीली रौशनी में आ जाए तो क्यों नहीं बोले । उसे पता है कि जरा सी जबान हिला देने से काम चल रहा है तो किसीको जनसेवा का पूरा कत्थक करने कि जरूरत क्या है ! महीने पंद्रह दिनों में बस एक बार बिना नाम लिए देशभक्त बोल दो, हो गया काम । नेता वही जो चर्चित हो, काम करने के लिए तो अफसर होते हैं, महकमें  होते हैं ।  कई बार बोलने का मन नहीं भी होता है तो रिपोर्टर मुँह में माइक घुसेड़ कर जुमले का जन्म करा लेते हैं । कुछ लोग इसको जबरन जुमला मानते हैं, मीडिया वाले हेडलाइन कहते हैं और टीवी वाले टीआरपी । सबको अपने हिस्से का कुछ न कुछ मिल जाता है । ऐसे में इसे विवादास्पद क्यों कहा जाता है इस पर कोर्ट की राय लेना चाहिए ।  
लेकिन पार्टियों का मामला अलग है । सबके महापुरुष अलग हैं । एक पार्टी में जो महापुरुष है वो दूसरी पार्टी में महाअपराधी है । कई बार पार्टियां दिल पर ले लेती हैं । किसी ने समझाया कि भाई देशभक्त एक साथ कई लोग हो सकते हैं । दंगल में दो व्यक्ति कुश्ती लड़ रहे हैं, एक दूसरे को पटक रहे हैं, एक दूसरे के विरुद्ध हैं लेकिन दोनों ही पहलवान कहलाते हैं । जब देशभक्त कहने वाले भोले से पूछ गया तो उन्होने कहा – “हर आदमी की दुनिया अलग होती है, हरेक का स्वर्ग और नरक अलग अलग होता है । मयखाना किसी के लिए स्वर्ग है तो किसी के लिए नरक । डाकू, गुंडे वगैरह किसी के लिए अपराधी हैं तो किसी के लिए रक्षक और सहायक हैं । इसी तरह देशभक्ति को भी समझा जाना चाहिए । मेरा संसार अलग है, मेरा देश अलग है, मेरे वोटर अलग हैं और मेरे देशभक्त भी मेरे वाले हैं । बाकी आप समझदार हैं । “
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शुक्रवार, 22 नवंबर 2019

खाल से डरते लोग


दरअसल उसने शेर की खाल औढ़ी हुई थी । नीचे वह क्या है यह किसी को पता नहीं था । जंगल के लोग उसे असली समझ रहे थे । इसी भ्रम के चलते वह जंगल का राजा बना हुआ था । खाल की आदत उसे ऐसी पड़ी कि वह भी अपना असलीपन भूल गया । कुछ समय बाद उसके यहाँ संतान पैदा हुई । नर्स बेचारी ने बच्चे को गोद में देते हुए मुबारक कहा ।  नर्स की आँखों में संदेह के डोरे चमक रहे थे जिन पर परदा डालने के लिए वह बोली – बच्चा बड़ा सुंदर है , बिलकुल हुजूर पर गया है ।
उसने अपनी खाल ठीक की और कहा कि मीडिया वालों से तू कोई बात नहीं करेगी । और इस बात को याद रख कि शेर के बच्चे शुरू शुरू में मेमने जैसे ही दिखाई देते हैं । ... तुझे  बख्शीश में वन बीएचके फ्लेट देता हूँ ।“
बात आई गई हो गई । समय गुजरता गया । अंतिम समय आने पर उसने खाल अपने बेटे को औढ़ा दी और कहा कि अब तुम जरूरत के अनुसार गुफा से बाहर भी निकला करो । बेटे को लगा कि अब वह शेर हो गया है । उसने पिता को दहाड़ते देखा था, उसने भी कोशिश शुरू कर दी । एक दिन घूमते हुए वह गुफा से बाहर निकाला । कुछ दूर चलाने पर खरबूजे का खेत दिखा । खरबूज उसकी कमजोरी रहे हैं । अभी तक वो दूसरों के खाए खरबूजों के किस्से सुनता आ रहा था । वह अपने को रोक नहीं सका । खेत में बाड़ लगी थी लेकिन वह कूद गया । ताजे पके खरबूज का स्वाद उसके खनदान में पहली बार किसी ने लिया । इस सफलता ने उसे सब कुछ भुला दिया । अगले ही क्षण उसकी चिपों चिपों से जंगल में एक सच गूंज उठा ।  जो अब तक साथी और सहयोगी थे उनकी नजरों में राजा गिरने लगा । लोग खाल के नीचे झाँकने लगे । मीडिया उसकी लीद के क्लोजप दिखा दिखा कर अपनी टीआरपी बढ़ा रहा था । आखिर वो दिन भी आ गया जब ब्रेकिंग न्यूज चल पड़ी कि राजा शेर नहीं है । तुरंत उसके प्रवक्ता और मीडिया प्रभारी सामने आए, बोले वो शेर नहीं है लेकिन उसकी खाल तो शेर की है ।इसलिए वह राजा है’, उसे राजा मानों । 
अब लोग खाल से डर रहे हैं ।
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शनिवार, 2 नवंबर 2019

