शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

साहित्य का शेयर बाज़ार

                         
    एक लंबी चुप्पी के बाद वे बोले - ‘‘देखो भाई, ...... साहित्य का संसार एक अलग किस्म का यानी सुपर मायावी संसार होता है। यहां पाना तो पाना है ही खोना भी पाने से कम नहीं है। जब ‘लिया’ जाता है तब बहुत कुछ ‘प्राप्त’ होता है और जब उसे लौटाने की घोषणा की जाती है तब भी बहुत कुछ प्राप्त होता है। जैसे शेयर मार्केट में एक चतुर व्यापारी मुनाफे में शेयर खरीदता है और जब उसे बेचता है तब भी मुनाफा प्राप्त करता है। साहित्य में इस प्रवृत्ति को कला कहते है। कलाजगत में चतुराई शब्द बोलना वर्जित है। यहां जो होता है वो नहीं होता, और जो नहीं होता है वो होता है, और जो भी गरिमाहीन होता है वो गरिमा के साथ होता है। इसे समझने में अपनी ऊर्जा बरबाद करने से अच्छा यही है कि जो हो रहा है उसे आंख बंद करके देखो, बिना दिमाग लगाए उस पर चर्चा-बहस करो, जरूरत पड़े तो लठालठी कर पड़ो। महौल ऐसा बने कि ‘हम लेखक भी कुछ हैं’। ’’ बाज़ार 
                          बात दरअसल यह है कि इधर अखबारों ने लिखा कि वे अपना समेटा हुआ लौटा रहे हैं। अब चूंकि घोषणा है तो हर कोई मान रहा है कि वे सचमुच लौटा रहे हैं। अखबार में उनकी हाथ उठाई तस्वीर देख कर माहौल बना कि मानो लौटा ही दिया है। कुछ लोग चिंतित होते हैं कि ‘अरे उन्होंने लौटा दिया, अब जाने क्या होगा !!’ वे समझ नहीं पाते कि जिसे प्राप्त करने में कितने गुणा-भाग किए गएं, उसे इतनी आसानी से कैसे लौटा दिया बिना हिसाब-किताब के !! लेकिन कहा ना, यहां जो होता है वो नहीे होता और जो नहीं होता वो होता है। कुछ मजबूर उनके पीछे पीछे चल पड़ते हैं और वे भी अपने शेयर वापस निकाल देने की घोषणा कर देना पड़ती हैं। मुनाफा किसे बुरा लगता है। 
                            घर में पत्नी और बच्चे कहते हैं कि शेयर यहां रखे थे तो कितना भरा भरा लगता था। निकाल दिए तो कितना खाली खाली लग रहा है। कलाकार उन्हें समझाता है कि शेयर रखे रखे दूध तो नहीं दे रहे थे। मुनाफा बड़ी चीज है, ऐसी चीजें मौकों-झोंकों पर ही काम आती हैं। जब प्राप्त किया था तब इतनी हलचल नहीं हुई थी। मीडिया में देखो कितनी चर्चा है हमारी, अखबार काले हुए जा रहे हैं हमारे कारनामे से, साहित्य का संसार कुरुक्षेत्र हो रहा है। अनेक कलमवीर खेत रहे हैं। कोई धृतराष्ट्र किसी संजय से सारे हाल सुन रहा है। वरना हम पर तो खासोआम का ध्यान ही नहीं था। यहां तक कि मार्निंग वाक पर जाओ तो दो-ढाई नमस्ते के लिए भी तरस जाते थे। अब देखो, सुबह से शाम तक फोन बज रहा है, तुनक तुन तुन। साहित्यकार सब कुछ कीर्ति के लिए ही करता है। कीर्ति विहीन जीवन की कल्पना से ही उसके प्राण सूखने लगते हैं। सोचो जब कभी उसके बारे में लिखा जाएगा तो पाने से ज्यादा महानता खोने की बखानी जाएगी। वैसे भी सम्मान समाज का कर्ज होता है। यदि उस कर्ज को उतार पाना संभव नहीं हो रहा हो तो लौटा देना अच्छा है। रहा सवाल उस खाली दीख रही जगह का, तो थोड़ी प्रतीक्षा करो। हमें सम्मान सृजित करना भी आता है। एक लौटा रहे हैं तो चार ले कर आएंगे। सर सलामत हो तो शाल-श्रीफल की दुकानें कम नहीं हैं। 

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