जैसे जैसे मानव सभ्यता का विकास हुआ
उसने नयी नयी बीमारियाँ खोज लीं । कोशिश करके बहुत सी बिमारियों का इलाज भी ढूंढ
लिया । लेकिन केंसर और ईमानदारी ऐसे रोग हैं जिनका ठीक ठीक इलाज आज तक नहीं मिल
पाया है । जानकर बताते हैं कि इन दोनों बिमारियों के चलते अनेक परिवार बर्बाद हुए
हैं । जो लोग विकास की मुख्यधारा से चिपके हुए हैं वे ही जानते हैं कि ईमानदारी से
सिस्टम को कितना जानलेवा खतरा है । अच्छी बात यह है कि दोनों बीमारियाँ छूत की नहीं
हैं । थैंक गॉड ! वरना अब तक पूरा देश ईमानदारी की चपेट में आ गया होता ।
केंसर के बारे में हर कोई जनता है और
दूसरों को सुझाने के लिए सबके पास रामबाण नुस्खे भी हैं, लोग कहते हैं कि नुस्खेबाजी
भी एक बीमारी है । लेकिन ईमानदारी के बारे में ज्ञान बहुत अल्प है । वाट्सएप
विश्वविध्यालय में भी ईमानदारी को लेकर चर्चा नहीं होती है । लोकतंत्र में जनमत महत्वपूर्ण हैं । जनता कभी
ईमानदार आदमी को वोट नहीं देती । अकसर उसकी जमानत जब्त होती है । व्यावहारिक जीवन
में ईमानदारी के रोगी से लोग अक्सर दूरी बना कर रखते हैं । वह एक गैर-जिम्मेदार, गैर-दुनियादर,
भीरू और कायर आदमी मान लिया जाता है । वह हर समय ईश्वर से डरता है । यह भी मानता
है कि ईश्वर सब देख रहा है, लेकिन यह भी विश्वास करता है कि जो भी होता है सब
ईश्वर की मर्जी से होता है । जब वह मर कर ऊपर ईश्वर के सामने जायेगा तो सबसे पहले
यही देखा जायेगा कि आदमी ईमानदार था या नहीं । बस इसी डर के कारण वह ईमानदारी के
साथ ‘बिन फेरे हम तेरे’ हो लेता है । शिष्टाचार की बात करें तो ईमानदारी का रोगी
किसी की चाय भी पीना पसंद नहीं करता चाहे दिसंबर जनवरी की कड़कड़ाती ठण्ड ही क्यों
नहीं पड़ रही हो । भूल से कभी उसके सामने गाँधी छपे नोट आ जाये तो वह उन्हें भी रद्दी
कागज के टुकडे मानता है । सर्दियों के दिनों में जब ज्यादातर दफ्तरी मुट्ठी या
जेबें गरम कर रहे होते हैं वह ईमानदारी और धूप के भरोसे दिन काटता है । ऐसे आदमी
का प्रमोशन नहीं होता है । सिस्टम मानता है कि यह ऊपर आया तो सबको जबरन संक्रमित
करेगा । सिस्टम को ऐसे आदमी पसंद हैं जिनके दर्जन भर मुंह हों, एक से वह कहे कि न
खाऊंगा न खाने दूंगा और बाकि से खाता रहे । जैसे ही मौका मिलता है कार्यालय इस
संक्रमित को लूप लाईन में डालने के लिए जी जान लगा देता है । अब यहाँ उसे लम्बे
समय तक कोरनटाइन रहना है । बीच बीच में साथी आते रहते हैं और तसल्ली देते हुए उसकी
हिम्मत बढाते रहते हैं । कई बार सही डोज मिलने पर मरीज रोग मुक्त भी हो जाया करते
हैं ।
एक श्यामराव लोखंडे थे, वे लम्बे
समय तक बीमार रहे । दरअसल ईमानदारी की बीमारी उनके लिए पैत्रक थी । लोग बताते है
उनके पिता क्रोनिक ईमानदार थे । लेकिन भाग्य से उन्हें अच्छे और कर्मठ दफ्तरी मिले
। धीरे धीरे उनमें इतना सुधार हुआ कि वे दफ्तर में चांदीकर के नाम से जाने गए और जब
सेवानिवृत हुए तो श्यामराव सोनार थे । दफ्तर में आज भी उनकी मिसाल दी जाती है ।
आदमी दृढ़ निश्चय और हौसले से संघर्ष करे तो बीमारी कितनी भी जटिल क्यों न हो उससे
मुक्त हो सकता है ।
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