पाश कालोनी में कोपभवन


बंगले के बाहर जहां नेमप्लेट वगैरह लगी होती है, एक छोटा सा विज्ञापननुमा बोर्ड लगा था “कोपभवन सुविधा उपलब्ध है “ ।
 माया प्रसाद इसे देख कर ठिठक गए । बात को समझने के लिए कालबेल बजाई । मालिक मकान भण्डारी प्रकट हुए और बोले मैं एडवोकेट भण्डारी हूँ, कहिए । मायाप्रसाद ने देखा कि नेमप्लेट पर उनके भण्डारी और एडवोकेट होने की सूचना है पर कोपभवन के आगे उस पर ध्यान ही नहीं गया ।
“जी मैं कोपभवन के बारे में ...... “
“अभी तो खाली नहीं है । “ उन्होने टका सा जवाब दिया ।
“जानना चाहता हूँ, क्या है कोपभवन में... किसे देते हैं । “
“देखिये, ऐसा है कि महीने में एक दो बार कुपित होने के ऐसे मौके आ जाते हैं जब पुरुषों को, खास कर पतियों को एकांत की जरूरत पड़ जाया करती है । .... इसलिए यह सुविधा बनाई गयी है । “
“पुरुषों को !! ... स्त्रियों को भी तो कुपित होने का जन्मसिद्ध अधिकार है । उन्हें नहीं देते हैं क्या ?”
“स्त्रियों की बात अलग है । वे जब कुपित होती हैं तो पूरे घर को कोपभवन बना सकती हैं । यह योग्यता और क्षमता पुरुषों में नहीं है । वे मुंह फुलाए ड्राइंग रूम में बैठें या बेडरूम में पड़े रहें, न कोई  पूछता है और न किसी को कोई फर्क पड़ता है । अक्सर झक मार कर उसे ही आपना राम नाम सत करना पड़ता है । अगर वे अपना मारक और निर्णायक समय हमारे कोपभवन में बिताएँ तो न केवल उनका मान बचा रहेगा बल्कि उनकी सम्मानजनक घर वापसी भी होती है । एक फायदा यह भी होता है कि दूसरी बार अपमानजनक स्थिति जल्दी नहीं आती है । सामने वाली पार्टी सुबह शाम की मोर्चाबंदी में थोड़ी ढ़ील देने लगती है ।
“मैं तो वरांडे में बैठ जाता हूँ और आते जाते लोगों को देखता रहता हूँ । मेरा तो टाइम पास हो जाता है मजे में । “
“आपका टाइम पास हो जाता है लेकिन सामने वाली पार्टी क्या करती है ये सोचा है ? दरअसल होता यह है कि किसी असहमति या अपमान के चलते जब आप रूठे बैठे हैं तो सामने वाली पार्टी इसका मजा लेने लगती है । वो समझौता वार्ता के लिए कोई पहल नहीं कर के आग में घी डालने का काम करती रहती है । आपको धीमी आंच में लगातार इतना पकाती है कि आपका बोनमेरो तक अपनी जगह छोड़ने लगता है । कोपभवन इस अपमानजनक स्थिति से आपको बचाता है । सही बात तो यह है कि हम इस जटिल एकांत को गरिमा प्रदान करते हैं । “
“भण्डारी जी, यह जो आप मर्द-मान की रक्षा कर रहे हैं, सचमुच अद्भुत है । लेकिन एक कमरे में एकांत काटना कितना मुश्किल होता होगा ! अगर कोई मनाने नहीं आया तो बेचारा कूद कर जान दे देगा ! कौन सी मंजिल पर है आपका कोपभवन ?”
“तीसरी मंजिल पर । लेकिन ऐसा होगा नहीं जैसा आप सोच रहे हैं, क्योंकि इसके लिए हिम्मत चाहिए, यू नो वो बेचारा पीड़ित, प्रताड़ित पति होता है । उसमें किसी किस्म की हिम्मत नहीं होती है ।“ 
“फिर भी एक कमरे में बंद उसका मनोबल टूट जाएगा । “
“यहाँ आने वाले को लगता है कि उसके स्वाभिमान की रक्षा हो गई है, सो निराशा तो समझिए कि पूरी समाप्त हो जाती है । रहा सुविधा का सवाल तो सब दिया जाता है । रूम अटैच्ड टाइलेट है, बेड विथ बत्तीस ईंची टीवी है, फ्रिज विथ सोडा-विस्की है, सीडी प्लेयर और दो सौ अच्छी बुरी फिल्मों की लाइब्रेरी है । अखबार, पत्रिकाएँ और किताबें भी हैं । फ्री वाइफाइ भी है । सबसे बड़ी बात आज़ादी है कुछ भी करने या न करने की । और क्या चाहिए आदमी को !?

