जूतों का
आविष्कार मूल रूप से पैरों में पहनने के लिए किया गया था । लेकिन जैसे जैसे सभ्यता
का विकास हुआ जूते उतारने की आदर्श परंपरा भी विकसित हुई । जूता उतरना जूता पहनने
की अपेक्षा कठिन और हिम्मत का काम है । सदियों से जो लोग जूता पहना रहे हैं उन्हें
समाज से जाति सूचक संबोधनों के अलावा कुछ नहीं मिला । लेकिन जो समय असमय उतारते
रहे हैं उन्हें हुजूर, मालिक, महाराज से लगा कर माईंबाप तक का रुतबा हासिल हुआ । जूतों के कारण वे
सरकार थे, सरकार रहे और सरकार हैं । जानने वालों का मानना है
कि जिनके हाथ में जूता होता है उनके पैरों के नीचे प्रायः कालीन होता है । ज़्यादातर
लोग इसे सिस्टम कहते हैं और कुछ रघुकुल रीत । जनता अगर अनुकूल हो तो कुर्सी पर जूते रख कर भी आसानी से राज
किया जा सकता है ।
कपड़ा
इस्तरी किया हुआ हो तभी शोभा देता है । सल तभी मिटाए जा सकते हैं जब इस्तरी गरम हो
। खानदानी जूतेदार बताते हैं कि
जूता-व्यवहार दो तरह का होता है । एक सूखा
दूसरा गीला । दोनों का उदेश्य एक ही होता है । जैसे नरम दल और गरम दल । दोनों
अंग्रेजों को देश से खदेड़ना चाहते थे । बड़े वाले यानी हुजूर, मालिक, महाराज टाइप के अन्नदाता नुमा दबंग लोग जूता
पहनते नहीं हैं, जूतों पर सवार रहते हैं । जूते जितना चलते
हैं उनका सिक्का उतना चलता है । मामूली आदमियों के लिए जरूरी होता है कि अपनी बात
कहते हुए वे नजरें उनके जूतों पर रखें क्योंकि जूतों की नजर उन पर रहती है । इसे
शिष्टाचार कहने से मन में ग्लानि का नहीं गर्व का भाव पैदा होता है । हुजूरों के
बुलावे पर जो जाते हैं वे अक्सर जूता-प्रसादी खा कर आते हैं और जो नहीं जाते हैं
बाद में भर पेट ‘खाते’ रहते हैं । हमारे
यहाँ लोग भले ही गरीब रहे हों पर कोई यह नहीं कह सकता है कि उसे कभी ‘खाने’ की कमी रही है । गरीब का सिर बार बार काम में
लिए जा सकने वाले प्लास्टिक की तरह होता है और कोई भी व्यवस्था इस पर प्रतिबंध
नहीं लगाना चाहती है । कई बार जूतों पर नाक रगड़ाने या जूता चटवाने के किस्से सुनने
को मिलते हैं । यह एक तरह की सुविधा है, जिसे फेसिलिटी भी
कहा जाता है । सोचिए बुरे वक्त में फंसे व्यक्ति की नाक क्रेडिट कार्ड की तरह काम
आ जाए तो इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है । गरीब आदमी की नाक पीओके की तरह
दबंगों के कब्जे में रहती है । कई बार मन होता है कि अपनी नाक हुजूर के कब्जे से
मुक्त कर लें लेकिन वे खाल उतरवा कर जूता बनवाने की मंशा व्यक्त कर देते हैं !
दबंगों की समानान्तर सत्ता को अभी किसी लौह पुरुष ने गंभीरता से नहीं लिया है ।
खुशफहम
सोचते थे कि देश आज़ाद हो गया तो सब बराबर हो जाएंगे । लेकिन किस्मत भी कोई चीज
होती है । ईश्वर ने कुछ लोगों को जूते दिए और कुछ को सिर । जब तक गरीबी नहीं मिटती
होंडा सिटी पर सवार जूते जमीन पर पैर नहीं रखेंगे । बीच में कहीं कानून भी होता है
लेकिन वह अपने लंबे हाथों से बिना झुके जूतों पर पड़ी धूल साफ करता रहता है । ...
जय हो ।
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