भक्ति बहुमार्गी है . पत्थर से पहाड़ तक, धरती से आकाश तक किसी का भी भक्त हुआ जा सकता है . राजनितिक दल में पहले भी भक्त हुआ करते थे गाँधी के नेहरू के, खादी पहनते, घरबार छोड़ कर उनके पीछे चल देते थे . समय बदल गया है और भक्तजन भी . भक्त हैं लेकिन अलग किस्म के . इन भक्तों की कई शाखाएं उपशाखाएँ हैं जैसे अंध भक्त, घनघोर भक्त, प्रशिक्षित भक्त, प्रशिक्षु भक्त, परंपरागत भक्त, नवीन भक्त, जांनिसार भक्त, जानलेवा भक्त वगैरह . दल की पंजी पुस्तिका में सारे भक्त देशभक्त के नाम से दर्ज होते हैं . जो भक्त नहीं वो देशभक्त भी नहीं . देश देशभक्तों का है, शेष को क्या समझना है और उनका क्या करना है यह चिंतन का प्रमुख विषय है . चिंतन के लिए शिविर होते है, जिसमें खास किस्म के विचारों की धारा बहती है . भक्त इस धारावाहिक चिन्तन को विचारधारा कहते हैं . विश्वास किया जाता है कि सुबह शाम तेल पिलाने से लाठी और विचार मजबूत होते हैं . हप्ते भर के शिक्षण बूस्टर डोज से भक्त सुरक्षित हो जाता है .
रामभरोसे सीधा साधा बेरोजगार आदमी है . उसके
पिता स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे हैं . गाँधी उसके मन में हैं . घर में एक गाय
है जिसके दूघ और उपलों से गुजारा चलता है . कुछ महीनो से रामभरोसे को इस बात से
बहुत गुस्सा है कि कोई रोज रात को उसकी गाय का गोबर चुरा ले जाता है . सुबह सुबह
कुछ लोग गौमूत्र के लिए लोटा लिए भी खड़े हो जाते हैं ! माहौल ऐसा हो जाता है जो
उसे पसंद नहीं है . लेकिन बॉडी लेंग्वेज पर गौर करें तो पता चलेगा कि रामभरोसे की
गाय को इसमें बड़ा आनंद आता है . वह भी मूत्र विसर्जन तभी करती है जब दो चार भक्त
लोटा आगे करके अम्मा अम्मा न कर लें . शुरू में लोटाधारी रामभरोसे को थेंक्यू कहते
थे,
लेकिन जबसे वे गाय के साथ आत्मनिर्भर होने लगे हैं तो ये उनकी
थेंक्यू-मुक्त सेवा हो गई है . एक दिन रामभरोसे से रहा नहीं गया, पूछ लिया कि आजकल आप लोग थेंक्यू नहीं कहते हैं ? वे
बोले – आप तो अपने हैं और अपनों के बीच थेंक्यू कैसा ! गाय जैसी आपकी माता है वैसी
हमारी भी . सो आप-हम तो गाय-भाई हुए ना .
“ठीक है ठीक है, थेंक्यू
भले ही मत कहिये ... पर ... भाई रहने दीजिये .” रामभरोसे ने सोचा मुंडेर का पीपल तुरंत
ही उखाड़ देना ठीक है . कल को भाई बनके गाय ही हांक ले गए तो क्या कर लूँगा .
वे लोग नहीं माने . समझाया कि आपके देशभक्त पिता
ने अपने को झोंक दिया, अब आपकी बारी है . देश वही है
लोग बदल गए हैं . बलिदान देने की जरुरत अभी भी है . आप जैसे लोग सोचते समझते हैं,
आप आगे नहीं आएंगे तो युवाओं को दिशा कौन देगा ? कल आप दिशा देने कार्यालय पर आइये, बहुत प्रसन्नता होगी .
“मेरे पास कोई दिशा नहीं है . मैं दिशाहीन बेरोजगार
हूँ . और मैं सोचता भी नहीं हूँ . दिमाग बिलकुल काम नहीं करता है . मुझे कुछ समझ
में भी नहीं आता है . कभी कभी तो मैं अपना घर तक भूल जाता हूँ . “ रामभरोसे ने
अपनी लाचारी बताई .
“दिशा नहीं, दिमाग
नहीं, सोच समझ नहीं, घर द्वार भूलने
वाले ! अरे आप तो हमारे बड़े काम के आदमी हैं ! आपसे बड़ा
देशभक्त और कौन हो सकता है . आप कल आइये, आपको दिशा मिलेगी,
विचार मिलेगा . क्या पता भविष्य में आपको देश का नेतृत्व करना पड़
जाये . समय का कुछ कहा नहीं जा सकता, पता नहीं कब किसका आ जाये . और दिमाग की
फ़िक्र नहीं करें, वो किसी काम का नहीं होता है . जो भी होता
है समय होता है . “ पहली बार किसीने इज्जत
की . सुन कर रामभरोसे को अच्छा लगा .
कल जाऊं या न जाऊं सोचते रामभरोसे ने दिन
गुजारा . दूसरे दिन सुबह लोटाधारियों ने अपना नित्यकर्म किया और बोले “चलिए, हम
आपको ससम्मान लेने आये हैं .” रामभरोसे अभी तक तय नहीं कर पाया था लेकिन चल दिया .
मुकाम पर पहुंचाते ही एक जैसे दिखने वाले कुछ लोगों से परिचय हुआ . ये पथप्रदर्शक
जी, ये मार्गदर्शक जी, ये संचालक जी, ये प्रेरक जी, ये निर्देशक जी वगैरह . उन्हें
बताया गया कि ये रामभरोसे ‘जी’ हैं .
प्रेरक जी बोले –“अच्छा !! आप अकेले नहीं
हैं ... यहाँ सब रामभरोसे हैं . नियमित आइये, आपको अच्छा लगेगा .”
रामभरोसे चौंका – “सब रामभरोसे हैं !!”
“हाँ जी, ... पूरी पार्टी . सांसारिक नाम
कुछ भी हो सकता है . किन्तु शीघ्रता मत कीजिये, धीरे धीरे सब समझ जाइएगा . आप राष्ट्रप्रेम
की मुख्यधारा में आ चुके हैं . “ प्रेरक
जी ने निर्देशक जी की और देखा .
“इन्हें ले जाइये और मन-मस्तिष्क
कार्यालय में जमा करवा कर गणवेश दिलवा दीजिये .” निर्देशक जी ने कहा .
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