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शुक्रवार, 1 नवंबर 2019

जूते हैं तो जय है


जूतों का आविष्कार मूल रूप से पैरों में पहनने के लिए किया गया था । लेकिन जैसे जैसे सभ्यता का विकास हुआ जूते उतारने की आदर्श परंपरा भी विकसित हुई । जूता उतरना जूता पहनने की अपेक्षा कठिन और हिम्मत का काम है । सदियों से जो लोग जूता पहना रहे हैं उन्हें समाज से जाति सूचक संबोधनों के अलावा कुछ नहीं मिला । लेकिन जो समय असमय उतारते रहे हैं उन्हें हुजूर, मालिक, महाराज से लगा कर माईंबाप तक का रुतबा हासिल हुआ । जूतों के कारण वे सरकार थे, सरकार रहे और सरकार हैं । जानने वालों का मानना है कि जिनके हाथ में जूता होता है उनके पैरों के नीचे प्रायः कालीन होता है । ज़्यादातर लोग इसे सिस्टम कहते हैं और कुछ रघुकुल रीत । जनता अगर अनुकूल  हो तो कुर्सी पर जूते रख कर भी आसानी से राज किया जा सकता है ।
कपड़ा इस्तरी किया हुआ हो तभी शोभा देता है । सल तभी मिटाए जा सकते हैं जब इस्तरी गरम हो । खानदानी जूतेदार  बताते हैं कि जूता-व्यवहार दो  तरह का होता है । एक सूखा दूसरा गीला । दोनों का उदेश्य एक ही होता है । जैसे नरम दल और गरम दल । दोनों अंग्रेजों को देश से खदेड़ना चाहते थे । बड़े वाले यानी हुजूर, मालिक, महाराज टाइप के अन्नदाता नुमा दबंग लोग जूता पहनते नहीं हैं, जूतों पर सवार रहते हैं । जूते जितना चलते हैं उनका सिक्का उतना चलता है । मामूली आदमियों के लिए जरूरी होता है कि अपनी बात कहते हुए वे नजरें उनके जूतों पर रखें क्योंकि जूतों की नजर उन पर रहती है । इसे शिष्टाचार कहने से मन में ग्लानि का नहीं गर्व का भाव पैदा होता है । हुजूरों के बुलावे पर जो जाते हैं वे अक्सर जूता-प्रसादी खा कर आते हैं और जो नहीं जाते हैं बाद में भर पेट खाते रहते हैं । हमारे यहाँ लोग भले ही गरीब रहे हों पर कोई यह नहीं कह सकता है कि उसे कभी खाने की कमी रही है । गरीब का सिर बार बार काम में लिए जा सकने वाले प्लास्टिक की तरह होता है और कोई भी व्यवस्था इस पर प्रतिबंध नहीं लगाना चाहती है । कई बार जूतों पर नाक रगड़ाने या जूता चटवाने के किस्से सुनने को मिलते हैं । यह एक तरह की सुविधा है, जिसे फेसिलिटी भी कहा जाता है । सोचिए बुरे वक्त में फंसे व्यक्ति की नाक क्रेडिट कार्ड की तरह काम आ जाए तो इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है । गरीब आदमी की नाक पीओके की तरह दबंगों के कब्जे में रहती है । कई बार मन होता है कि अपनी नाक हुजूर के कब्जे से मुक्त कर लें लेकिन वे खाल उतरवा कर जूता बनवाने की मंशा व्यक्त कर देते हैं ! दबंगों की समानान्तर सत्ता को अभी किसी लौह पुरुष ने गंभीरता से नहीं लिया है ।  
खुशफहम सोचते थे कि देश आज़ाद हो गया तो सब बराबर हो जाएंगे । लेकिन किस्मत भी कोई चीज होती है । ईश्वर ने कुछ लोगों को जूते दिए और कुछ को सिर । जब तक गरीबी नहीं मिटती होंडा सिटी पर सवार जूते जमीन पर पैर नहीं रखेंगे । बीच में कहीं कानून भी होता है लेकिन वह अपने लंबे हाथों से बिना झुके जूतों पर पड़ी धूल साफ करता रहता है । ... जय हो ।
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शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2019

