“इधर
मंदी का सुन रहे हैं जी । कहते हैं कि आ रही है, आपने भी सुना होगा” ? चिंतित सिक्का जी बोले ।
“मंदी
!! .... कहाँ से आ रही है ?” अफलातून चौंके ।
“कहाँ
से !! ... ये तो नहीं पता । जहाँ होगी वहीं से आ रही होगी । जैसे लड़कियां आती हैं
मायके ।“ सिक्का ने मजाक किया ।
अफलातून
अपने रौ में थे,- “लड़कियां तो ससुराल से आती हैं ... बल्कि भाई
लेने जाते हैं तब आती हैं । ... मंदी को लेने कौन गया ?”
“मैं
नहीं गया भियाजी, मंदी मेरी बहन नहीं
है ।“
“फिर
देखो यार, किसकी बहन है । मंदी का आधार कार्ड तो होगा ही ।“
“आप
गलत समझ रहे हो । मंदी का आधार कार्ड नहीं बनता है !!”
“तो
पासपोर्ट बनता होगा ? पता तो चले किधर से
आ रही है ।”
“किसी
के घर नहीं आती है, बाज़ार में आती है
मंदी ।“
“बाज़ार
में ! ... अकेली आती है क्या ?! आजकल बाज़ार में
पैर रखने की जगह नहीं होती है ! सोने तक की दुकान पर भीड़ इतनी होती है कि लगता है
फ्री में बंट रहा है ।“
“ऐसा
नहीं है , जानकार बताते हैं कि जब मंदी आने वाली होती है तब सोने की बिक्री बढ़ जाती
है ।“
“तो
यों कहिए ना कि मंदी बहू है नवेली । परंपरा है अपने यहाँ, शादी ब्याह के मौसम में सोने की खरीदी बढ़ जाती है । चार साल पहले हमारे
यहाँ बड़ी वाली आई थी तब दो लाख का सोना खरीदा था हमने और पिछले साल छोटी मंदी के
टाइम तीन लाख का । लेकिन मंदी किसी की भी हो ईज्जत होती है घर की । उसे अकेले
दुकेले बाज़ार में नहीं आना चाहिए । पूरा शहर हृदय सम्राट गुंडों से भरा पड़ा है ।“
“अरे
अफलातून जी आप कहाँ से कहाँ निकल जाते हैं ! ...आपने अर्थशास्त्र पढ़ा है क्या ?”
“अर्थशास्त्र
नहीं दूसरे कई शास्त्र पढ़े हैं । क्यों क्या बात है !?”
“इसीलिए
आपको समझ में नहीं आ रहा है । जिन्होंने अर्थशास्त्र पढ़ा है मंदी का मामला उनके
लिए है ।“
“ये
तो गलत बात है ! लोकतंत्र में मंदी सबके लिए होना चाहिए । गरीब क्या सिर्फ वोट
देने के लिए होता है !! ‘माखन माखन संतों ने
खाया, छाछ जगत बपराई’, अब ये नहीं
चलेगा ।“ वे बोले ।
“मंदी
माखन नहीं है भाई । .... कैसे बताएं आपको .... मंदी जो है आती है और छा जाती है बस
.... जैसे बादल आते हैं और छा जाते हैं । जब वो ठीक से छा जाती है तो सरकार को चिंता
करना पड़ती है ।“
“पूरी
सरकार चिंता करती है या उनका कोई चिंता-मंत्री होता है ?”
“सब
करते हैं ... पूरी सरकार करती है रात दिन ।“
“चिंता
से चतुराई घटे, दुख से घटे शरीर ; पाप से लक्ष्मी घटे, कह गए दस कबीर” ।
“चिंता-मंत्री
ही करते हैं चिंता । दरअसल अंदर से वो चिंता-मंत्री होता है लेकिन उसको कहते वित्त-मंत्री
हैं । जैसे जो ऊपर से सेवक कहलाते हैं दरअसल वो अंदर से मालिक होते हैं । जैसे हम
आप जनता कहलाते हैं लेकिन अंदर से प्रजा होते हैं ।“ सिक्का जी ने समझाया ।
“तो
प्रजा को क्या करना है ? अभी करना है या
मंदी छा जाए तब करना है ।“
“कुछ
नया नहीं करना है जी । राजा की जैजैकार करते थे वही करते रहिए बस ।“
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