शुक्रवार, 25 नवंबर 2022

लोकतंत्र में चीयर-गर्ल्स



देखो भिया आप लोग हो सीधे साधे, निष्पाप, निष्कलंक, शुद्ध साफ गऊ पब्लिक । जिसने जरा पुचकारा, पीठ पर हाथ फेरा कि उसी को दूध, गोबर, मूत्र ही नहीं खाल, मांस, अस्थि-मज्जा तक दे देते हो । यही कारण है कि गाय को माता और आप लोगों को जनार्दन का दर्जा मिला हुआ है । समय समय पर दोनों पूज्य हैं । नयी पीढ़ी रटती है कि ‘मवरा टाइम आएगा’ । लेकिन टाइम यानी समय का कुछ भी फिक्स नहीं है, नहीं आए तो नहीं आए, आना हो तो बिना कहे कभी भी आ सकता है । अच्छी बात है कि अपने यहाँ लोकतंत्र है, समय पांच साल में एक बार जरूर आता है । कहते हैं भक्तों में अगर शक्ति हो तो भगवान उनके सेवक तक हो जाते हैं । आप जनार्दन हो, समझो मौके पड़ जाये तो भगवान ही हो । फूल नहीं फूल की पंखुरी भी मिल जाये प्रेम से तो आप प्रसन्न हो जाते हो और तथास्तु कह देते हो । आपकी इसी खासियत के कारण तमाम दुनिया वाले दुआ करते हैं कि काश हमारे यहाँ भी ऐसी जनता जनार्दन हो जाये ।

यह भी सब जानते हैं कि कोई सच्चे मन से माफ़ी मांग ले तो प्रभु माफ़ भी कर देते हैं । आपमें भी यही माफ़ी वाली आदत है, जो हमारे वाले लोकतंत्र के लिए अच्छी है । आपके भरोसे अनपढ़, गुंडे-बदमाश, रेपची, घोटलची सब चौड़ी छाती किये जनसेवक हो जाते हैं । लोकतंत्र की यह खूबसूरती है कि आप मालिकों को सेवक समझते रहते रह सकते हैं । एक सफल मालिक वही होता है जो इस गलतफहमी को लम्बे समय तक बनाये रखता है । कुछ लोग इसे कला कहते हैं और कुछ राजनीति । कला हमारे यहाँ कई तरह की होती है । लोग जेब काटने को भी कला मानते हैं और झूठ बोलने को भी । जानकर मालिकों को सबसे बड़ा कलाकार कहते हैं । सदी के महानायक की कुर्सी अब खतरे में पड़ती जा रही है ।

संत कहते हैं जीवन दो तरह का होता है । एक वह जो आप शरीर से जिया जाता है और दूसरा वह जो व्यवस्था आपको जीने पर मजबूर करती है । पहले जीवन के लिए हम कमाते हैं, दूसरे जीवन के लिए गवांते  हैं । कमाने और गवांने के बीच जो बच जाता है उसे भाग्य कहते हैं । सब मानते हैं कि भाग्य भगवान भरोसे होता है । इसलिए अच्छी व्यवस्था वही होती है जो भगवान को सेट रखे और पूजास्थलों के निर्माण को प्राथमिकता दे । लोग आत्मनिर्भर बनें, पूजापाठ करते रहें और डायरेक्ट ऊपर वाले भगवान से मांगते रहें । उन्हें मिल जाये तो उनका भाग्य नहीं मिले तो कोई क्या कर सकता है ! यह विश्वास बना रहे बस,  नीचे वाले भगवान को और क्या चाहिए । जीवन-मरण, लाभ-हानि, जस-अपजस सब ईश्वर के हाथ होता है । इतना अगर समझा दिया जाये तो अस्पताल, उद्योग, स्कूल वगैरह बेकार चीजें हो जाती हैं । सारा खेल समझ का है ।  जो लोग समझते थे कि महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी वगैरह रहीं तो जीना मुश्किल हो जायेगा वही लोग अगर इनके साथ ख़ुशी खशी जीने को तैयार हैं तो समझिये खेल बढ़िया और खिलाड़ी भी जोरदार । लेकिन हम पब्लिक हैं, चीयर-गर्ल नहीं हैं ।  

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मंगलवार, 8 नवंबर 2022

ईमानदारी से खतरा


 



