मंगलवार, 1 जुलाई 2014

घोड़ा , घास और दोस्ती

                    वोट मांगते समय जो घासफूस जैसे जन का 'प्रतिनिधि’ होता है वो चुनाव जीतने के बाद बड़े आराम से व्यवस्था का प्रतिनिधि हो जाता है। मतपेटियां सत्ता देती हैं, सत्ता का पहला स्नान उसे शासक बना देती है। शासक के पास विकल्प नहीं होते हैं, जैसे गाड़ी में जोते गए घोड़े पास नहीं होते हैं। देखा जाए तो गाड़ी के पास भी विकल्प नहीं होता है, उसे भी हमेशा एक घोड़े की ही जरूरत होती है। घोड़ा अंततः घोड़ा होता है, वह घास से दोस्ती नहीं करता है, गाड़ी से कर लेता है। गाड़ी में नगरसेठ बैठता है, शहरकोतवाल बैठता है, महल-पुरोहित और साथ में कहीं नगरवधु भी बैठती है। घोड़े का सीना घोषित नाप से दो इंच और चौड़ा हो जाता है, जैसा कि तीसरी कसम वाले हीरामन का हुआ था जब उसे पता चला कि उसकी गाड़ी में नौटंकी वाली बाईजी बैठीं हैं। घोड़े को लगता है कि गाड़ी उसी की है, गाड़ी वाले मानते हैं कि घोड़ा उनका है। सवार अनुभवी होते हैं, वे घोड़े से ज्यादा लगाम पर हाथ फेरते हैं। लगाम लंबी होती है, नापो तो स्विस बैंक तक जाती है। घोड़ा गाड़ी से परे मात्र घोड़ा है, लेकिन गाड़ी से जुड़ कर वह शाही सवारी हो जाता है। सड़क पर जब निकलते हैं तो सिपाही डंडा फटकारता है कि लोग-लुगाई एक तरफ, हिन्दू-मुसलिम-ईसाई एक तरफ.... घोड़ागाड़ी से दूर, शाही सवारी में हुजूर। 
             जनता के साथ पार्टी के कार्यकर्ता भी अपने को ठगा सा महसूस करते हैं। कबीर जनता को कह गए हैं कि आप ठगाइये और न ठगिये कोय, और ठगे दुःख उपजे आप ठगाए सुख होय। देश  की राजनीति कबीर की आभारी है, सूझ पड़ गई तो अगली बार सरकार भारतरत्न दे देगी। ठगाई जनता सुखी है यह तय है, फ्रेश  होने के लिए थोड़ा रो-धो लेती है ये बात अलग है। हुजूर जानते हैं कि सवा सौ करोड़ जनता मन में कुछ नहीं रखती, बकबका कर हल्का हो लेना उसकी आदर्श  परंपरा है। मीडिया इस काम में उनकी मदद करके सरकार को मजबूत बनाता है। 
                इसके अलावा मेनेजमेंट के तहत जनता का तनाव कम करने के लिए तमाम योगगुरू भी मैदान में छोड़ दिए गए हैं। जिनको तकलीफ है वे सुबह उठते ही अनुलोम-विलोम में लग जाएं तो मंहगाई का असर कम महसूस होता है। ताजी हवा में मुंह या नाक से लंबी लंबी सांस लो और कहीं से भी लंबी लंबी सांस छोड़ो तो चित्त को बहुत लाभ होता है। ठीक इसी वक्त पेट अच्छे से साफ हो जाए तो मान लीजिए कि अच्छा दिन भी आ गया है। स्पष्ट है कि अच्छे दिन चाहिए तो सबको कुछ न कुछ करना पड़ेगा। यह बात भूल जाइये कि कुछ करने के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है। जनता भली है, किसी को दोष  नहीं देती है सिवा अपने पापी पेट के। बहुत हुआ तो भाग्य के नाम पर अपना सिर पीट लेगी। उसके बाद ‘जाही बिधि राखै राम ताही बिधि रहिए’ कहते हुए अगली ठगाई के लिए उपलब्ध हो जाएगी। 
                गांधीजी बोल के गए हैं कि कोई एक गाल पे थप्पड़ मारे तो तुरंत दूसरा गाल आगे कर दो। हुजूर इस बात को समझते हैं और ‘कोई’ की भूमिका निबाहने में विश्वास  करते हुए पहले थप्पड़ में रेल किराया बढ़ा दिया है। वे निश्चिन्त  हैं क्योंकि देश  में ढ़ाई सौ करोड़ गाल हैं। पांच साल खत्म हो जाएंगे लेकिन गाल बाकी रहेंगे। 
                इधर सिनेमा की एक सुन्दरी ने भी सूत्र-संदेश  दिया है कि ‘थप्पड़ से डर नहीं लगता साहब, प्यार से लगता है’। हुजूर को भी प्यार करने की आदत नहीं है। जब भी लगाएंगे थप्पड़ ही लगाएंगे। लोकतंत्र में जनता थप्पड़ खाने के लिए पैदा होती है, जैसे बकरे अंततः हांडी में पकने के लिए होते हैं। जनता के पास बकरे की अम्मा की तरह कोई अम्मा भी नहीं होती है जो खैैर मना ले।  जनता के नसीब में दो पार्टियां हैं, एक पीटे तो दूसरी अम्मा का नाटक कर देती है और दूसरी पीटे तो पहली। अच्छे दिन अभी अंगूर हैं, तके जाओ। गालिब याद आ रहे हैं, - ‘‘ हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन, दिल के बहलाने को गालिब खयाल अच्छा है’’ । 
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