गुरुवार, 20 अक्तूबर 2022

सामने वाले की (हवा) बिगाड़ो


 

राजनीति एक सामूहिक हवाबाजी है । जमाना इन्टरनेट का है, जब किसी की हवा चल नहीं रही हो तब सब लोग मिल कर गाने लगें कि चली चली हवा चली .... पार्टी की हवा चलीतो हवा जो है चलने लगती है । हवा को पता है कि चलने से ही वह हवा है । जिस तरह चलती का नाम गाड़ी होता है उसी तरह चलती का नाम हवा भी होता है । चाल और चलन की जितनी अनिवार्यता मनुष्य के जीवन में है उससे ज्यादा हवा के अस्तित्व में हैं । राजनीति में हवा का बड़ा महत्व है, अपनी चल जाए और सामने वाले की बंद हो जाए तो समझो गढ़ जीत लिया । हर चुनाव के समय हवा बनानेकी कोशिश की जाती है । जी, आपने ठीक समझा, हवा बनाई भी जाती है, कक्षा पांच के बच्चे से पूछोगे तो वह बता देगा कि एनटूओटू  से बनती है । राजनीति की हवा जरा अलग होती है । इसको बनाने का कोई आसान फार्मूला नहीं है कि आपको बता दें चट्ट से । आपने देखा ही होगा कि चुनाव के समय लोगों को खूब उल्लू बनाया जाता है । उल्लू बनने के बाद भी लोग देखने में तो आदमीही लगते हैं, उल्लू जैसा तो कोई दिखता नहीं । उसी तरह हवा बनाई जाती है, टाइट की जाती है, बंद होती है, निकल भी जाती है, निकाली जाती है पर किसी को दिखती नहीं है ।

श्वानों और नये नये गुण्डे भाइयों की हवा अपनी गली में ही चलती है, इसके प्रभाव में श्वान अपने को शेर और आदरणीय गुण्डे स्वयं को युवा हृदय-सम्राटतक समझने लगते हैं...... जो कि सही है । जी हां, नोट कर लीजिए कि, सही है, आखिर हमें भी अपने मोहल्ले में रहना है । हालांकि वे कहीं से भी शेर तो क्या शेर के साढूभाई भी नहीं लगते हैं, लेकिन कोई अपने को समझे तो क्या किया जा सकता है ।

लेकिन हवा भले ही गली में चले या वार्ड में, एक बार चल जाए तो समझ लो हवा-हवाई है । कुछ दिनों हवा बनी रहे तो कहा जाता है कि आदमी उड़ने लगा हैं । यों तो वह जमीन पर ही रहता है पर जानकारों की नजर में वो उड़ता है । आपने गर्म हवा के गुब्बारे देखे होंगे, जैसे जैसे गर्म हवा उसमें भरती है वो ऊँचा उड़ता जाता है । संतों का कहना है कि अभिमान की हवा गर्म होती है । वे ये भी कहते हैं कि वक्त की हवा नहीं आंधी चलती है । लोकतंत्र हवा से जिंदा रहता है और आंधियों से उजड़ता है ।

पार्टी ने ठूंस ठूंस के खाया है अपने राज में, लिहाजा हवा इधर भी बन रही है । लगातार खट्टी डकारें भी आ रही हैं । मुंह दबाओ तो पेट फूलता है, और पेट को राहत दो तो लोगों का सांस लेना दूभर होने लगता है । वोट की बात करो तो लोग नाक दबाते हैं । इस बार संस्कृति की हींग भी असर करेगी इसमें संदेह है । याद नहीं रहा था कि चुनाव के समय जनता के बीच जाना होगा । पुराने लोग पुराने चावल थे, दारू-कंबल से हवा बना लेते थे । गरीबी कम नहीं होने दी ताकि हवा सस्ते में बने, पर लोग अब ज्यादा स्याने हो गए हैं । लेपटाप, टीवी या फ्रीज तक मांगने लगे हैं । पार्टी के थिंकटैंक कहे जाने वाले फुसफुसा रहे हैं कि अपनी हवा नहीं बन पा रही है तो सामने वाले की बिगाड़ो यार । एक ही बात है ।

-----

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें