“आप फूलों पर लिखा करो यार . सिर्फ
फूलों पर .” आते ही उन्होंने आदेश सा दिया .
“फूलों पर क्यों !?” मैं चौंका .
“क्योंकि फूल भी हैं संसार में .
खिल रहे हैं चारों तरफ . आँखें खोल कर देखो . दिनरात सरकार पर ही भिड़े रहोगे तो
फूलों पर कौन लिखेगा ? कवियों और लेखकों को प्रकृति प्रेमी ही होना चाहिए .” उनका
स्वर शिकायती था, लगा कुछ नाराज हैं .
“ऐसा है भाई जी, लेखक वो लिखता है
जो उसे प्राथमिक रूप से जरुरी लगता है . घर में बिजली तो है आपके यहाँ . अगर कहीं
शार्ट सर्किट हो, जलने की गंध आ रही हो तो मेन स्विच की और ही दौड़ोगे ना ? ...
अव्यवस्था की गौमुखी जिधर होगी लेखक उधर ही जायेगा . ” उन्हें समझाने की कोशिश की
.
“अपने को सुधारो जरा . खुद की नज़रों
में खोट हो तो हर तरफ बुरा बुरा ही दिखता है . अच्छी नजरें वो होती हैं जो कीचड़
में भी कमल को ही देखती हैं, समझे . कबीर कह गए हैं – ‘साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय ; सार सार को
गहि रहे, थोथा देई उड़ाए’ . जो बुरा बुरा है वही थोथा है, उस पर ध्यान मत दो . जो
बुरा नहीं देखता वही साधु है . साधु हर जगह पूज्य है, हर राज्य में पूज्य है . कुछ
साधु सीधे भजन, पूजन, आरती, कीर्तन, गान आदि करते हैं, बहुत से लोग यह काम लिख कर
करते हैं . हम उन्हें उन्हें साधु-लेखक मानते हैं और मनवाते भी हैं . अच्छे
साधु-लेखकों को राज्य पुरस्कार, सम्मान, पदवी वगैरह दे कर उनके कर्म को सम्मति और
प्रोत्साहन देता है . अगर लेने वाला डिफाल्टर न हो तो देने में किसी दाता को कोई
दिक्कत नहीं होती है .” उन्होंने अपनी समझ बताई .
“पुरस्कार, सम्मान अच्छे हैं लेकिन
जरुरी नहीं कि ...”
“देखो, तुम्हें ऐसे कुछ नहीं मिलेगा
. तुम फूलों पर कुछ लिखो और फिर देखो क्या क्या होता है ! फूलों पर लिखा साहित्य
एसिडिटी की गोली की तरह होता है . पिछला एसिड न्यूट्रल करने का और कोई उपाय नहीं
है . प्रकृति कवि बनो, नीला आसमान, मादक पवन, चहचहाते पंछी देखो . तितलियों पर
लिखो, फूलों पर कलम चलाओ ताकि कल तुम्हारे
आंगन में फूल खिलें और दीवारों पर प्रशस्ति-पत्रों की अंगूरी झालर टंकी हो . ... अमलतास
फूल रहा है इन दिनों, उस पर लिखो . ” वे बोले .
“अमलतास पर तो ... मुश्किल है . मैंने
तो अभी तक ठीक से देखा भी नहीं है . आप कहें तो गुलाब पर लिखूं ?”
“ठीक है , गुलाब पर लिखो, ... लेकिन
लाल गुलाब पर मत लिखना. नेहरू ने सीने पर
लगा लगा कर गलत सन्देश दिया था और नतीजे में कम्युनिस्ट ऐसे सर पर चढ़ गए कि आज तक
उतरना मुश्किल है .” उन्होंने उंगली उठा कर कड़ी हिदायत के साथ कहा .
“लेकिन इन दिनों तो कम्युनिस्ट सोये
हुए हैं . कहीं कोई हलचल नहीं . इतनी भरपल्ले महंगाई में भी जो नहीं उठे वो तो पूंजीवाद
के समर्थक हुए ना . फिर उनसे डर कैसा ?” हमने परोक्ष रूप से लाल गुलाब पर लिखने की
मंशा जाहिर की .
“ डर वर कुछ नहीं, गुलाब से लोग लाल
गुलाब और शेरवानी ही समझते हैं . तुम तो अमलतास पर लिखो .” वे नहीं माने .
“ गुलमोहर पर लिखूं, वह भी खूब फूल
रहा है इनदिनों ?” अब हमने भी मजाक का मूड बनाया .
“कहा ना लाल नहीं, बड़ी मुश्किल से
लोग लाल झंडा भूले हैं . चलो गेंदे पर लिखो ... गेंदा तो जनम से ही देखते आ रहे हो
. गेंदा ठीक है ? ”
“गेंदे पर कविता निकलेगी नहीं , आप
कहें तो मोगरा चमेली ...”
“निकलेगी कैसे नहीं ! वो कितना
अच्छा लिखा है किसी ने ‘फूल गेंदवा न मारो, लगती करजवा में तीर’, एक और भी है
‘ससुराल गेंदा फूल’ . साहित्य को मोगरा
चमेली वाली कोठागिरी से बाहर निकालो . जरा
सोचो और फटाफट लिख डालो ‘गेंदा खण्डकाव्य’ और चार महीने बाद सम्मनित होने के लिए
तैयार रहो .
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