शनिवार, 23 मार्च 2024

प्लेट में दो काने बैंगन


 



देखिये कुंजी बाबू आप पडौसी हैं सो घर जैसे ही हुए । लेकिन आज की तारीख में देश हो या आमजन, लोगों को घर से ही ज्यादा खतरा होता है  । वो कहते हैं ना अपने ही गिरते हैं नशेमन पे बिजलियाँ । तो भईया  हम जैसे गऊ आदमी भरोसा करें तो किस पर करें । सरकार ससुरी हमारे वोट से बनती है पर कभी हमारी हो न सकी । पनेली तन्ख्वाह समझो फूटे कनस्तर में ले कर आते हैं,  टेक्स इतने तरह का हैं  कि आधी बह जाती है ! लेने वाले के हजार हाथ होते हैं । देना पड़ता है, सबको देना पड़ता है । सड़क पर चलो तो दो, कुछ खरीदो बेचो तो दो, पैदा होना मरना तो है ही खर्चीला, जीना भी बहुत महंगा है । आदमी संसार में देने के लिए ही आता है । दाता एक ‘आम’ भिखारी सारी दुनिया। 

कहने को पुलिस प्रशासन जनता के सेवक हैं और हम मालिक । लेकिन वक्त जरुरत जब इनके सामने जाना पड़ जाये तो कमर और घुठने अपने आप मुड़ जाते हैं ।  पीढ़ियों से अन्दर पता नहीं क्या भरा पड़ा है कि अपने ही कमर घुठनों पर भरोसा नहीं रहा । लेकिन सब बुरा बुरा नहीं है, कुछ अच्छा भी है । एक बेचारे गुंडे बदमाश ही हैं जिन पर भरोसा करता है हरकोई  । जो बोलते हैं वो कर देते हैं ईमानदारी से । भला करने की ठान लेते हैं तो कानून कायदे की परवाह भी नहीं करते हैं । हाँ थोडा पैसा लेते हैं, पर आज कौन नहीं लेता है ! सब कुछ बाज़ार है, कोई घोड़ा घास से यारी नहीं कर रहा है तो ये भी क्यों करें ! कायदे से आते हैं हफ्ता लेने, ये नहीं कि डाकू की तरह आये और छापा मार दिया । पिछले कुछ वर्षों में गुंडा उद्योग ने अच्छी तरक्की की है । कहते हैं पुराने समय में नेता गुंडों को पालते थे लेकिन अब जमाना नया है, स्थितियां पलट गयीं हैं । आने वाले समय में बच्चों को पढ़ाया जाएगा कि ‘लीडर एक पालतू जीव होता है ‘ । तब हो सकता है कि अगली पीढ़ी अपने लीडरों को प्यार करने लगे ।

तुम कहोगे कुंजी बाबू कि भगवान पर भरोसा रखो । तो भैया रखते हैं, एक यही भरोसा है जो थोड़ा  सस्ता पड़ता है । लेकिन जरा गौर करिये, इधर उनकी भगवानियत खुद दांव पर लगी पड़ी है । सृजनहार अहसानों तले दबे लग रहे हैं । दर्शन का टिकिट लागू है और वे बेबस दर्शक बने खड़े हैं । कल को हाथ जोड़ने, शीश झुकाने, मनोकामना, प्रार्थना, आरती वगैरह पर भी शुल्क लग जायेगा तो भगवान क्या कर लेंगे ! दुकान भले ही सरकारी हो चलाने वाले कार्पोरेटिये हैं । भगवान पहले पुजारियों के लिए कमाते थे अब व्यवसाइयों के लिए ।  दीवारों वाले मंदिर परिसरों में बदल गए । लोग तफरी के लिए आने लगे हैं । पहचान का संकट पांव पसार रहा है । पहले कभी कहा जाता था ‘मोल करो तलवार का पड़ी रहन दो म्यान’ । अब मोल म्यान का ज्यादा हो रहा है । ऐसे माहौल में तुम ही बताओ हम क्या करें ! एक जमाना था जब हम आप पांच साल में अपनी पसंद के लोगों को चुन लेते थे । अब तो प्लेट में दो काने बैंगन हैं और कहा जा रहा है कि एक चुन लो ! ये चुनाव है क्या !? कुछ तो बोलो कुंजी बाबू ?

------


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें