शनिवार, 12 जुलाई 2014

खुल जा सिम सिम

             
          देखो जी, बात को जरा बारीकी से समझना पड़ेगा, आज की डेट में विपक्ष का काम है कि अच्छे दिनों को आने से रोके। सरकार अच्छे दिन लाने पर आमादा हो रही है। उसकी नियत साफ नहीं है। ये लोग चाहते हैं कि हम भी साठ साल राज करेंगे। हम ये अन्याय कैसे होने दे सकते हैं ! कसम है हमें, हमारा बस चले तो उन्हें साठ हप्ते भी राज नहीं करने दें। आप देखिए, हमें विपक्ष में बैठने की न आदत है और न ही अनुभव। इसीलिए नींद आ जाती है, नींद तो नींद, सपने भी आते हैं। सपने में कोई कुंवारी दिखे तो भी ठीक, पर मुई कुर्सी दिखती रहती है। कुर्सी पकड़ने बढ़ो तो आंख खुल जाती है और कुर्सी पर वो दिखते हैं जिनसे कुर्सी की लड़ाई में कइयों की बुरी गत हो गई। बुरे दिन आए तो ऐसे घुमड़ घुमड़ के आए कि अपनी पार्टी के पूर्व प्रवक्ताओं ने ही कह दिया कि ‘बाबा’ में प्रधानमंत्री मटीरियल नहीं है। जो किसी समय ‘बाबा’ के पाजामें पर प्रेस किया करते थे आज उनका कुर्ता फाड़ने से गुरेज नहीं कर रहे हैं ! ऐसा जता रहे हैं कि वे हाइकमान की गुलामी से मुक्त हुए और उनके अच्छे दिन आ गए। इनका क्या है भई, मौका मिलते ही इस पार्टी से कूद कर उस पार्टी में चले जाएंगे। बाराती इधर उधर हो सकते हैं लेकिन दूल्हे को तो नाक की सीध में ही चलना होता है।
                       अभी बजट आया और देखिए आप सरकार की कलाई खुल गई। पूरे पलटूराम सिद्ध हुए, अपनी जुबान की लाज भी नहीं रखी। जब इन्होंने कहा था कि कडवी दवा देंगे तो देना थी। भारी कर लगाना थे, मंहगाई और बढ़ाते, गरीब का जीना मुहाल करते तो हमारी जान में जान आती। आखिर हमारा भी कुछ हक बनता है। बिना सत्ता  के जीना समझो बिना सांस के जीना है। संख्या इतनी कम हो गई है कि ‘बाबा’ अलीबाबा हो गए लगते हैं। सारे के सारे जब संसद में प्रवेश करते हैं तो मन ही मन ‘खुल जा सिम सिम’ बोलने लगते हैं। लेकिन फायदा कुछ नहीं होता, अंदर जाते ही नींद आने लगती है। मुसीबत ये कि घर में करवटें बदलते रहो पर झपकी भी नहीं लगती। रात रात भर जाग कर अंग्रेजी फिल्में देखो या फिर वीडियो गेम खेलो  .... लेकिन कोई बताए कि कब तक !! कुंभकरण नसीब वाला था, लंबी तान के सो तो लेता था। इधर तो कबीर याद आ रहे हैं- ‘‘सुखिया सब संसार, खावै और सोवै/दुखिया दास कबीर, जागै और रोवै। 
                     सरकार ढ़ोल पीटती है कि वो सवा सौ करोड़ लोगों के दुःख तकलीफ के लिए जिम्मेदार है। तो भइया, विपक्ष सवा सौ करोड़ से बाहर है क्या !? हमारे दुःख तकलीफ के लिए कोई मीठी दवा नहीं है तुम्हारे पास ? थोड़ी तो नजरें इनायत इधर भी करो। कम से कम मान्यता प्राप्त विपक्ष ही बना दो। भागे हुए भूत की लंगोटी लेने के लिए यहां वहां गुहार लगाना पड़ रही है। रही सही कसर एफएम रेडियो वाले पूरी कर देते हैं, बार बार यही गाना बजा रहे हैं - ‘‘रहते थे कभी जिनके दिल में हम जान से भी प्यारों की तरह, बैठे हैं उन्हीं के कूचे में हम आज गुनहगारों की तरह।’’

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