शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

तुस्सी ग्रेट हो पाप्पे




किसी जमाने में हरित क्रांति हुआ करती थी, हर खेत हरा था । अब समय दाढ़ी-क्रांति का है और खेत में खड़े बिजुके तक भी दाढ़ी में नजर आ रहे हैं । लगता है नौजवानों के लिए कोई आदेश सा  निकला हुआ है कि जो असहमत हैं वे भी रखें । नौजवान प्रायः असहमती पर ही सहमत होते हैं इसलिए हर कोई रख रहा है । माँ बाप पसंद नहीं कर रहे हैं सो उनकी मुखालफत के लिए रख रहे हैं । जो चुसे आम एंग्री यंग मेन दिखना चाह रहे वे रख रहे हैं । जो बेरोजगार हैं, बहुत निराश हैं, बावजूद इसके कुछ नया  महसूस करना चाहते हैं वे रखे हुए हैं  । जिन्हें कहीं भी कोई ग्रोथ नहीं दिखाई दे रही है, लेकिन दिल को बहलाने के लिए कुछ बढ़ता हुआ  देखना चाहते हैं वे भी रख रहे हैं । जिन्हें किसी भी कारण से चेहरा छुपाना है उनके लिए तो  दाढ़ी बहुत जरूरी है । मीडिया तक चेहरा पढ़ना चाहे तो दाढ़ी में उलझ कर रह जाता है । जिन्होंने कई भ्रम पाल रखे हों, वे अगर अपने को बड़ा साहित्यकार, महान योद्धा, या इतिहास पुरुष होने का एक भ्रम और पालना चाहें वे भी रख रहे हैं ।  कहते हैं दर्द का हद से बढ़ जाना दवा बन जाता है । जिन्हें तिनकों का डर सताता हो उनके लिए बहुत जरूरी है तीनकों के गुच्छ सी घनी लंबी दाढ़ी । जो असंत होते हुए भी संत, संसारी होते हुए भी बैरागी और काव्य बैरी होते हुए भी कवि दिखना चाहते हों उनके लिए दाढ़ी आसान उपाय है । आज रहीम होते तो कहते – रहिमन दाढ़ी राखिए, बिन दाढ़ी सब सून ; दाढ़ी गए न ऊबरे, नेता, अफसर, प्यून राजनीति में चिकने चेहरों का युग कलयुग की तरह बिदाई की ओर है । अब जो जितना दाढ़ीवान और  नागा होगा, सत्ता के शाहीस्नान का अवसर प्राथमिकता से उसी को मिलेगा ।

दाढ़ी भय मिश्रित ज्ञान का प्रतीक है । जिनको बोध हो जाता है कि सत्ता और संसार मिथ्या है, कोई भाई-बहन नहीं, वोट और सबंध एक भ्रम है । यहाँ मंत्री पद और सरकार सहित कुछ भी स्थाई नहीं है । दोनों वक्त रसायन वसंतकुसमाकर लेने के बावजूद कोई अमर नहीं है, कभी भी हे राम हो सकता है । ढाई सौ बरस जीने वाला कछुए को भी एक दिन  मरना पड़ता है । ऐसी विरक्ति में एक आदमी को क्या चाहिए सिवा दाढ़ी के । आया है सो जाएगा, राजा, रंक, फकीर । तीनों दाढ़ी रखते हैं और झोला उठा कर चल देने की मंशा व्यक्त करते हैं । दाढ़ी का एकांत से गहरा रिश्ता है । पहाड़ों, गुफाओं, कन्दराओं में लोग यों ही नहीं पहुँच जाते हैं । दीन दुनिया से अलग कहीं बैठ कर एकांत में सहलाते रहिए तिनकों को, तसल्ली मिलेगी । आपको लगेगा कि आप अलग हैं और शरीर अलग । आप शरीर से निकल कर आत्मा भी हो सकते हैं, हो जाते हैं । टू इन वन, जैसे आईने के सामने खड़े हों । आत्मा का साथ सबसे अच्छा होता है, वह चाय तक नहीं पीती है । आत्मा सवाल जवाब जरूर करती है लेकिन कभी भी करण थापर नहीं बनती है । आत्मा किसी बात के लिए तैयार न हो तो देख कौन रहा है ! मार दीजिए, मर जाएगी और कहीं जिक्र भी नहीं होगा ।  बहुत से समझदार तो आत्मा को मार कर ही राजनीति में प्रवेश करते हैं । कहते हैं कि ब्रेक निकाल कर गाड़ी चलाने का मजा ही कुछ और है । पालनहार ने पेट दिया है तो खाना भी दे ही देगा ही, जिस भी रास्ते से दे ज़िम्मेदारी उसकी है ।

