गुरुवार, 6 नवंबर 2014

नवंबर के भरोसे पूरा साल

                       
जिन्दा रहना मेरा निजी जोखिम है, बावजूद इसके नवंबर का महीना मेरे, जीवित होने, का महीना होता है। एक बार मैं नवंबर में जिन्दा घोषित हो जाउं तो आगे के ग्यारह महीनों की गैरंटी हो जाती है। यानी मैं अगर नवंबर में जीवित बरामद होता हूं तो ही वास्तव में जीवित हूं, वरना मरा हुआ हूं, चाहे नहीं भी मरा हूं। साफ है कि जो नवंबर चूक गए वो गए काम से। अगर कोई बंदा अक्टूबर में जाउं-जाउं कर रहा हो तो, उसके वालेकोशिश करते हैं कि कम से  कम नवंबर तो निकाल ले। नवंबर में मैं यह लेख लिख रहा हूं तो संपादकजी मान लेंगे कि जिन्दा हूं लेकिन मेरा विभाग नहीं मानेगा। विभाग कागजों पर चलता है, मेरे जिन्दा होने की घोषणा मेरे होने से ज्यादा जरूरी है। अगर कोई किसी तरह घोषणा करने में सफल हो जाए तो मरा हुआ आदमी भी जिन्दा हो सकता है। संसार मिथ्या है, काया नश्वर है, इसलिए कागजों पर जिन्दा होना जरूरी है। जब मैं घोषणा करता हूं तो मुझे भी लगता है कि मैं वाकई जिन्दा हूं। वरना ऐसे लाखों हैं जो जिन्दा हैं, लेकिन उन्हें कोई मानता नहीं,उनसे जिन्दा आदमी सा व्यवहार नहीं करता। बारह महीनों में से किसी भी महीने में उनसे कोई नहीं कहता कि घोषणा करो कि तुम जिन्दा हो । धीरे धीरे वे खुद ही भूलने लगते हैं कि वे जिन्दा हैं, अन्य लोग तो पहले ही भूल चुकते हैं। देखा जाए तो इस व्यवस्था में बड़ा सुकून है, आज के समय में जब कोई किसी को पूछता नहीं है कि भइया जी रहे हो या मर रहे हो। ऐसे में विभाग पूछ रहा है कि जिन्दा हो, तो कितना अपनापन लगता है।
अपने यहां तो मरे को भी तब तक मरा नहीं मानते हैं जब तक कि डाक्टर उसे मृत घोषित न कर दे। सोचिए अगर डाक्टर हड़ताल कर दें या ठान लें कि हम किसी को मृत घोषित नहीं करेंगे तो लोगों का मरना कितना                           मुश्किल  हो जाएगा। लेकिन इधर ऐसा नहीं है। अगर कोई अपने जिन्दा रहने की घोषणा खुद नहीं करेगा तो पहली दिसंबर को अपने आप मरा मान लिया जाएगा। पेंशन खाते में उसका अंतिम संस्कार हो जाएगा और शोकपत्र के साथ शेष रकम नामांकित को दे कर हाथ जोड़ दिए जाएंगे। वह चीखता रहे कि मैं जिन्दा हूं, उधर से जवाब आएगा कि बाउजी ये दिसंबर है। दिसंबर में जिन्दगी के पट बंद हो जाते हैं। जो नवंबर में मस्त थे वे दिसंबर में अस्त माने जाएंगे।

अस्सी वर्षीय दर्शन बाबू सरकार को भजते थकते नहीं हैं। नवंबर के इंतजार में कब और कैसे बाकी ग्यारह महीने जी लेते हैं उन्हें खुद पता नहीं चलता है। नवंबर नहीं हो तो उनकी सांसें ही थम जाएं। सेहत उनकी बढ़िया है, नवंबर की गुलाबी ठंड में वे अपना शादी का सूट स्तरी करवाते हैं, जूतों पर पालश इतनी कि लगता है जूते दिखा कर पेंशन लाने वाले हों। बगल में पहले सेंट होता था अब डीओ। कान के उपर के बालों को छोड़ शेष रह गए कुछ बालों पर खिजाब और मूंछों पर तेल लगा कर तैयार होते हैं। हाथ में एक बैग है जिस में जरूरी कागजों के अलावा हनुमानचालीसा भी है। वे बाकायदा अगले ग्यारह महीनों की जिन्दगी लेने जा रहे होते हैं। जब लौटेंगे तो उनके मुंह में पान होगा जिसके रस को वे अपने कोट के साथ शेयर कर रहे होंगे। लेकिन कोई उन्हें कुछ नहीं कहेगा। नवंबर का महीना घर में दूध देती गाय के आने का महीना है। 

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