मरना तो सबको पड़ता है । आया है सो जाएगा, राजा रंक फकीर । तो अस्पताल चलें
हम । अस्पताल में आदमी कायदे से मारता है। अस्पताल के पास सुपर स्पेशलिटी होती है।
वे अपना काम जानते हैं और करने में दक्ष होते हैं। घरों में लोगों को नहीं मालूम
होता हैं कि कब क्या करना चाहिए। मरीज की सांस उखड़ने लगती है तो दौड़कर बुआ जी को
फोन करते हैं कि जल्दी आ जाओ बाबूजी की सांस उखड़ रही है। जो भी होना है बुआजी के
सामने हो तो अच्छा होता है वरना बाद में केस बिगड़ सकता है। अस्पताल में ऐसा नहीं
है। जब किसी की सांस उखड़ने लगती है तो वह डिपॉजिट की रकम बढ़ा कर जमा करवा लेते
हैं। इससे जमा बॉडी के जिन्दा रहने की उम्मीद बढ़ जाती है। लोगों को लगता है कि
इतना रुपया जमा करवा रहे हैं तो अच्छा इलाज करेंगे। मरीज यानी जमा बॉडी को इतना
आराम हो जाता है कि उसकी तरफ से सांस भी मशीन लेती है। इधर आत्मा यमराज के दरबार
में पेश हो चुकती है, उसके करम चेक हो चुकते हैं, स्वर्ग या नरक में उसको खोली मिल चुकती है और बंदा अस्पताल में बाकायदा
सांसे ले रहा होता है। अब इसे भी आप चमत्कार नहीं कहोगे तो मरो घर पे।
हम एक लोकतांत्रिक देश है । सिस्टम उसे जिंदा मानता है जो वोट दे देता
है। मजबूरी है, क्या किया जा सकता है । अमीर आदमी का रुतबा अलग है वह वोट नहीं
देता फिर भी बकायदा जिंदा रहता है। इसका रहस्य है कि वह चंदा देता है। राजनीतिक दल
चंदे से जिंदा रहते हैं। अमीर लोग राजनीतिक दलों के ऑक्सीजन सिलेंडर होते हैं।
सत्ता की सांसें अमीरों की तिजोरी में होती है। आमिर ना हों तो ऊपर बैठे मालिक का
कारोबार भी ठीक से नहीं चले। आप समझ गए होंगे कि अमीर की इच्छा ही सिस्टम की जान
होती है। इसलिए अमीरों को बचाना सिस्टम को बचाना है। बड़े और समझदार आदमी हर काम कायदे से करते हैं। इसलिए अमीरों के अस्पताल अलग
और गरीबों के अलग होते हैं । कायदे चाहे अस्पताल के हों, न्यायालय के हों या फिर धरम
के हों, कोई भी कायदा गरीब अफोर्ड नहीं कर पाता है । वो अक्सर अच्छे अस्पताल और ईलाज
की कामना करते हुए मर जाता है। वैसे कामना का क्या है, लोग
हूरों की भी करते ही हैं । गालिब ने कहा है कि ‘दिल को बहलाने के लिए खयाल अच्छा
है’ । बहुत से कार्ड वाले गरीब अस्पताल के दरवाजे तक पहुँच कर कैसे तो भी मर लेते
हैं। दरअसल गरीब को भ्रम होता है कि वह जिंदा है। अस्सी
करोड़ को मुफ़्त राशन और ऑक्सीजन मिल रही है
। सांस चल रही हो तो लोग भी मान लेते हैं कि आदमी जिंदा है। सरकारें अस्पताल
बनवाती हैं ताकि आदमी जिंदा रहे और गरीब भी । गरीबों के अस्पताल भी खासे गरीब होते
हैं । गरीब से गरीब की मेचिंग होती है और ये संबंध लंबा चलता है । यहाँ कोई
ऑक्सीजन सिलेंडर के लिए नहीं दौड़ता, ताबीज और भभूत के लिए पेरेरल दौड़ता दिखता है ।
गरीब अस्पताल में जब तब रोने चीखने की आवाज गूँजती है तो जमीन पर पड़े मरीज के घर
वाले खुश होते हैं कि शायद अब बेड मिल जाएगा । हूरों वाली कामना आखरी में आ कर एक
बेड पर सिमट जाती है । बेड पर मरने को मिले तो गरीब की मुक्ति हो जाती है ।
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