लेकिन कुछ क्षण ऐसे भी आते हैं जब कहीं कुछ दिखाई नहीं देता है, निराशा चरम पर होने लगती है तब दाढ़ी उम्मीद की किरण बन कर काम आती है । अतिथि आने वाले थे, सोचा था आएंगे और चले जाएंगे जैसी कि परंपरा है । अगर नहीं माने तो दो पटकनी लगा देंगे । कितने ही आए और चले गए, इतिहास में दर्ज है । लेकिन ये जनाब टिक गए और यहाँ की जमीन में पनपने लगे । ताली-थाली बजवाई, दिया-बाती किया तो गलतफहमी में आ गए कि अतिथि-देव का सम्मान हो रहा है । पहले उथले उथले से थे अब घरू हो गए । मजबूरी में तय करना पड़ा कि अतिथि जी के साथ ही रहने की आदत बनानी होगी । किसी ने सुझाया कि अतिथि को दाढ़ी पसंद नहीं है । जहां से आया है वहाँ ज़्यादातर लोग चिकने हैं, दाढ़ी नहीं रखते हैं । दाढ़ी उसे बर्दाश्त नहीं है, अतिथि के लिए दाढ़ी वेक्सीन है । सारे दाढ़ी रखो, आत्मनिर्भर बनो । पहले आह भरते थे तो हो जाते थे बदनाम ; अब कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता !! डबल्यूएचओ को भी एक दिन कहना पड़ेगा कि तुस्सी ग्रेट हो पाप्पे ।


गुरुवार, 24 सितंबर 2020

कुलीन कुत्ता

 







     कुत्ता एक विचार की तरह बहुत समय से कवि के साथ बना हुआ था । किसी जमाने में, यानि युवावस्था में जब उनका झुकाव वामपंथ की ओर था तब   उन्हें भौंकते हुए कुत्ते अच्छे लगते थे । लेकिन अब जब जिंदगी प्लेटफॉर्म पर खड़ी ट्रेन लग रही है उनका रोम रोम दक्षिण दक्षिण लहक रहा है । बाहर जो जो बदल सकते थे बदल चुके हैं । लेकिन भीतर भौंक रहा विचार कमबख्त अपनी टेढ़ी दुम के साथ अभी भी गाहे बगाहे मुश्किल पैदा कर देता है ।

“विचार एकदम से नहीं बदलते चाहे बाहर बहुत कुछ बादल जाए ।“ फ़ेमिली डाक्टर बोले । “आप ऐसा कीजिए भीतर के कुत्ते को बाहर के कुत्ते से रिपलेस कीजिए ।  बाहर का कुत्ता बाहर से बिना दुम का होता है लेकिन भीतर  से खूब दुम हिलाता है ... हो सकता है सफलता मिल जाए ।“

