गुरुवार, 6 नवंबर 2014

एक क्विंटल के बाउजी

सब उन्हें बाऊजी कहते हैं, वैसे उनकी दिली इच्छा तो बापजी कहलाने की रही है, पर क्या करें लोकतंत्र है। इसके कारण जब तब खींसें निपोरना पड़ती है, जिन्हें जूतों से हड़काया था कभी उनके हाथ तक जोड़ने की आदत डालना पड़ी है। हुजूर, सरकार, मांईबाप सुनने की चाह थी लेकिन कान में पड़ता है पिलपिला बाऊजीमन करता है कि थप्पड़ लगा कर मुर्गा बना दें अगले को। लोकतंत्र गले की हड्डी हो गया ससुरा, बड़े बड़े अनारकली हो के रह गए, मरण की मुश्किल  में जिए जा रहे हैं या जीने की कोशिश में मरे जा रहे हैं। शुरू शुरू में दिक्कत बहुत हुई, लेकिन बाद में उन्होंने मन मार के बाऊजी से काम चलाना सीख लिया। दिल को समझा लिया कि बाऊजी भी बाप ही होता है रे,  कान इधर से पकड़ो या उधर से, एक ही बात है।
                 आप सोच रहे होंगे कि उन्हें बाप बनने की ऐसी क्या पड़ी है, वो भी सबके !! तो जिस तरह भइया "जन-धन योजना" सरकार की प्रतिष्ठा है उसी तरह "बाप-बन योजना" उनकी निजी प्रतिष्ठा है। ये बात अपने दिमाग की हार्डडिस्क में अच्छे से 'सेव' कर लो कि बाप से संबोधित होना उनका एक खानदानी व्यसन है। पुराना समय होता तो इस मामले में कोई प्रश्नवाचक सिर झुका के भी प्रवेश नहीं कर सकता था उनके दरबार में। अब व्यसन है तो है, खानदानी हैं इसलिए जरूरी है कि दस-बीस व्यसन भी हों। व्यसन आन-बान-शान होते हैं खानदानी लोगों के। आम लोगों को तो परंपरा-रवायतों वगैरह का ज्ञान होता है नहीं,  सड़क किनारे कोई पड़ा दिखा नहीं कि पट्ट से बोल दिया एवड़ा-बेवड़ा कुछ भी। अगर लोकतंत्र नहीं होता तो आपको अपने आप समझ में आ जाता कि बापजी पड़े हैं। पड़े क्या हैं अपनी राज्य-भूमि को प्यार कर रहे हैं कायदे से। वो दिन होते तो झुक के सात सलाम और पांच पा-लागी अलग से करते लोग। लेकिन अब क्या है, अदब कायदों का तो अकाल ही पड़ गया। बासी, सल पड़ा काना आलू सा बाऊजी मिल जाए तो बहुत है।
                        बाऊजी जब राजनीति में आए थे तब काफी जवान थे। बल्कि ये कहना ठीक होगा कि जवानी के बल पर ही राजनीति में आए थे। उनके दिमाग में बात साफ थी कि राजनीति वो न जनता के लिए करते हैं और न ही देश के लिए। वे जो करते हैं खुद के लिए करते हैं। राजपाठ के दिन भले ही लद गए हों पर कोशिश करने वालों को सफलता मिलती है। आज भी राजा होने के लिए प्रजा चाहिए परंतु ये लोकतंत्र कमबख्त है और जनता ढीठ। प्रजा बनाओ तो बनती नहीं है। वे बार बार लोकतंत्र को प्रजातंत्र कहते हैं लेकिन जनता को कुछ समझ में नहीं आता, बहुत हुआ तो नारा ठोंक देती है कि "जब तक सूरज-चांद रहेगा, बाऊजी का नाम रहेगा"। वे दुःखी हो जाते हैं, मन तो होता है कि छोड़ दें ऐसी राजनीति जो श्रीमंत को बाऊजी बना देती है लेकिन कोई जमीन हो तो नाव से उतरें भी।
                       खैर, बात में से बात निकलती जा रही है और असली बात छूट रही है। जनता भी पक्की राजनीतिबाज है उसने नेताओं को तौलने का फैशन चला रख़ा है। किसी जमाने में चांदी से तौला करते थे लेकिन मंहगाई है तो आलू-प्याज और टमाटर से तौल देते हैं। ये भी मंहगे हुए तो कर्णधार केलों से तुलने लगे, बाद में घर जाने के भाव में कद्दू, फूल गोभी, तरबूज वगैरह का नंबर लगा। हर तुलाई के बाद फोटू छपती, खबर बनती है। बाऊजी का भी मन होता था कि काश कोई उन्हें भी तौल दे। साठ किलो के शरीर से उन्होंने राजनीति शुरू की थी, तौलने के हिसाब से वजन ठीक था। उस वक्त पट्ठे नहीं थे, होते तो चांदी से तुल जाते। अब सौ किलो के हो गए हैं और तरबूज-खरबूज से तुलने का मन नहीं हो रहा है। चाहते हैं कि चांदी ना सही, तुलें तो कम से कम अनाज से तुलें। पट्ठों ने अनाज मंडी में जा कर खबर की कि बाऊजी अनाज से तुलना चाहते हैं, तौलो।
                 ^^ सोयाबीन का सीजन चल रिया हे, धंधा करें कि फ़ोकट की तौला-तौली करें भिया !! छोटे-बड़े बांट-वांट भी नीं हैं, इलेक्ट्रानिक मसीन से काम होता हे यां-पे। बिजली कभी आती हे कभी जाती हे। पेले इ प्रेसन हेंगे, केसे करेंगे, आप लोग ही सोचो।" मंडी अध्यक्ष ने समस्या बताई।
               ^^ बाऊजी पूरे सौ किलो के हैं। ना सौ ग्राम ज्यादा ना सौ ग्राम कम। सोयाबीन की भरती के बरोबर। बोलो अब क्या दिक्कत है " -
               ^^ क्या सचमुच पूरे सो किलो हेंगे "
               ^^ पूरे सौ किलो । "
               अध्यक्ष ने हम्माल को दौड़ा कर मदनसेठ को बुलवाया। वे भागे आए,- ^^ अरे मदन सेठ, तोल की व्योवस्था हो गई क्या तुमारी "
              ^^ अब्बी कां ।"
              फौरन से पेश्तर बाऊजी को लेकर आए पट्ठे। बाऊजी बड़े से तराजू के एक तरफ बैठे हैं और दूसरे पलड़े पर सोयाबीन की बोरियां एक एक कर रखी-उतारी जा रही हैं। तालियां बज रहीं हैं और हार डाले जा रहे हैंबताया जा रहा है कि बाऊजी तुल रहे हैं। बाऊजी भी मान रहे हैं कि वे ही तुल रहे हैं। किसान खुश है कि उसकी सोयाबीन तुल रही है। व्यापारी खुश  है कि बाऊजी को दो किलो फूलमाला पहना कर उन्हें क्विंटल पीछे दो किलो सोयाबीन ज्यादा मिल रही है। 
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