           जैसे जैसे मानव सभ्यता का विकास हुआ उसने नयी नयी बीमारियाँ खोज लीं । कोशिश करके बहुत सी बिमारियों का इलाज भी ढूंढ लिया । लेकिन केंसर और ईमानदारी ऐसे रोग हैं जिनका ठीक ठीक इलाज आज तक नहीं मिल पाया है । जानकर बताते हैं कि इन दोनों बिमारियों के चलते अनेक परिवार बर्बाद हुए हैं । जो लोग विकास की मुख्यधारा से चिपके हुए हैं वे ही जानते हैं कि ईमानदारी से सिस्टम को कितना जानलेवा खतरा है । अच्छी बात यह है कि दोनों बीमारियाँ छूत की नहीं हैं । थैंक गॉड ! वरना अब तक पूरा देश ईमानदारी की चपेट में आ गया होता ।

            केंसर के बारे में हर कोई जनता है और दूसरों को सुझाने के लिए सबके पास रामबाण नुस्खे भी हैं, लोग कहते हैं कि नुस्खेबाजी भी एक बीमारी है । लेकिन ईमानदारी के बारे में ज्ञान बहुत अल्प है । वाट्सएप विश्वविध्यालय में भी ईमानदारी को लेकर चर्चा नहीं होती है ।  लोकतंत्र में जनमत महत्वपूर्ण हैं । जनता कभी ईमानदार आदमी को वोट नहीं देती । अकसर उसकी जमानत जब्त होती है । व्यावहारिक जीवन में ईमानदारी के रोगी से लोग अक्सर दूरी बना कर रखते हैं । वह एक गैर-जिम्मेदार, गैर-दुनियादर, भीरू और कायर आदमी मान लिया जाता है । वह हर समय ईश्वर से डरता है । यह भी मानता है कि ईश्वर सब देख रहा है, लेकिन यह भी विश्वास करता है कि जो भी होता है सब ईश्वर की मर्जी से होता है । जब वह मर कर ऊपर ईश्वर के सामने जायेगा तो सबसे पहले यही देखा जायेगा कि आदमी ईमानदार था या नहीं । बस इसी डर के कारण वह ईमानदारी के साथ ‘बिन फेरे हम तेरे’ हो लेता है । शिष्टाचार की बात करें तो ईमानदारी का रोगी किसी की चाय भी पीना पसंद नहीं करता चाहे दिसंबर जनवरी की कड़कड़ाती ठण्ड ही क्यों नहीं पड़ रही हो । भूल से कभी उसके सामने गाँधी छपे नोट आ जाये तो वह उन्हें भी रद्दी कागज के टुकडे मानता है । सर्दियों के दिनों में जब ज्यादातर दफ्तरी मुट्ठी या जेबें गरम कर रहे होते हैं वह ईमानदारी और धूप के भरोसे दिन काटता है । ऐसे आदमी का प्रमोशन नहीं होता है । सिस्टम मानता है कि यह ऊपर आया तो सबको जबरन संक्रमित करेगा । सिस्टम को ऐसे आदमी पसंद हैं जिनके दर्जन भर मुंह हों, एक से वह कहे कि न खाऊंगा न खाने दूंगा और बाकि से खाता रहे । जैसे ही मौका मिलता है कार्यालय इस संक्रमित को लूप लाईन में डालने के लिए जी जान लगा देता है । अब यहाँ उसे लम्बे समय तक कोरनटाइन रहना है । बीच बीच में साथी आते रहते हैं और तसल्ली देते हुए उसकी हिम्मत बढाते रहते हैं । कई बार सही डोज मिलने पर मरीज रोग मुक्त भी हो जाया करते हैं ।

           एक श्यामराव लोखंडे थे, वे लम्बे समय तक बीमार रहे । दरअसल ईमानदारी की बीमारी उनके लिए पैत्रक थी । लोग बताते है उनके पिता क्रोनिक ईमानदार थे । लेकिन भाग्य से उन्हें अच्छे और कर्मठ दफ्तरी मिले । धीरे धीरे उनमें इतना सुधार हुआ कि वे दफ्तर में चांदीकर के नाम से जाने गए और जब सेवानिवृत हुए तो श्यामराव सोनार थे । दफ्तर में आज भी उनकी मिसाल दी जाती है । आदमी दृढ़ निश्चय और हौसले से संघर्ष करे तो बीमारी कितनी भी जटिल क्यों न हो उससे मुक्त हो सकता है ।

 

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