शुक्रवार, 1 नवंबर 2019

जूते हैं तो जय है


जूतों का आविष्कार मूल रूप से पैरों में पहनने के लिए किया गया था । लेकिन जैसे जैसे सभ्यता का विकास हुआ जूते उतारने की आदर्श परंपरा भी विकसित हुई । जूता उतरना जूता पहनने की अपेक्षा कठिन और हिम्मत का काम है । सदियों से जो लोग जूता पहना रहे हैं उन्हें समाज से जाति सूचक संबोधनों के अलावा कुछ नहीं मिला । लेकिन जो समय असमय उतारते रहे हैं उन्हें हुजूर, मालिक, महाराज से लगा कर माईंबाप तक का रुतबा हासिल हुआ । जूतों के कारण वे सरकार थे, सरकार रहे और सरकार हैं । जानने वालों का मानना है कि जिनके हाथ में जूता होता है उनके पैरों के नीचे प्रायः कालीन होता है । ज़्यादातर लोग इसे सिस्टम कहते हैं और कुछ रघुकुल रीत । जनता अगर अनुकूल  हो तो कुर्सी पर जूते रख कर भी आसानी से राज किया जा सकता है ।
कपड़ा इस्तरी किया हुआ हो तभी शोभा देता है । सल तभी मिटाए जा सकते हैं जब इस्तरी गरम हो । खानदानी जूतेदार  बताते हैं कि जूता-व्यवहार दो  तरह का होता है । एक सूखा दूसरा गीला । दोनों का उदेश्य एक ही होता है । जैसे नरम दल और गरम दल । दोनों अंग्रेजों को देश से खदेड़ना चाहते थे । बड़े वाले यानी हुजूर, मालिक, महाराज टाइप के अन्नदाता नुमा दबंग लोग जूता पहनते नहीं हैं, जूतों पर सवार रहते हैं । जूते जितना चलते हैं उनका सिक्का उतना चलता है । मामूली आदमियों के लिए जरूरी होता है कि अपनी बात कहते हुए वे नजरें उनके जूतों पर रखें क्योंकि जूतों की नजर उन पर रहती है । इसे शिष्टाचार कहने से मन में ग्लानि का नहीं गर्व का भाव पैदा होता है । हुजूरों के बुलावे पर जो जाते हैं वे अक्सर जूता-प्रसादी खा कर आते हैं और जो नहीं जाते हैं बाद में भर पेट खाते रहते हैं । हमारे यहाँ लोग भले ही गरीब रहे हों पर कोई यह नहीं कह सकता है कि उसे कभी खाने की कमी रही है । गरीब का सिर बार बार काम में लिए जा सकने वाले प्लास्टिक की तरह होता है और कोई भी व्यवस्था इस पर प्रतिबंध नहीं लगाना चाहती है । कई बार जूतों पर नाक रगड़ाने या जूता चटवाने के किस्से सुनने को मिलते हैं । यह एक तरह की सुविधा है, जिसे फेसिलिटी भी कहा जाता है । सोचिए बुरे वक्त में फंसे व्यक्ति की नाक क्रेडिट कार्ड की तरह काम आ जाए तो इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है । गरीब आदमी की नाक पीओके की तरह दबंगों के कब्जे में रहती है । कई बार मन होता है कि अपनी नाक हुजूर के कब्जे से मुक्त कर लें लेकिन वे खाल उतरवा कर जूता बनवाने की मंशा व्यक्त कर देते हैं ! दबंगों की समानान्तर सत्ता को अभी किसी लौह पुरुष ने गंभीरता से नहीं लिया है ।  
खुशफहम सोचते थे कि देश आज़ाद हो गया तो सब बराबर हो जाएंगे । लेकिन किस्मत भी कोई चीज होती है । ईश्वर ने कुछ लोगों को जूते दिए और कुछ को सिर । जब तक गरीबी नहीं मिटती होंडा सिटी पर सवार जूते जमीन पर पैर नहीं रखेंगे । बीच में कहीं कानून भी होता है लेकिन वह अपने लंबे हाथों से बिना झुके जूतों पर पड़ी धूल साफ करता रहता है । ... जय हो ।
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