घुइंयाराम
दफ्तर में डिप्टी हैं । बोलने वाले उन्हें डेपुटी साहेब बोलते हैं । जितने सावधान वे घुइंयाराम को लेकर हैं उतने ही
डेपुटी साहेब को लेकर सचेत । लेकिन दुनिया सीधी थोड़ी है गाहे बगाहे घुइंयाराम
साहेब कहने से चूकती कहाँ है । वे जलभुन के रह जाते हैं । कई बार मन होता है कि बहती
गंगा में हाथ धोते हुआ अपना नाम भी बदल लें । एक बार तो नाम रख ही लिया प्रयागराज
। सोचा जब लोग काशीनाथ, मथुरा प्रसाद हो सकते हैं तो अपने प्रयागराज होने से किसी
को क्या ! लोग एक प्रयागराज से राजी हैं
तो उसके साथ लगे लगे पार हो लेंगे अपन भी । लेकिन जिन्हें घुइंयाराम ही बोलना है
वे बोलते रहे । अपने यहाँ कहते हैं मारने वाले का हाथ पकड़ा जा सकता है, बोलने वाले
की जुबान नहीं पकड़ी जा सकती है ।
आज पूरा
टोला आया है मोहल्ले का । सारे घुइंयाराम जी बोलते हैं, लेकिन आज बाकायदा डेपुटी
साहेब से शुरुवात हो रही है ।
“क्या
डेपुटी साहेब कैसा क्या ? कार अच्छी चल रही है ना आपकी ?” एक ने बात शुरू की ।
डेपुटी
साहेब सुन कर घुइंयाराम को खुटका हुआ । दाल में कुछ काला है । शूर्पणखा भी बड़े
सलीके से पेश आई थी राम के सामने । बोले - “ जी हाँ, अच्छी चल रही है । दो बार राजधानी हो आया हूँ
कोई दिक्कत नहीं हुई ।“
“अजी दिक्कत
कैसे होगी ! नयी कार है कोई मजाक थोड़ी है । अभी लिए दिन ही कितने हुए हैं । चार
पांच महीने पहले दशहरे पर ही तो ली थी ।“
“हाँ, अभी
तो नयी ही है । पर पेट्रोल का बड़ा खर्चा लग गया है । आप भी देख रहे हैं महंगाई
कितनी है । “
“अरे
छोडिये डेपुटी साहेब आपके लिए क्या महंगाई ! वो क्या है , हम लोग आपको वादा याद
दिलाने आये हैं । कार की ख़ुशी में आपकी तरफ से ढक्कन खुलना बाकी है ।“
“ढक्कन !!
कैसा ढक्कन भई ? मैं कुछ समझा नहीं ।”
“आपने कहा
था दीवाली के चलते अभी टाइम नहीं है तो कार की ख़ुशी में ढक्कन होली पे खोलेंगे ।
तो होली आ गयी , अब आपको ढक्कन खोलना है ।“
“अरे भाई
लोगों गुप्ता जी यहाँ पोता हुआ है, पहले उनसे खुलवाइए ढक्कन । पोता होना बड़ी बात
है । ज़माने की हवा देखो आजकल बेटा अपना नहीं होता पोता हो जाता है । “
“गुप्ता जी
भी खोलेंगे । पर आपका ढक्कन पहले ड्यू है । सब लोग चाहते है कि डेपुटी साहेब का
जलवा हो जाये इस बार । .... तो बताइए डेपुटी साहेब कब रखें ? कम से कम तीन ढक्कन
तो लगेंगे ।”
“अरे यार
आप लोग भी कहाँ बात को पकड़ के बैठ गए ! अब वादे हैं कहाँ, उपर से नीचे तक जुमले ही
हैं । जहाँ रोज सुनते हो रोज भूलते हो तो मेरा एक और सही । भूल जाओ ना प्लीज । जो
बातें शिष्टाचार में कही जाती हैं उसका कोई मूल्य थोड़ी होता है । ढक्कन खोलना कोई
अच्छी बात थोड़ी है और फिर मैं ढक्कन का आदी नहीं हूँ आप जानते हैं ।“ उन्होंने साफ मना कर दिया ।
“देखिये
झूठ मत बोलिए घुइंयाराम जी । आपकी ढक्कन-शामें रिस रिस कर मशहूर हो चुकी हैं मोहल्ले
भर में । “
“आपको
ढक्कन नहीं खोलना तो कहा क्यों घुइंया जी । आदमी की जुबान ढक्कन से बड़ी होती है उस
पर कायम रहना चाहिए ।“
लोग डेपुटी
साहेब के साथ आये थे और घुइंयाराम जी से होते हुए घुइंया जी पर आ गए । उन्हें डर
लगा कि ये ‘जी’ भी पिघल न जाये वरना सूखे घुइंया रह जायेंगे । मन ही मन वो तीन
ढक्कनों का हिसाब लगाने लगे ।
इधर सब
ताडू थे । समझ गए कि हिसाब लगाया जा रहा है । बोले – कार महँगी है ढक्कन सस्ते
नहीं होने चाहिए । कुत्ता काला या लेबल लाल हो, इससे नीचे नहीं चलेगा ।
“ठीक है
.... मंजूर ।“ घुइंयाराम को बोलना पड़ा ।
“जय हो
डेपुटी साहेब की .... आपका तो दिल बड़ा है ... आप मोहल्ले की शान हो जी ... मर्द की
जुबान है पलटेगी थोड़ी ... अगले साल मोहल्ला कमिटी का अध्यक्ष आपको ही बनना पड़ेगा
... तो फिर ठीक है ....मिलते हैं होली की शाम को ।“
घुइंयाराम
को लगा होली के पहले ही छींटे डाल गए लोग ।
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