गुरुवार, 26 सितंबर 2019

मंदी पर अफलातून



“इधर मंदी का सुन रहे हैं जी । कहते हैं कि आ रही है, आपने भी सुना होगा” ? चिंतित सिक्का जी बोले ।
“मंदी !! .... कहाँ से आ रही है ?” अफलातून चौंके ।
“कहाँ से !! ... ये तो नहीं पता । जहाँ होगी वहीं से आ रही होगी । जैसे लड़कियां आती हैं मायके ।“ सिक्का ने मजाक किया ।
अफलातून अपने रौ में थे,-  “लड़कियां तो ससुराल से आती हैं ... बल्कि भाई लेने जाते हैं तब आती हैं । ... मंदी को लेने कौन गया ?”
“मैं नहीं गया भियाजी, मंदी मेरी बहन नहीं है ।“
“फिर देखो यार, किसकी बहन है । मंदी का आधार कार्ड तो होगा ही ।“
“आप गलत समझ रहे हो । मंदी का आधार कार्ड नहीं बनता है !!”
“तो पासपोर्ट बनता होगा ? पता तो चले किधर से आ रही है ।
“किसी के घर नहीं आती है, बाज़ार में आती है मंदी ।“
“बाज़ार में ! ... अकेली आती है क्या ?! आजकल बाज़ार में पैर रखने की जगह नहीं होती है ! सोने तक की दुकान पर भीड़ इतनी होती है कि लगता है फ्री में बंट रहा है ।“
“ऐसा नहीं है , जानकार बताते हैं कि जब मंदी आने वाली होती है तब सोने की बिक्री बढ़ जाती है ।“
“तो यों कहिए ना कि मंदी बहू है नवेली । परंपरा है अपने यहाँ, शादी ब्याह के मौसम में सोने की खरीदी बढ़ जाती है । चार साल पहले हमारे यहाँ बड़ी वाली आई थी तब दो लाख का सोना खरीदा था हमने और पिछले साल छोटी मंदी के टाइम तीन लाख का । लेकिन मंदी किसी की भी हो ईज्जत होती है घर की । उसे अकेले दुकेले बाज़ार में नहीं आना चाहिए । पूरा शहर हृदय सम्राट गुंडों से भरा पड़ा है ।“
“अरे अफलातून जी आप कहाँ से कहाँ निकल जाते हैं ! ...आपने अर्थशास्त्र पढ़ा है क्या ?”
“अर्थशास्त्र नहीं दूसरे कई शास्त्र पढ़े हैं । क्यों क्या बात है !?”
“इसीलिए आपको समझ में नहीं आ रहा है । जिन्होंने अर्थशास्त्र पढ़ा है मंदी का मामला उनके लिए है ।“
“ये तो गलत बात है ! लोकतंत्र में मंदी सबके लिए होना चाहिए । गरीब क्या सिर्फ वोट देने के लिए होता है !! माखन माखन संतों ने खाया, छाछ जगत बपराई’, अब ये नहीं चलेगा ।“ वे बोले ।
“मंदी माखन नहीं है भाई । .... कैसे बताएं आपको .... मंदी जो है आती है और छा जाती है बस .... जैसे बादल आते हैं और छा जाते हैं । जब वो ठीक से छा जाती है तो सरकार को चिंता करना पड़ती है ।“
“पूरी सरकार चिंता करती है या उनका कोई चिंता-मंत्री होता है ?”
“सब करते हैं ... पूरी सरकार करती है रात दिन ।“
“चिंता से चतुराई घटे, दुख से घटे शरीर ; पाप से लक्ष्मी घटे, कह गए दस कबीर” ।
“चिंता-मंत्री ही करते हैं चिंता । दरअसल अंदर से वो चिंता-मंत्री होता है लेकिन उसको कहते वित्त-मंत्री हैं । जैसे जो ऊपर से सेवक कहलाते हैं दरअसल वो अंदर से मालिक होते हैं । जैसे हम आप जनता कहलाते हैं लेकिन अंदर से प्रजा होते हैं ।“ सिक्का जी ने समझाया ।
“तो प्रजा को क्या करना है ? अभी करना है या मंदी छा जाए तब करना है ।“
“कुछ नया नहीं करना है जी । राजा की जैजैकार करते थे वही करते रहिए बस ।“
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