मंगलवार, 8 नवंबर 2022

ईमानदारी से खतरा


 



           जैसे जैसे मानव सभ्यता का विकास हुआ उसने नयी नयी बीमारियाँ खोज लीं । कोशिश करके बहुत सी बिमारियों का इलाज भी ढूंढ लिया । लेकिन केंसर और ईमानदारी ऐसे रोग हैं जिनका ठीक ठीक इलाज आज तक नहीं मिल पाया है । जानकर बताते हैं कि इन दोनों बिमारियों के चलते अनेक परिवार बर्बाद हुए हैं । जो लोग विकास की मुख्यधारा से चिपके हुए हैं वे ही जानते हैं कि ईमानदारी से सिस्टम को कितना जानलेवा खतरा है । अच्छी बात यह है कि दोनों बीमारियाँ छूत की नहीं हैं । थैंक गॉड ! वरना अब तक पूरा देश ईमानदारी की चपेट में आ गया होता ।

            केंसर के बारे में हर कोई जनता है और दूसरों को सुझाने के लिए सबके पास रामबाण नुस्खे भी हैं, लोग कहते हैं कि नुस्खेबाजी भी एक बीमारी है । लेकिन ईमानदारी के बारे में ज्ञान बहुत अल्प है । वाट्सएप विश्वविध्यालय में भी ईमानदारी को लेकर चर्चा नहीं होती है ।  लोकतंत्र में जनमत महत्वपूर्ण हैं । जनता कभी ईमानदार आदमी को वोट नहीं देती । अकसर उसकी जमानत जब्त होती है । व्यावहारिक जीवन में ईमानदारी के रोगी से लोग अक्सर दूरी बना कर रखते हैं । वह एक गैर-जिम्मेदार, गैर-दुनियादर, भीरू और कायर आदमी मान लिया जाता है । वह हर समय ईश्वर से डरता है । यह भी मानता है कि ईश्वर सब देख रहा है, लेकिन यह भी विश्वास करता है कि जो भी होता है सब ईश्वर की मर्जी से होता है । जब वह मर कर ऊपर ईश्वर के सामने जायेगा तो सबसे पहले यही देखा जायेगा कि आदमी ईमानदार था या नहीं । बस इसी डर के कारण वह ईमानदारी के साथ ‘बिन फेरे हम तेरे’ हो लेता है । शिष्टाचार की बात करें तो ईमानदारी का रोगी किसी की चाय भी पीना पसंद नहीं करता चाहे दिसंबर जनवरी की कड़कड़ाती ठण्ड ही क्यों नहीं पड़ रही हो । भूल से कभी उसके सामने गाँधी छपे नोट आ जाये तो वह उन्हें भी रद्दी कागज के टुकडे मानता है । सर्दियों के दिनों में जब ज्यादातर दफ्तरी मुट्ठी या जेबें गरम कर रहे होते हैं वह ईमानदारी और धूप के भरोसे दिन काटता है । ऐसे आदमी का प्रमोशन नहीं होता है । सिस्टम मानता है कि यह ऊपर आया तो सबको जबरन संक्रमित करेगा । सिस्टम को ऐसे आदमी पसंद हैं जिनके दर्जन भर मुंह हों, एक से वह कहे कि न खाऊंगा न खाने दूंगा और बाकि से खाता रहे । जैसे ही मौका मिलता है कार्यालय इस संक्रमित को लूप लाईन में डालने के लिए जी जान लगा देता है । अब यहाँ उसे लम्बे समय तक कोरनटाइन रहना है । बीच बीच में साथी आते रहते हैं और तसल्ली देते हुए उसकी हिम्मत बढाते रहते हैं । कई बार सही डोज मिलने पर मरीज रोग मुक्त भी हो जाया करते हैं ।

           एक श्यामराव लोखंडे थे, वे लम्बे समय तक बीमार रहे । दरअसल ईमानदारी की बीमारी उनके लिए पैत्रक थी । लोग बताते है उनके पिता क्रोनिक ईमानदार थे । लेकिन भाग्य से उन्हें अच्छे और कर्मठ दफ्तरी मिले । धीरे धीरे उनमें इतना सुधार हुआ कि वे दफ्तर में चांदीकर के नाम से जाने गए और जब सेवानिवृत हुए तो श्यामराव सोनार थे । दफ्तर में आज भी उनकी मिसाल दी जाती है । आदमी दृढ़ निश्चय और हौसले से संघर्ष करे तो बीमारी कितनी भी जटिल क्यों न हो उससे मुक्त हो सकता है ।

 

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