खफ़ा इन्द्र और रावण



इंद्र को क्रोध आ रहा था, पिछले दिनों किसी ने ताना दिया। बात पुरानी है, रावण का पुत्र मेघनाद महाबली था । उसने इंद्र को पराजित किया और बंदी बना कर लंका ले आया । इसके बाद मेघनाद का नाम इंद्रजीत पड़ा। युद्ध में हार-जीत होती ही है। रावण की कैद में इंद्र को बहुत कष्ट हुआ। चलो उसकी भी कोई बात नहीं, कैद में तो सबको कद्दू होना पड़ता है । लेकिन इन्द्र को लगता है कि जो अपमान उसका हुआ वैसा आज तक किसी का नहीं हुआ होगा। इंद्र ने एक बार कृष्ण से पंगा ले लिया था तो कृष्ण ने इंद्र की पूजा बंद करवा दी। इन्द्र ने कुपित हो कर भारी वर्षा करवाई । लेकिन कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठा लिया और अपनी जनता को बचा लिया। तब भी इन्द्र की बहुत किरकिरी हुई। आज भी लोग जब तब इन्द्र की खिल्ली उड़ते हैं। वर्षा के लिए कोई मेंढक मेंढकी का ब्याह करवाता है, कोई निवस्त्र हो कर खेत में हल चलाता है, कोई औंधे तवे पर रोटी बना कर लानत भेजता है। देश में तलाक के खिलाफ माहौल है लेकिन कुछ लोगों ने मेढक मेंढकी का तलाक करवा दिया। मीडिया ने इसका खूब मज़ाक बनाया। इन्द्र को लगा कि उसे गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। पिछले वर्षों में उसने अल्प वर्षा करवा कर लोगों को डराया था। लेकिन लोग मोटी  चमड़ी के हो गए हैं। इस बार भारी वर्षा के इरादे के साथ इन्द्र ने मोर्चा खोल दिया और परिणाम सामने है। लोग अपने बेडरूम से नाव में बैठ कर निकल रहे हैं और तैरती डायनिंग टेबल पर खाना खाते हैं। पूरा देश चेरापूंजी हो रहा है। पीने के पानी की हाय हाय मची हुई है और पानी से तौबा भी कर रहे हैं।

नजारे के लिए इन्द्र निकले तो उन्हें रावण दिख गया। छिंकता-काँपता हुआ रावण देख कर उसे कैद के दिन याद आ गए। कैद के समय मेघनाद ने पूरा निचोड़ कर रख दिया था और ये रावणवा देख कर खी-खी कर रहा था। वह तो अच्छा हुआ कुबेर भी उसकी काँख में दबा हुआ था वरना टाइम पास करना मुश्किल हो जाता। सोचा आज आया है ऊँट पहाड़ के नीचे तो दो बात सुना लेना चाहिए.

"क्यों रावणराज! इतना काँप क्यों रहे हो? जुकाम हो गया है क्या! अरे भाई कुछ लेते क्यों नहीं? कुछ लिया?" पुलक के साथ इन्द्र ने पूछा।

"आप वर्षा बंद करो इन्द्रदेव। हर वर्ष लोग जला जला कर मेरा जीवन लंबा करते हैं। अग्नि के कारण मैं अमर हूँ। मुझे सम्मान पूर्वक, समारोह पूर्वक जलना है। इतनी वर्षा में सड़-गल कर मैं हमेशा के लिए नष्ट हो जाऊँगा । ऐसा हुआ तो क्या तुम्हें अच्छा लगेगा?" रावण ने ठिठुरते हुए कहा।

"मैं जनता हूँ तुम अकेले नहीं हो रावण। तुमने आज घर घर और गली-गली में अपने क्लोन खड़े कर दिये हैं। तुम्हारे कारण जब सारी व्यवस्था ही सड़ गल-रही हो तो तुम्हें भी उसके साथ होना चाहिए । " कह कर इन्द्र ने पूरे वेग से वर्षा आरंभ कर दी।
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मंगलवार, 1 अक्तूबर 2019

