मंगलवार, 30 जनवरी 2024

आ जाये कोई शायद, दरवाजा खुला रखना.


 


          राजनीति करने वाले आजकल खेला करने लगे हैं । खेल भावना के अनेक आयाम होते हैं । जिसे खेलना आता है वो कहीं भी मैदान मार लेता है । इधर कुछेक साल से मंजे हुए खिलाड़ियों का दौर चल रहा है  । मंजे हुए को शुरू शुरू में लोग लोटा समझते हैं लेकिन बाद में वह कलश हो जाता है । खिलाड़ी इतना मंजा होता है कि हाकी खेलता दिखाई देता है लेकिन स्कोर कार्ड में रन दर्ज होते हैं । वह अपने नीबू और सिरके से पहले दूध को फाड़ता है फिर फटा दूध ले आता है । दूसरे के घर का फटा दूध उसके घर आ कर पनीर का दर्जा पा जाता है । गाय दिखा कर बकरे मार लेने का ये खेल शतरंज से भी ऊपर का है । बकरे मारना उसके लिए गोलगप्पे खाने जैसा है । राजनीति के तबेले में चिंता व्याप्त है । ‘बकरे की माँ’ कब तक खैर मनाएगी !

              राजनीति करने वालों को विरासत में तमाम छोटी बड़ी दीवारें मिलीं । इसलिए राजनीति दीवारों का खेल भी है । संविधान से तय तो यह था कि दीवारें गिराई जाएँगी । लेकिन उन्होंने दीवारें गिराने का काम नहीं किया । दरवाजों में उन्हें राजनीतिक सम्भावना अधिक दिखी । इसलिए दरवाजे बनाने का काम हाथ में लिया गया । दरवाजों में खोलने और बंद करने की सुविधा थी जो राजनीति के लिए बहुत जरुरी है । नगर नगर गाँव गाँव में दरवाजों की सफल राजनीति होने लगी । घोषणा-पत्र में छोटे बड़े नए नए दरवाजों का वादा किया गया । दरवाजे हवा में नहीं बन सकते थे । सो दरवाजों के लिए नयी नयी दीवारों की जरुरत पड़ी । लोग दरवाजों की उम्मीद में रहे और दीवारें खड़ी  होती गयीं । धीरे धीरे समय आया कि दीवारें पहली जरुरत समझी जाने लगीं । जहाँ दीवारें नहीं थी वहां भी लोग बनाने लगे । दरवाजे हैं तो विकास है, दरवाजे हैं तो लोक कल्याण है, दरवाजे हैं तो सुरक्षा और सुविधा है । कुछ लोग इसे इनडोर गेम / आउटडोर गेम के रूप में भी देखते हैं । लोग अपनी अपनी दीवारों में कैद हो कर गर्व महसूस करने लगें तो इसे उच्चकोटि की राजनीतिक सफलता कहा गया । दरवाजों ने उन्हें अवसर दिया कि मज़बूरी या जरुरत के हिसाब से कुण्डी खोल लेंगे, बंद कर लेंगे । समुद्र में दीवारें नहीं होतीं हैं, पता नहीं बड़ी मछलियाँ राजनीति कैसे कर पाती होंगी । कैसे उनका कारोबार चलता होगा । उनके बच्चों का क्या हाल होता होगा ।

              अभी की बात है मज़बूरी में कुछ लोगों को समझ में आया कि संगठन में शक्ति है । लेकिन सारे घटकों की  दीवारें बुलंद हैं और दरवाजे छोटे । सबको पता हैं कि थोड़ी थोड़ी दीवार गिराना पड़ेगी । हालाँकि सबने दरवाजे खोले, लेकिन थोड़े थोड़े । एक दूसरे को देखा, मुस्कराये, ‘दिल भी तेरा, हम भी तेरे’ कहा । लेकिन दीवारें गिराने पर कोई सहमत नहीं हुआ । सबने अपनी अपनी दीवारों पर गठबंधन के इश्तहार अवश्य चिपका लिए पर दरवाजा पूरा नहीं खोला । ‘पहले आप पहले आप’ में भरोसे की भैंस पाड़ा दे कर चली गयी । इधर एक बड़ी दीवार के पीछ जोर जोर से डीजे बजता रहता है – “कुण्डी न खड़काओ राजा, सीधे अन्दर आ जाओ राजा” ।  दरवाजे के पीछे से निमंत्रण मिले तो कौन संत कौन साधु !! कान में ‘राजा’ शब्द पड़ता है शहनाई बजने लगती है , मन डोले तन डोले ! प्रेम में जब सरहदे नाकाम हो जाती हैं तो फिर दीवारों का क्या है । तुमने पुकारा और हम चले आये रे, जान हथेली पे ले आये रे ।  मानने वाले ने मान लिया कि छोटी दीवारों से निकल कर बड़ी दीवार में कैद हो जाना राजनितिक विकास है । और वो चला गया ! उसे लगता है कि बिल्ली जिस छेद से अन्दर आती है उसी छेद से बाहर भी निकल सकती है । मलाई खा कर निकल आयेगी किसी दिन ।

इधर डीजे पर अब भूपेंद्र और मिताली की गजल बज रही है –

                    राहों पे नजर रखना, होठों पे दुआ रखना ;

                    आ जाये कोई शायद, दरवाजा खुला रखना.

 

------

 


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें