अभी बजट आया और देखिए आप सरकार की कलाई खुल गई। पूरे पलटूराम सिद्ध हुए, अपनी जुबान की लाज भी नहीं रखी। जब इन्होंने कहा था कि कडवी दवा देंगे तो देना थी। भारी कर लगाना थे, मंहगाई और बढ़ाते, गरीब का जीना मुहाल करते तो हमारी जान में जान आती। आखिर हमारा भी कुछ हक बनता है। बिना सत्ता के जीना समझो बिना सांस के जीना है। संख्या इतनी कम हो गई है कि ‘बाबा’ अलीबाबा हो गए लगते हैं। सारे के सारे जब संसद में प्रवेश करते हैं तो मन ही मन ‘खुल जा सिम सिम’ बोलने लगते हैं। लेकिन फायदा कुछ नहीं होता, अंदर जाते ही नींद आने लगती है। मुसीबत ये कि घर में करवटें बदलते रहो पर झपकी भी नहीं लगती। रात रात भर जाग कर अंग्रेजी फिल्में देखो या फिर वीडियो गेम खेलो .... लेकिन कोई बताए कि कब तक !! कुंभकरण नसीब वाला था, लंबी तान के सो तो लेता था। इधर तो कबीर याद आ रहे हैं- ‘‘सुखिया सब संसार, खावै और सोवै/दुखिया दास कबीर, जागै और रोवै।
सरकार ढ़ोल पीटती है कि वो सवा सौ करोड़ लोगों के दुःख तकलीफ के लिए जिम्मेदार है। तो भइया, विपक्ष सवा सौ करोड़ से बाहर है क्या !? हमारे दुःख तकलीफ के लिए कोई मीठी दवा नहीं है तुम्हारे पास ? थोड़ी तो नजरें इनायत इधर भी करो। कम से कम मान्यता प्राप्त विपक्ष ही बना दो। भागे हुए भूत की लंगोटी लेने के लिए यहां वहां गुहार लगाना पड़ रही है। रही सही कसर एफएम रेडियो वाले पूरी कर देते हैं, बार बार यही गाना बजा रहे हैं - ‘‘रहते थे कभी जिनके दिल में हम जान से भी प्यारों की तरह, बैठे हैं उन्हीं के कूचे में हम आज गुनहगारों की तरह।’’
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