लोकतन्त्र और बकरियाँ




शाकाहारी लोग बकरी को एक प्राणी मानते है । अन्यजन इसे मात्र चौपाया समझते हैं और उन्हें जानकर आश्चर्य होता है कि वे दूध भी देती हैं । विशेषज्ञों के अनुसार बकरियाँ दोपाया भी होती हैं और जरूरत पड़ने पर वोट देती हैं । बकरियाँ मानती हैं कि  वे प्रोटीन-विटामिन के साथ बहुत ताकतवर हैं । गांधी जी की सूखी टांगों में जान उन्हीं ने डाली थी । गांधी जी अगर राष्ट्रपिता हैं तो कोई माने न माने वे मानती हैं उन्हें दूध पिलाने वाली बकरी राष्ट्र-दादी हुई । गांधी जी कह गए थे कि बकरिम्मा जिस तरह मुझे जिंदा रखा तुम लोकतन्त्र को भी टनाटन रखना । लेकिन अफसोस कि अभी तक देश ने बकरी-डे या बकरी-दिवस तक घोषित नहीं किया ।
बकरियाँ पालतू भी होती हैं और जंगली भी । पालतू बकरियाँ पाले जाने की मोहताज होती हैं । उन्हें मुफ्त दानापानी, दवा, बिजली वगैरह मिलता है । जंगली बकरियाँ दरअसल बकरियाँ होती ही नहीं है । बकरी की खाल के नीचे असल में वे क्या हैं इस पर शोध की जरूरत है; जो संभव नहीं है क्योंकि शोध पर धन प्रायः वे ही खर्च करती हैं । जंगली बकरियों की एक विशेषता यह होती है कि वे वोट नहीं देती हैं । दूसरा, वे वोट देने वाली पालतू बकरियों से नफरत करती हैं और उनसे अपने को श्रेष्ठ मानती हैं । तीसरा यह कि मांसाहारी होती हैं और जमाना जिन्हें जंगल का राजा कहता है मौका पड़ने पर उसे भी खा जाती हैं । गांधी जी का जमाना और था तब जंगली बकरियाँ भी दूध दे देती थीं । फिर देश आज़ाद हो गया और गांधी जी भी नहीं रहे । जंगली बकरियां मोटी होने लगीं ।  उनके पास काफी धन होता है लेकिन किसी को पता नहीं पड़ता है कि इतना धन आया कहाँ से ! अपनी खाल बचाने के लिए वे कानून के बड़े कीड़ों को जिल्द सहित संविधान चाटने के काम में लगा देती हैं । बेकवर्ड बकरियाँ को देखें तो वे गरीब होती हैं और वोट देने के अलावा हांडी के काम आती हैं । बैकवर्ड बकरियों के बच्चे महाबेकवर्ड होते हैं और जंगली बकरियों के बच्चे महाजंगली । महाजंगली अपनी भूख मिटाने के लिए अक्सर सरकारी बंगलों के गार्डन चर जाते हैं । ताज्जुब कि तब भी उनकी भूख नहीं मिटती है । बैकवर्ड बकरियों की मेंगनी से उम्दा खाद बनती है जबकि जंगली बकरियों की मेंगनी से सरकारी च्यवनप्राश । इस अंतर को ही टीवी वाले विकास बताते हैं ।  
 बकरियाँ मोहब्बत भी करती हैं और प्रायः इसके अंजाम पर रोती हैं । वे परिवार नियोजन का विरोध नहीं करती लेकिन पालन भी नहीं करती हैं, इसलिए बच्चे भी ज्यादा पैदा करती हैं । वे मानती हैं कि हर बार बच्चे दो ही अच्छे । इससे दुनिया में कम बच्चों का संदेश भी जाता है और उनकी मनमानी भी परवान चढ़ती है । आंकड़े बताते हैं कि सन सैंतालीस में इतने करोड़ बकरियाँ थी जो अब कुल मिला कर इतने सौ करोड़ हो गई हैं । लोकतन्त्र में बकरी पालन एक लाभकारी धंधा है । बकरियों को लगता है कि पालन का सिस्टम उनके हक में है और पालने वाले मानते हैं कि उनके । जब भी कोई उन्हें भाइयो और बहनो क़हता है तो बकरियाँ मैं – मैं कहते उछलने लगती हैं । कभी कभी कोई बकरी खुद राजनीति करने का सोचती है लेकिन सफल नहीं होती है । क्योंकि बकरियाँ संगठन का महत्व नहीं समझती हैं । लखनऊ की बकरी भी हम नहीं बोलती, हमेशा मैं बोलती है । ऐसे में भला कोई बकरी कभी नेता बन सकती हैं !? ...... देखिए आवाज आ रही है मैं मैं
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गुरुवार, 26 सितंबर 2019