कवि ने बारह हजार में एक दुमहीन कुलीन पिल्ला खरीदा । कुलीन महंगे बिकते हैं यह वे जानते थे । कोशिश करते तो इस कीमत में तीन इंसानी बच्चे मिल जाते ।  जैसे जैसे समाज में सभ्यता का विकास हो रहा है वैसे वैसे मनोकामना-पूर्ति प्रभु के दर्शन मात्र से हो रही है । बिन ब्याही लड़कियों के ओवन-फ्रेश बच्चे ऑफ लाइन मार्केट में मिल रहे हैं । रहा कुलीनता का सवाल तो वह वहीं बची दिख रही है जहाँ धन है शायद । इंसानी कुलीनता तो ड्राइंग रूम में रखा मोर पंख रह गई है । कोई पंख ले कर उसका मोर ढूँढने निकलेगा तो ढूंढते ही रह जाएगा । मोर ज़ेड सिक्यूरिटी में कहाँ शिलाजीत के बिखरे दाने चुग रहा है पता ही नहीं चलेगा । बहरहाल, कुत्ता कवि की गोद में किलोल कर रहा है और बार  बार उनका मुंह चाटने की कोशिश भी । कुत्ते को अपनी कीमत का पता है । हर कुलीन संसार के बारे में कुछ जाने न जाने पर अपनी कीमत के बारे में जरूर जानता है । इस समय वह यानि कुत्ता कवि को मुंह चाटना सीखा रहा है । कुत्ता मंहगा हो और आपने खुद खरीदा हो तो उसके साथ मुंह-मिलन में कोई जान नहीं पता कि कौन किसका चाट रहा है  । महंगा होने के बावजूद वह अदृश्य दुम हिला सकता है तो खरीदने वाले को भी ईगो प्रोब्लेम नहीं होना चाहिए । आखिर उसे भी तो पैसा वसूल करने का अधिकार है ।

कवि की संगत से कुत्ते में संस्कार पैदा हो गए । महीना भर में कुत्ता कविता सुनने लगा । कवि को कदरदान मिला तो अंदर से चौड़ी छाती से हुमक कर जब तब आवाज आने लगी कि अब दुनिया जाए भाड़ में । कवि के साथ श्रोता ! वो भी दुम हिलाता हुआ !! किसके नसीब में होता है । कवि को पद्मश्री दिलाने के लिए एक ही कुत्ता काफी है । बारह हजार में और क्या लोगे !!

अचानक पड़ौसी हीरा भागचंदनी आ गए और कुत्ते को देखते ही बोले - माल अच्छा है, नाम क्या रखा है कुत्ते का ?’

अभी तक कुत्ते का नामकरण नहीं हुआ था, कवि ने पूछा – क्या रखें  ?

“जिनपिग रख दो । ... धंधा चौपट हो गया है सांई । ऐसा वाइरस छोड़ा है कमीने ने कि सारी दुनिया ऑक्सीज़न मांग रही है ।“

कवि ने विचार किया, बोले – जिन रख देते हैं ।  पिग तो ठीक नहीं लगेगा, बारह हजार दिए हैं नगद । कुत्ते कि इज्जत का सवाल है । भागचंदानी को इज्जत कि बात ठीक नहीं लगी तो कुत्ते पर टेढ़ी नजर डालते हुए बोले – इज्जत की बात थी तो देखभाल कर लाते । इसका तो मुंह काला है !

“मुंह पर मत जाइए । कलर देखिए, कितना सुनहरा पीला है !! दूर से सोने का कुत्ता लगता है, जैसे माता सीता को हिरण लगा था सोने का । 

“वो तो ठीक है सांई, पर आदमी तो मुंह देखता है ना , मुंह काला तो सब काला । देसी पिग कहीं का । “

“कैसे पड़ौसी हो जी तुम ! बुराई किए जा रहे हो ! काले मुंह का बड़ा फायदा है । कल को तुम कह नहीं सकोगे कि तुम्हारा कुत्ता मुंह काला करके आया है !”

“इसकी तो दुम भी गायब है ! कुत्ता दुम नहीं हिलाए तो किस बात का कुत्ता !! बारह हजार किस बात के दे दिए आपने !!”

“ देखो भगचंदनी, ये बड़े से बड़े शतीर ब्लेक मार्केटियर को देख कर पहचान सकता है और पुलिस को फोन भी लगा सकता है  मोबाइल से ।“

“ अरे बाबा ! ये पुलिस को फोन कैसे लगा सकता है ! हमको बेवकूफ मत नाओ । “

“कुलीन है ना, इसके सारे रिश्तेदार पुलिस में हैं । एक बार ये फोन पर भौंक भर दे तो पुलिस फाड़ खाए । “

“अरे बाप रे ! कुत्ता है कि वाइरस है बाबा !” कहते हुए हीरा भागचंदानी भाग लिए ।

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