मंदी पर अफलातून



“इधर मंदी का सुन रहे हैं जी । कहते हैं कि आ रही है, आपने भी सुना होगा” ? चिंतित सिक्का जी बोले ।
“मंदी !! .... कहाँ से आ रही है ?” अफलातून चौंके ।
“कहाँ से !! ... ये तो नहीं पता । जहाँ होगी वहीं से आ रही होगी । जैसे लड़कियां आती हैं मायके ।“ सिक्का ने मजाक किया ।
अफलातून अपने रौ में थे,-  “लड़कियां तो ससुराल से आती हैं ... बल्कि भाई लेने जाते हैं तब आती हैं । ... मंदी को लेने कौन गया ?”
“मैं नहीं गया भियाजी, मंदी मेरी बहन नहीं है ।“
“फिर देखो यार, किसकी बहन है । मंदी का आधार कार्ड तो होगा ही ।“
“आप गलत समझ रहे हो । मंदी का आधार कार्ड नहीं बनता है !!”
“तो पासपोर्ट बनता होगा ? पता तो चले किधर से आ रही है ।
“किसी के घर नहीं आती है, बाज़ार में आती है मंदी ।“
“बाज़ार में ! ... अकेली आती है क्या ?! आजकल बाज़ार में पैर रखने की जगह नहीं होती है ! सोने तक की दुकान पर भीड़ इतनी होती है कि लगता है फ्री में बंट रहा है ।“
“ऐसा नहीं है , जानकार बताते हैं कि जब मंदी आने वाली होती है तब सोने की बिक्री बढ़ जाती है ।“
“तो यों कहिए ना कि मंदी बहू है नवेली । परंपरा है अपने यहाँ, शादी ब्याह के मौसम में सोने की खरीदी बढ़ जाती है । चार साल पहले हमारे यहाँ बड़ी वाली आई थी तब दो लाख का सोना खरीदा था हमने और पिछले साल छोटी मंदी के टाइम तीन लाख का । लेकिन मंदी किसी की भी हो ईज्जत होती है घर की । उसे अकेले दुकेले बाज़ार में नहीं आना चाहिए । पूरा शहर हृदय सम्राट गुंडों से भरा पड़ा है ।“
“अरे अफलातून जी आप कहाँ से कहाँ निकल जाते हैं ! ...आपने अर्थशास्त्र पढ़ा है क्या ?”
“अर्थशास्त्र नहीं दूसरे कई शास्त्र पढ़े हैं । क्यों क्या बात है !?”
“इसीलिए आपको समझ में नहीं आ रहा है । जिन्होंने अर्थशास्त्र पढ़ा है मंदी का मामला उनके लिए है ।“
“ये तो गलत बात है ! लोकतंत्र में मंदी सबके लिए होना चाहिए । गरीब क्या सिर्फ वोट देने के लिए होता है !! माखन माखन संतों ने खाया, छाछ जगत बपराई’, अब ये नहीं चलेगा ।“ वे बोले ।
“मंदी माखन नहीं है भाई । .... कैसे बताएं आपको .... मंदी जो है आती है और छा जाती है बस .... जैसे बादल आते हैं और छा जाते हैं । जब वो ठीक से छा जाती है तो सरकार को चिंता करना पड़ती है ।“
“पूरी सरकार चिंता करती है या उनका कोई चिंता-मंत्री होता है ?”
“सब करते हैं ... पूरी सरकार करती है रात दिन ।“
“चिंता से चतुराई घटे, दुख से घटे शरीर ; पाप से लक्ष्मी घटे, कह गए दस कबीर” ।
“चिंता-मंत्री ही करते हैं चिंता । दरअसल अंदर से वो चिंता-मंत्री होता है लेकिन उसको कहते वित्त-मंत्री हैं । जैसे जो ऊपर से सेवक कहलाते हैं दरअसल वो अंदर से मालिक होते हैं । जैसे हम आप जनता कहलाते हैं लेकिन अंदर से प्रजा होते हैं ।“ सिक्का जी ने समझाया ।
“तो प्रजा को क्या करना है ? अभी करना है या मंदी छा जाए तब करना है ।“
“कुछ नया नहीं करना है जी । राजा की जैजैकार करते थे वही करते रहिए बस ।“
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शांतिवन में प्लास्टिक



शांतिवन में सब संतोषप्रद चल रहा हैं । लोग खुशहाल हैं, सबके पास रोजगार है, फेक्टरियों में भारी उत्पादन हो रहा है । बाज़ार में गज़ब की रौनक हैं । लोग सोना भी भाजीपाले की तरह खरीद रहे हैं । और भाजीपाले का तो पूछो मत, किसानों की उम्र लंबी हुई जा रही है । टेक्स ऐच्छिक होने के बावजूद भरपल्ले जमा हो रहा है । देश की सीमाओं से शहनाई की आवाज़े आती हैं । स्त्रियाँ सुरक्षित हैं, बलात्कार शब्द डिक्शनरी से हटा दिया गया है । खुले में बच्चा भी शौच करे तो उसे शालीनता से स्वर्ग पहुंचाया जाता है । जनता को शांतिवन सरकार से कोई शिकायत नहीं है । जिन्हें शिकायत होती भी है तो वे उसे कन्या-भ्रूण की तरह पैदा होते ही मार देते हैं । जिधर निकल जाते हैं हुजूर-हुजूर के नारे लगाने लगते हैं । शांतिवन से और क्या चाहिए हुजूर को !! .....  तभी दूध में मक्खी ! हुजूर ने देखा कि माहौल में प्लास्टिक की मार ज्यादा है । खुद उनकी पार्टी प्लास्टिक नेताओं से भरती जा रही है । चुनाव के समय डिस्पोसेबल कार्यकर्ताओं की भरमार रही । सोचा था यूज एण्ड थ्रो माटेरियल है कोई सिरदर्द नहीं रहेगा । लेकिन अब देखिए ! यहाँ वहाँ बिखरे शांतिवन का पर्यावरण खराब कर रहे हैं । प्लास्टिक के हृदय-सम्राटों से पार्टी के दिल पर लोड पड़ने लगा है । जाहिर है प्लास्टिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है । मन ही मन उन्होने तय किया कि प्लास्टिक को चलन से बाहर करना ही पड़ेगा ।
(देखिए भई, पहले चेतावनी जैसा कुछ सुन लीजिए । तकनीकी विकास ने दुनिया को इतना छोटा और एक-सा बना दिया है कि आप पीपलपुर की बात करो तो वह नीमनगर पर भी पूरी उतरती है । नाइजीरिया का आदमी भी लगता है जैसे पड़ौसी है अपना । हुजूरों को देखें तो सिर्फ नाम ही अलग होते हैं, मिजाज में सारे इतिहास के पन्नों में टंके राजे रजवाडों से कम नहीं हैं ।  बात कहीं से भी शुरू की जाए लगता है वहीं जा रही है जहां दिमागी परहेज किए एक भीड़ तैयार बैठी है । लब्बोलुआब यह कि कोई गलतफहमी अगर पैदा होती है तो ज़िम्मेदारी श्रीमान आपकी है । इधर जुलूस जो है खंबा बचा के चल रहा है ।)
हुजूर ने प्लास्टिक को लेकर बैठक आहूत की । बोले कि प्लास्टिक के कारण शांतिवन के पर्यावरण को बिगड़ने नहीं दिया जाएगा । पार्टी गीला-सूखा, बूढ़ा-जवान कचरा अलग अलग करने के प्रति गंभीर है । वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि सूखा कचरा यानि प्लास्टिक की उम्र बहुत लंबी होती है । वह कुछ नहीं करे, काम नहीं आए तो भी शांतिवन की धरती पर उसका बना रहना पर्यावरण के लिए ठीक नहीं है । नीचे के लेबल पर ज़्यादातर सिंगल यूज थैली या डिस्पोज़ेबल कप प्लेटें होती हैं । सुना है ये एक पार्टी से दूसरी पार्टी में रिसायकल हो जाती हैं ! प्लास्टिक जितना रिसायकल होता है उतना पर्यावरण को हानि पहुँचता है । जमीनी जुड़ाव की अब चिंता नहीं है । टीवी और रेडियो से हुजूर खुद सीधे वोटर तक अपनी पहुँच बना लेंगे । शराब भी बांटना पड़ी तो प्लास्टिक में नहीं कुल्हड़ में दी जाएगी । प्लास्टिक चाहे किसी भी रूप में हो अब प्रतिबंधित रहेगा ।
“सारे प्लास्टिक प्रतिबंधित मत कीजिए हुजूर ।“  पार्टी प्रवक्ता गोलू बतरा जी ने टोका । बोले- हमारी राजनीति प्लास्टिक पर ही चल रही है । टीवी पर पार्टी की ओर से प्लास्टिक बहसें, हुजूर के प्लास्टिक-वादे, शांतिवन कल्याण की प्लास्टिक योजनाएँ कैसे सुर्खियों में आएंगी, तमाम प्लास्टिक घोषणाओं और जुमलों के बिना हमारी तो मुश्किल हो जाएगी । युवाओं की ताजा फेसबुकिया-वाट्सएपिया पीढ़ी प्लास्टिक सपनों के सहारे खड़ी है । उनका क्या होगा ? इसके अलावा पूरा समाज अब प्लास्टिक सम्बन्धों में जी रहा है । धर्म, आस्था, विश्वास; घर, परिवार, पड़ौस, अपने पराए सब तो प्लास्टिक है !! और तो और हमारा वोटर भी तो प्लास्टिक है हुजूर, बरसों तक वापरेंगे ... सड़ेगा नहीं ।
हुजूर ने कहा - “प्लास्टिक पर्यावरण के लिए जरूरी है” ।
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शनिवार, 31 अगस्त 2019

हमारा बैंक, हमारे लोग



इन दिनों जबसे शून्य बेलेन्स वाले खातों की सुविधा हुई है बैंकों में ग्राहकों की आमद में तेजी से इजाफ़ा हुआ है । लेकिन उतनी ही तेजी से ग्राहकों के सम्मान में गिरावट भी दर्ज की जा रही है । किसी जमाने में पढ़ालिखा रसूखदार आदमी बैंक का ग्राहक होता था । बैंक वाले उसकी इज्जत वगैरह भी किया करते थे । इज्जत मतलब बैठने को कुर्सी, और वगैरह में पीने को पानी-चाय तक पूछ लिया करते थे । क्या दिन थे वो भी ! बैंक जाने वाला अपने को सेमी-वीआईपी समझता था । बावन इंची ग्राहक प्रायः छ्प्पन इंची हो कर निकलता था । लोग बैंकों को हमारी बैंक कहा करते थे । कुछ हमारी पर इतना ज़ोर देते थे कि बैंक न हुई पिताश्री की तिजोरी है । एक रिश्ता सा बन जाता था, इतना कि शादी ब्याह के अवसरों पर दूल्हे के साथ बैंक स्टाफ को भी जनवासा नसीब था । आज जमाना मशीनों का है । टाइलेट जितनी जगह में कुबेरचंद खड़े हैं उनके कान में कार्ड डालो और केशवान भव । पुराने सिस्टम से नगद निकालने या पासबुक में इंट्री करवाने जाओ तो स्टाफ की नई पीढ़ी ऐसे घूरती है कि लगता है जैसे बैंक नहीं किसी थाने में घुस आए हैं । वो तो अच्छा है कि जीरो बेलेन्स क्लास में बेइज्जती बर्दाश्त करने का पुश्तैनी धैर्य  होता है वरना एक फटकार में वो फट्ट से कटे पेड़ सा गिर जाता ।   
आज मुझे भी बैंक आना पड़ा है । वजह यह कि खाते को पेन और आधार से लिंक करवाना है । घर से चलते वक्त मन में एक तरह की खुशी थी कि अपने पुराने बैंककर्मी मिलेंगे, न भी मिलेंगे तो अपनी बैंक देखने को मिलेगी, बहुत दिन हो गए ।  इधर आ कर काउंटर पर खड़े दो तीन मिनिट हुए हैं । कुर्सी पर एक मैडम जी हैं जो फिलहाल मोबाइल पर शायद जीडीपी चेक कर रही हैं । अचानक उन्होने सिर उठाया और मोबाइल को कागज से छुपते हुए क्या बात है ! का भाटा मारा ।  मैंने सोचा कि बिना बात कोई क्यों नाराज होगा वो भी अपने सम्मानजनक ग्राहक से ! जरूर उन्हे गलतफहमी हुई है कि मैंने उनका मैसेज पढ़ लिया है । सो स्पष्ट करना जरूरी था, चश्मा दिखाते हुए कहा – मैंने मैसेज नहीं पढ़ा मैडम । इतनी दूर का मैं नहीं पढ़ सकता हूँ ।
“काम क्या है ये बोलो ।“  उन्होने आंखे अंतिम संभावना तक चौड़ी की । पहली नजर में वे लगभग डरावनी लगीं लेकिन दूसरी नजर में सुंदर । मैंने पहली नजर को शॉटअप कहा और दूसरी नजर को कैरिओन । कहा - “ जी , बैंक से मेसेज आया है कि पेन और आधार से खाता लिंक करवाइए । “
“ पासबुक लाये हो ?”
“ जी, ये रही ।“
“ इसमे फोटो नहीं है ! कैसे पता चलेगा कि खाता तुम्हारा है ?”
“ हस्ताक्षर देख लीजिये, आप हस्ताक्षर देख के चेक भी तो पास करती हैं ।“
“ऐसे नहीं चलेगा, घर की बैंक नहीं है । पासबुक में फोटो लगा कर सील लगवाओ । “
“हओ, फोटो लगा लूँगा अगली बार । आज ये पेन और आधार ......
“ ये पड़े हैं फार्म , उधर बैठ कर भरो ।“ मुझे सुनाई दिया उधर बैठ कर मरो । बावजूद इसके मुंह से निकला जी और फॉर्म के साथ किनारे हो लिए । तजुर्बे से कह सकता हूँ कि मैडम के पति कवि होंगे । पत्नी अगर क्रूर, क्रोधी और अंगार उगलने वाली हो तो कोई भी साहित्य में अपना करियर बना सकता है ।
फार्म भर कर दूसरे महोदय के पास गया, सोचा ये ले लें तो अच्छा हो मैडम से मधुर संवाद की सजा से बचेंगे । लेकिन उन्होने मना कर दिया । मजबूरन मैडम के पास जाना पड़ा ।
“ फार्म का क्या करूंगी मैं !! पेन और आधार की फोटोकोपी लगा के लाओ  । “
“ दोनों फोटो कॉपी लगी है । “ मैंने उन्हें दूसरी नजर से देखते हुए कहा ।
‘‘ ओरिजनल कहाँ हैं ! ओरिजनल बताओ  । “
“ ओरिजनल तो नहीं लाया हूँ ।  सब जगह फोटो कॉपी ही लगती है । मोबाइल पर इमेज दिखा दूँ क्या ?”
“ ओरिजनल के बिना नहीं होगा ।“ कह कर उन्होने फार्म लगभग फैक दिया । “
“ ठीक है कल ओरिजनल ले कर आता हूँ ...”
“कल नहीं परसों आना । “
“ठीक है परसों आ जाऊंगा …. कल बैंक बंद है क्या ?! “
 नहीं ..... परसों मैं छुट्टी पर हूँ । “
......